सोमवार, 5 अक्तूबर 2009

बिन पानी सब सून नहीं

प्राचीन काल के एक महाकवि ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात लोगोँ को समझाई थी कि हमेँ पानी रखना चाहिए क्योँकि बिन पानी सब सून होता है । अब उस काल मेँ घरोँ मेँ या सार्वजनिक स्थलोँ पर नल या हेण्ड पम्प तो होते नहीँ थे कि जब जी मेँ आए पानी का उपयोग कर लिया जाए वरन महज मिट्टी के धडे, मटके या पीतल या किसी अन्य धातु के बर्तन ही होते थे जिनकी जल भँडारण क्षमता भी कम ही होती थी जाहिर है बहुत दूर से या कहीँ कहीँ तो मीलोँ दूर चल कर कुओँ या तालाबोँ से ही पानी लाना पडता होगा जो बडा कष्टकारी कार्य होता होगा साथ ही पानी लाने के समय महिलाओँ को लगातार ये खतरा भी बना रहता था कि कहीँ पनघट पर उन्हेँ कोई नन्दलाल छेड न जाए अत: हो सकता है इस सिद्धांत के पीछे सँभवत: उनका यही आशय होगा कि हमेँ पानी की बचत करनी चाहिए जिससे उसकी आवश्यकता होने पर हमेँ भटकना न पढ़ेगा वर्ना उसके न होने से सब कुछ सून हो सकता है ।

उनकी इसी बात का कुछ पढे लिखे और अपने को समझदार समझने वाले लोग अपने ही ढँग से ही उसका अर्थ निकालने लग गए । उनके अनुसार यहां पानी का अर्थ पानी न हो कर अपना मान, सम्मान, इज्जत् या आबरू है जिसको बचा कर न रखने पर सब कुछ मटियामेट हो सकता है किंतु आधुनिक युग के एक अन्य महाकवि ने पानी के बारे मेँ एक और महत्वपूर्ण बात लोगोँ को बताई कि उसका रँग ऍसा होता है कि उसे जिसमेँ मिला दो वह उस जैसा ही लगने लगता है । इस खोज से लोगोँ को यह देखकर अत्यंत् प्रसन्नता हुई कि वाकई यह पानी तो अत्यंत चमत्कारी चीज़ है इसे बचा कर रखना चाहिए । इसे तो दूध मेँ मिला कर कभी भी उसका दूध बनाया जा सकता है और बनाया भी जा रहा है । पेट्रोल, मिट्टी के तेल की मात्रा भी बढाई जा सकती है और बढाई जा भी रही है । जो समझदार व्यक्ति इस पानी को इज्ज़त या मान सम्मान के अर्थोँ मेँ ले रहे थे जब उन्होँने भी इस प्रयोग करने का मानस बनाया तो और कोई चीज़ न पाकर उन्होँने इसे धूल मेँ ही मिला दिया और उसका असर देखना चाहा और उन्होँने पाया कि पानी तो मिट्टी मेँ ही मिल गया उनकी इज़्जत तो धूल मेँ ही मिल गई । लेकिन अब समय बदल गया है अब अधिकाँश जगहोँ पर पानी का प्रबन्ध होने लग गया है भले ही उसकी एक बोतल की कीमत 15 रुपए क्योँ न हो । जिस चीज़ को कभी प्यासे को पिलाया जाना पुण्य का कार्य समझा जाता था अब उस पुण्य के 15-20 रुपए खर्च करने पडते है । चलिए यह सँतोष तो है कि पानी आखिर मिल तो रहा है परंतु यह बात भी सत्य है कि हमेँ पानी लगातार मिलता रहे इसके लिए दुनिया को वर्षा पर ही निर्भर रहना पडता है और वर्षा कोई ऍसी वैसी तो है नही कि उसका जब मन जब जहाँ आए बरस जाए उसका क्या भरोसा ? वह भी प्रकृति के कुछ नियमोँ से बँधीँ हुई है जिन नियमोँ का पालन करने मेँ मनुष्य सदा ही कोताही बरतता आ रहा है इस लिए मौसम विभाग की अनेक भविष्यवाणियोँ के वावज़ूद भी कुछ सालोँ से आर्थिक मन्दी की तरह वारिश मेँ भी मन्दी का दौर आ ही जाता है । आज जब पूरे देश मेँ वारिश की मन्दी के कारण पानी का सँकट बना हुआ है हमारे लिए यह वरदान है कि हमारे शहर के बीचोँबीच चम्बल नदी बहती है वैसे वह बहती तो शहर से दूर ही थी किंतु शहर वालोँ को यह कतई गवारा नहीँ हुआ कि वह अलग थलग बहे इसलिए उसके चारोँ तरफ मकान बना कर उसे बीच् मेँ ले आए । जिसका परिणाम यह हुआ कि हमारे यहाँ पानी की कमी नहीँ रही । नल चौबीसोँ घंटे अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराते रहे कभी भी दफ्तर के बाबुओँ की तरह चाय पीने के बहाने अपनी सीट से गायब नहीँ हुए और् हम पानी का जम कर उपयोग या दुरुपयोग करते रहे । चुल्लू भर पानी मेँ डुब कर मरने वालोँ को जो दिक्कतेँ आतीँ थीँ वह भी दूर हो गई तथा उन्हेँ भी विशेष सुविधा प्राप्त हो गई । वैसे देखा जाए तो पानी की कमी होना भी मानव समाज के लिए बहुत् लाभदायक है । खुशनसीब है वे लोग या बस्तियाँ जिनमेँ पानी नहीँ आता या जहाँ पानी की किल्लत है । आइए ज़रा गौर करेँ की पानी की कमी से हमेँ क्या क्या लाभ है : - नलोँ मेँ पानी आने की प्रतीक्षा मेँ लोग रात रात भर जाग जाग कर नलोँ को देखते रहेँगे जिससे उनके घरोँ की रखवाली होगी तथा चोरियोँ तथा अपराधोँ मे कमी होगी। - घरोँ मेँ पानी न आने के कारण लोग सडक के हेंडपम्पोँ या कुओँ तालाबोँ से पानी बाल्टियोँ मेँ भर भर कर लाएँगे जिससे उनका नियमित व्यायाम होगा जो स्वास्थ्य के लिए लाभकारी होगा । - पानी की कमी से घरोँ एवँ सडक की नालियोँ मेँ पानी इकट्ठा नहीँ होगा जिससे उसमेँ मच्छर या अन्य कीटाणु पैदा नहीँ होँगे और मलेरिया , डेगू, स्वाइन फ्लू जैसी बीमारियाँ नहीँ फैलेँगी। - पानी न आने के कारण गर्मी मेँ लोग शीतल पेय, मिनरल वाटर, शर्बत आदि का प्रयोग अधिक करेँगे जिससे पानी की मशीन की टँकियाँ, मटके, घडे वालोँ को अधिक कार्य मिलेगा और उनकी बिक्री अधिक होगी। इस प्रकार लघु उद्योगोँ को प्रोत्साहन मिलेगा । - पानी की कमी से घरोँ मेँ कूलर आदि बन्द पडे रहेँगे जिससे बिजली की बचत होगी, उसकी खपत मेँ कमी होगी तथा बिजली के बिल कम आएँगे । बचत की गई बिजली का उपयोग अन्यत्र जगहोँ पर किया जा सकेगा । - अभी तो पानी अधिक आने के कारण लोग उसका दुरुपयोग करते रहे हैँ पानी की कमी के कारण लोगोँ मेँ उसकी बचत करने की आदत पडेगी । अभी तो प्रत्येक महिला या पुरुष तीन तीन चार चार बाल्टियाँ से या नल और शावर के नीचे बैठ कर नहाते है पानी की कमी से घर के सभी सदस्य एक बाल्टी पानी से ही नहा लिया करेँगे । - पानी की कमी से व्याह शादियोँ या समारोहोँ मेँ की भव्यता मेँ भी कमी आएगी जिससे फिजूलखर्ची कम होगी तथा बरतन आदि साफ करने की मुसीबत से बचने के लिए ‘उपयोग करो और फेँक दो’ वाले पत्तल दोने गिलासोँ का उपयोग अधिक होगा जिससे उनकी बिक्री बढेगी । - बरसात की वजह् से सडकेँ खराब नहीँ होँगी और उनकी मरम्मत का पैसा बचेगा जो दूसरी लाभकारी योजनाओँ मेँ लगाया जा सकेगा और आवागमन मेँ सुविधा बनी रहेगी। - पानी की कमी से होली के त्योहार पर भी लोग रँगोँ की जगह सूखी गुलाल की होली ही खेलना पसँद करेँगे जिसके लिए बहुत सी सँस्थाएँ अनुरोध करतीँ हैँ । इस प्रकार हम देखते हैँ कि बिन पानी सब सून नहीँ है । अभी कुछ देशोँ मेँ आई सुनामी से यह बात भी सिद्ध होती है कि बिन पानी चाहे सून हो या नहीँ अधिक पानी आ जाने से भी सब सून हो जाता है । आए दिन समाचार पत्रोँ मेँ शहर के अनेक क्षैत्रोँ मेँ पानी न आने की शिकायत का समाचार प्रकाशित होना इस लाभकारी योजना की दिशा मेँ उठाया गया महत्वपूर्ण कदम प्रतीत हो रहा है । क्षमा करेँ अब मैँ चलता हूँ बन्द पडे नल मेँ से पानी के टपकने की आवाज़ आ रही है क्योँकि जल है तभी जीवन है।

शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

विकास का रोग

जिस तरह गर्मी या बरसात का मौसम आते ही बहुत-सी बीमारियॉं भी फैलने लगती है पिछले दिनों चुनाव का मौसम आते ही कुछ लोगों को एक नई बीमारी लग गई। वे मिलते तथा कुछ बडबडाने लगते थे। यदि उनकी बातों पर ध्यान दिया जाए जो आम तौर पर लोग नहीं देते हैं तो उनकी पूरी बात में मुहल्ले का विकास¸ गाँव का विकास¸ शहर का विकास¸ राज्य का विकास¸ देश का विकास जैसे शब्द सुनाई देने लगते थे। इस विकास नामक बीमारी ने छुटभैए से लेकर देश के प्रधानमंत्री तक को अपनी गिरफ़्त में ले लिया था।इस बीमारी से ग्रसित एक मरीज़ से जब हमने पूछा कि आपको ये बीमारी कैसे लगी आप तो ठीक-ठाक थे । वे बोले ये मुझे मेरी पार्टी हाई कमान से लगी है मैं तो अच्छा भला जीवन व्यतीत कर रहा था कि उनका आदेश आया कि तुम अभी तक क्या कर रहे हो उठो और सब का विकास करो । मैं भी सोचने लगा कि अभी तक मैं अपना ही विकास कर रहा था जबकि सबके विकास में ही अपना विकास है तभी से मेरे सारे बदन में विकास की झुरझुरी चलना शुरू हो गई है ।
इस बीमारी के और क्या क्या लक्षण हैं ’।
रात में ठीक से नींद नहीं आती । सुबह उठते ही नहा धोकर झक्क सफ़ेद कुर्ता पाज़ामा या गेरूए वस्त्र पहनने का मन करता है। दोनों हाथों की हथेलियाँ आपस में जुड जातीं हैं तथा हरेक ऐरा गैरा नत्थू खैरा अपना माई बाप प्रतीत होने लगता है। सबको अपने दॉँत दिखाने का मन करता है तथा विकास विकास का जाप करने की इच्छा होती है। घर के बाहर की ठीक-ठाक सड़क के छोटे-छोटे गडढे भी बडे बडे प्रतीत होने लगते है । चारों ओर गन्दगी पसरी दिखाई देती है। नालियों को देख कर लगता है कि उनकी सालों से सफ़ाई नहीं हुई है। चारों तरफ़ पैसा ही पैसा दिखने लगता है । इसके अलावा इस बीमारी से ग्रसित अन्य मरीजो की बुराई करने में प्रसन्नता महसूस होती है । सब लोगों से ये पूछने का मन करता है कि ‘यहॉ जो पहले की सरकार थी उन्होंने विकास के नाम पर क्या किया’ क्योंकि यही एक ऐसा प्रश्न है जिसका जवाब कोई भी नहीं दे पाता है । अब लोगों को याद तो रहता नहीं है कि कौन सा विकास किसने करवाया । मैंने पूछा आप किस चीज़ का विकास करेंगे ? वे बोले सबसे पहले पेयजल की समस्या का निदान करेंगे जिससे नलों में पानी चौबीसों घन्टे आएगा ।
लेकिन पानी तो अभी भी चौबीसों घन्टे आ रहा है’ ।
‘हम छत्तीस घन्टे पानी देंगे’ । ‘लेकिन एक दिन में तो चौबीस घन्टे ही होते है फिर छत्तीस घन्टे कैसे पानी आएगा’ ?

मैनें फिर शंका ज़ाहिर की । ‘छत्तीस घन्टे के बाद हम पानी बन्द करवा देंगे फिर हर छत्तीस घन्टों बाद कुछ घन्टों का ब्रेक। आख़िर सभी जगह तो बीच में ब्रेक होता है कि नहीं ‘? यही तरीक़ा हम अन्य क्ष्रैत्रों में भी अपनाएँगे जैसे बिजली अडतालीस घन्टे तक दी जाएगी । और क्या क्या करेंगे ? सड़कों की मरम्मत करवाएँगे । ‘लेकिन यहॉ तो सड़कें भी बहुत अच्छी है । ‘वो तो ठीक है पर अगर सड़कों पर काम नहीं चलेगा तो ये कैसे मालूम पडेगा कि विकास हो रहा है । विकास होते हुए दिखना भी तो चाहिए’ । ’नदियों पर पुल बनवाएँगे’ । ‘पर यहॉ नदी भी तो नहीं है’ । जहॉ होगी वहीं बनवा देंगे । एक दूसरे विकासग्रत रोगी से भी हमने पूछा कि ‘आप चुनाव में किस लिए खड़े हुए हैं ? ‘विकास के लिए’ । ‘विकास के लिए आप क्या क्या करेंग’ ? वे बोले हम तो हमेशा से ही विकास के बारे में ही सोचते आ रहे है । हम पक्के मकान बनाएँगे¸ आवागमन के साधन बेहतर करेंगे¸ उच्च शिक्षा का प्रबंध करेंगे¸ अच्छी नौकरी मिले¸ आय में वृद्वि हो¸ रहन सहन के स्तर में सुधार हो इसके लिए प्रयास करेंगे । ‘लेकिन आप इतना सारा काम कैसे करेंगे’ । उन्होंने जबाव दिया ‘ अब विकास हमारा एक ही तो इकलौता बेटा है उसके लिए नहीं करेंगे तो फिर किसके लिए करेंगे ।

सोमवार, 21 सितंबर 2009

साक्षात्कार गाँव वालों का दूरदर्शन द्वारा

(नेट पत्रिका ’रचनाकार’ द्वारा आयोजित व्यंग्य लेखन प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त)

उड़ती हुई धूल, बच्चों में सबसे अधिक गंदे दिखने वाले कुछ बालक बालिकाएं जिनकी नाक के दोनों नथुनों से जमना गंगा की उच्छल जलधि तरंग बहने का आभास हो रहा था और वे बालक बालिकाएं जो यदा कदा इस सच्चाई को भी उजागर कर दिया करते थे कि यदि प्रयास किया जाये तो बहती हुई धारा को भी उसके उदगम स्थल तक वापस मोड़ा जा सकता है क्योंकि गांव वालों में अभी भी रूमाल रखने का चलन नहीं था अतः उसका काम वे लोग किसी के मकान की दीवार से या अपने शरीर के पृष्ठ भाग के उपयोग से चला लिया करते थे। जानवरों के सींग, पैर, पूंछ, खुरों तथा गुप्तांगों जिनको जिन्हें गुप्त रखने की जरूरत उनको कभी भी नहीं हुई को दर्शाता हुआ नदी पर नहाती कुछ ग्राम्य बालाओं जिनका चीर हरण करने की जरूरत नहीं थी के रूप से छेड़छाड़ करता हुआ दूरदर्शन का कैमरा, गांव की एक मात्र मिठाई की दुकान ‘हनुमान मिष्ठान भंडार’ के मालिक राम प्रसाद अग्रवाल के मुख मंडल पर आ कर ठहरता है। राम प्रसाद जी के कपड़ों को देख कर यह बताना मुश्किल था कि उनके कपड़े सफेद थे जो मैल के कारण काले हो गए थे या काले थे जो मैल के कारण सफेद दिखाई दे रहे थे। कुल मिला कर मैल तथा कपडों में ‘मैं तुम में समा जाऊं तुम मुझ में समा जाओ’ की स्थिति थी।
दुकान में मात्र 3 य 4 छोटे थाल ही रखे हुए थे जो अपने आप को मिष्ठान भंडार का कैबिनेट स्तर का सदस्य मान कर इतरा रहे थे। उनमें लड्डू तथा पेड़े का भ्रम पैदा करने वाली जो मिठाईयां रखी हुई थीं उनके रंगों का शैड बड़ी से बड़ी पेन्ट बनाने वाली कम्पनी के शैड कार्ड में खोजना भी अत्यन्त दुश्कर कार्य था । थाल के चारों ओर किनारे पर मक्खियां इस तरह बैठीं थी जिस तरह किसी तालाब के जनाना घाट की दीवार पर लोग बैठे रहते है। सभी मक्खियां मिठाइयों के स्वाद के प्रति उदासीन थीं क्योंकि वर्षों से एक ही स्वाद को चखते चखते वे भी ऊब गईं थीं।
दुकान के बाहर दुकान का बोर्ड भी लगाया गया था जो प्राचीन भित्ति शैल चित्रों की लिखावट में लिखा हुआ प्रतीत होता था तथा किसी पोलिओ ग्रस्त बालक की भांति लटक रहा था। राम प्रसाद हर आने जाने वाले को बताया करते थे कि दुकान का यह बोर्ड उनके बेटे ने ही लिखा है जिसकी ड्राइंग बहुत अच्छी है तथा वह सीनरी बहुत अच्छी बनाता है। उनके बेटे द्वारा बनाई गई सीनरी में भी वही दो पहाड़ थे जिनके बीच में से सूर्य उदय हो रहा था । सूर्य और पहाड़ उस समय ऐसे लग रहे थे मानो दो पुलिस वाले किसी चोर को पकड़ कर ले जा रहे‚ हो बाद में बताया गया कि वह सूर्योदय नहीं था वरन् सूर्यास्त का नज़ारा था क्योंकि आज की पीढ़ी को तो पता ही नहीं कि सूर्योदय कैसा होता है । इसके अतिरिक्त एक नदी थी जिसमें लबालब पानी भरा था। पानी के रंग के बारे में यह मान्यता होने के बावजूद की वह रंगहीन होता है उस सीनरी में गहरे नीले रंग का पानी दिखाया गया था जो गांव की नदी के गंदे पानी की तरह ही गंदा दिख कर वास्तविकता दिखा रहा था। नदी में एक नाव थी जिसमें दो आदमी दो डण्डेनुमा पतवार लेकर आपस में झगड़ने की स्थिति में प्रतीत हो रहे थे। पहली नज़र में वे दोनों अडवानी और बाजपेयी जैसे लग रहे थे।
कैमरे की तरफ देखने के लिए मना करने के बावजूद भी राम प्रसाद जी कैमरे की तरफ देख लिया करते थे। दुकान को घेर कर खड़े हुए कुछ लोग उंगलियों से इस तरह इशारा कर रहे थे जिस तरह कालिदास ने शास्त्रार्थ के समय राजकुमारी विद्योतमा को देख कर किए थे। दूरदर्शन के प्रतिनिधि के हाथ में एक डण्डा था जिसका मुख लाला राम प्रसाद जी की ओर था । उसे देखकर ऐसा लग रहा था कि यदि प्रतिनिधि के पूछे गए सवालों का राम प्रसाद जी ने सही सही उत्तर न दिया तो वो उस के मुंह में घुसेड़ देंगे ।बाद में पता चला कि वह डण्डे नुमा चीज़ माईक थी । प्रतिनिधि सब कुछ जानते बूझते भी राम प्रसाद जी से एक ऐसा प्रश्न पूछता है जिससे दुनिया का प्रत्येक वार्तालाप प्रारंभ होता है ।
‘आपका नाम क्या है ।
राम प्रसाद जी इस खतरे को भांपते हुए कि अब अगला प्रश्न उनके बाप के बारे में ही पूछेगा पहले ही सतर्क हो जबाव देते है ।
‘राम प्रसाद अग्रवाल बल्द श्यामा प्रसाद ग्राम बयाना जिला फलां फलां।
मिठाई की दुकान पर बैठे हुए देख कर भी अनजान बनते हुए प्रतिनिधि दूसरा प्रश्न पूछता है। ‘आप क्या करते हैं ।
‘ मिठाई की दुकान चलाता हूं’।
एक थाल जिसमें तथा कथित लड्डू रखे थे उनकी तरफ कैमरे को घुमाते हुए फिर अगला प्रश्न छूटता है । ‘ ये मिठाई आप कब से बना रहे है’।
‘परसो से’ राम प्रसाद जी उत्तर देते हैं।
‘नहीं मेरा मतलब है कितने वर्षों से बना रहे हैं’।
‘बचपन से ही बना रहे है’। ‘आपकी मिठाई कौन खाते हैं’।
’आदमी, औरतें, जानवर सभी खाते हैं ।
‘आप इन मिठाईयों को ढ़ंक कर क्यों नहीं रखते जानते हैं कि इन पर जो मक्खियां भिन भिना रहीं है पता है उनसे क्या होता है ।
‘हॉ इनसे पता चलता है कि ये मिठाई है और मिठाई के अलावा और कुछ नहीं हैं इनमें मिलावट नहीं है वरन् मीठी हैं।
मक्खियों का ज़िक्र आते ही यह सोच कर कि उनका भी उल्लेख दूरदर्शन वाले कर रहे है सभी ने उड़ कर एक लम्बा चक्कर लगाया और जो मक्खियां बाहर किसी अन्य स्थान पर किसी दूसरे काम में व्यस्त थीं उनको भी यह खुश खबरी सुना कर कि वे दूरदर्शन पर दिखाईं जायेंगी वापस अपनी जगह पर बैठ गईं ।
‘इस दुकान की आमदनी से आप क्या करते हैं ।
‘अपने परिवार का गुजारा चलाते है। उनके खाने पीने की व्यवस्था करते हैं।
‘जिस दिन आपकी मिठाईंयां नहीं बिकतीं उस दिन घर का गुज़ारा कैसे चलता है।
‘उस दिन घर का गुजारा इन्हीं मिठाईयों को खा कर चलता है’।
कैमरा पुनः खेत खलियानों को रौंदता हुआ भीड़ से घिरे एक नवयुवक के ऊपर केन्द्रित होता है। उस युवक को देखकर यह अंदाज लगाया जा सकता था कि उसके चरण अवश्य किसी शहर को कुछ समय के लिए पवित्र कर चुके हैं । छींट दार बुशर्ट तथा जीन्स टाइप पेन्ट पहने देख कर उसे शहर वाले भले ही आधुनिक तथा अच्छे समाज का समझे गांव वाले उसे खेत में खड़े बिजूखा जैसा ही मानते थे इस कारण गांव में बाल विवाह का ज़ोर होने पर भी वह युवक अभी तक कुंआरा था क्योंकि कोई भी उस उजबक को अपनी कन्या नहीं देना चाहता था ।उनकी नज़र में शहर की हवा खाने वाले गांव के सभी युवक गंवारों की श्रेणी में आते थे जो शर्ट और जीन्स पहन कर गांव की परम्परा को चूना लगाने में लगे थे। उस युवक के पेन्ट की पीछे की जेब में एक छोटा कंघा तथा गले में रूमाल इस कदर शोभायमान हो रहा था कि यदि रुमाल की गांठ लगाने में ज़रा सी ओर ताकत का प्रयोग किया जाता तो वह युवक आत्म हत्या के प्रयास में पुलिस के हत्थे चढ़ गया होता। उसके आस पास खड़े नवयुवकों में आगे आने की होड़ लगी हुई थी। सभी राष्ट्र प्रेम से ओतप्रोत थे तथा राष्ट्रीय कार्यक्रम में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेना चाह रहे थे। ऐसा प्रतीत होता था मानों सामने किसी दस्यु सुन्दरी की लाश पड़ी हो। इस देश की बहुत समृद्व परम्परा है कि कैसी भी कानी कुबड़ी असुन्दर महिला क्यों न हो चंबल की घाटियों में शरण लेते ही सुन्दरी बन जाती है । चंबल की घाटी एक बहुत ऊंचे दर्जे का ब्यूटी पार्लर बन गया है। वे महिलाएं जो अपनी असुन्दरता के कारण हीन भावना की शिकार हैं एक बार चंबल घाटी जाकर सुन्दरी बन सकतीं हैं।
‘तुम्हारा नाम’। दूरदर्शन के प्रतिनिधि ने उस नवयुवक से वही घिसा पिटा सवाल किया ।
‘रमेश कुमार यादव’। वैसे उसका नाम रम्मू यादव था किन्तु शहर की गलत संगत के कारण रम्मू से रमेश बन कर उसने यह सोच कर कि नाम के आगे कुमार लगा लिया कि कुमार लगा लेने से गांव में उसकी हैसियत भी भले ही ऋतिक रोशन, शाहरूख खान, सलमान खान, सन्नी, बॉबी, जिन्होंने अपने नामों में कुमार शब्द का प्रयोग किसी षड़यंत्र के तहत बन्द कर दिया जैसी न बन पाये कम से कम दिलीप, संजीव,अक्षय,मनोज कुमारों जैसी तो हो ही जाये।
‘आप क्या करते है’
‘पढ़ता हूं’
‘पढ़ लिख कर आप क्या बनना चाहते है’। ऐसे प्रश्न अक्सर आठवीं या दसवीं का रिजल्ट आते ही मीडिया वाले उस छात्र या छात्रा से पूछते हैं जो मेरिट में आ जाते है और जिनमें अधिकांश डॉक्टर, इंजीनियर या आई ए एस अफसर बनने की इच्छा प्रकट करते हैं क्यों कि उनके बाप दादाओं को इन तीनों ने ही जम कर लूटा था। आज कल अपने आप को थोडा मॉडर्न समझने वाले फैशन डिजायनर बनने का राग भी अलापाने लगे है। एक छात्र ने जब अपनी नेता बनने की इच्छा जताई तो उसके बाप ने बाद में उसको बहुत ड़ांट पिलाई कि मेरिट में आने के बाद भी तुम नेता बनना चाहते हो । लानत है तुम पर।
‘डॉक्टर" । उसने भी उत्तर दिया।
‘क्या आप के गांव में अस्पताल है’ ।
‘हां है’ ।
गांव में जब कोई बीमार हो जाता है तब आप गांव वाले उसे कहां ले जाते हैं।
‘हनुमान जी के मन्दिर में पुजारी जी के पास’।
‘अस्पताल नहीं ले जाते’
‘जब मरने लगता है तब ले जाते है’ । वार्ताक्रम में किंचित भी अवरोध नहीं आ रहा था।
‘क्या आप यहॉ बिकने वाली मिठाईयाँ खाते हैं। क्या आप जानते है कि इस तरह की मिठाईयां खाकर उनसे बीमारियाँ हो सकती हैं’। दूरदर्शन के प्रतिनिधि ने अपनी बचपन में ‘सरल स्वास्थ्य’ की पुस्तक में पढ़े इस ब्रह्म वाक्य को दुहराते समय ऐसा मुँह बनाया जैसे इस रहस्य की खोज उसने ही की हो।
‘हाँ जानते हैं इसीलिए तो खाते हैं’।
‘जानते हुए भी क्यों खाते हैं।
‘बीमार होने के लिए’
‘बीमार किस लिए होना चाहते हो’।प्रतिनिधि ने नौ रसों में से एक रस का किसी नृत्यांज्ञना की तरह अभिनय करते हुए पूछा ।
‘अस्पताल जाने के लिए’। नवयुवक हाज़िर जवाबी में अत्यन्त निपुण दिखाई दे रहा था।
‘अस्पताल किस लिए जाना चाहते हो’
‘बताईयेगा अस्पताल किस लिए जाना चाहते है’ । अपने प्रश्न में बताओ की जगह बताइयेगा शब्द का प्रयोग करते ही आधे लोग समझ गए कि यह जरूर बिहार का रहने वाला होगा । प्रतिनिधि के इस प्रश्न को सुनकर थोड़ा शर्माते थोड़ा सकुचाते हुए नवयुवक ने इस प्रश्न का जो उत्तर दिया वह ‘अस्पतालों में मरीजों की बढ़ती हुई संख्या के कारण और निराकरण’ विषय पर निबंध लिखने वालों का मार्गदर्शन के लिए महत्वपूर्ण साबित हो सकता था।
युवक ने शर्माते हुए तथा इस सत्य को कि सत्य बोलने में साहस नहीं खोना चाहिए साहस के साथ स्वीकारते हुए उत्तर दिया ‘नर्स के कारण’ । आसपास खड़े हुए सब लोग जोर से हॅस पड़े।
कैमरे का अगला शिकार एक ऐसा अधेड़ युवक था जिस को देख कर लगता था कि उसकी साबुन बनाने वाली कम्पनियों से पुस्तैनी लड़ाई है इसलिए वो साबुन नामक चीज़ को न तो कभी खुद छूता था न ही अपने कपडों को छूने देता था। उसके शरीर पर विभिन्न स्थानों पर उगे हुए बाल किसी महिला की हारमोन्स की गडबडी के कारण नहीं वरन् उसके मर्द होने का सबूत दे रहे थे। पहली नज़र में देखने से ही मालूम हो जाता था कि वह किसान है।
‘आप का नाम’। प्रतिनिधि तुम से आप पर आ गया था जिस कारण उन दोनों के सम्बन्धों में कोई प्रेम सम्बन्ध स्थापित न हो सके।
‘लक्ष्मी नारायण’
‘आप क्या काम करते हैं’
‘मैं काश्तकार हूं’। पिछले कुछ समय से किसान अपने को काश्तकार कहलाना ज्यादा पसंद करने लगे हैं क्योंकि काश्तकार में साहूकार कलाकार चित्रकार जैसे प्रतिष्ठित व्यवसाय की गंध आती है। उसी गंध को आत्मसात करते हुए अगला प्रश्न फिर हवा में उछला।
‘ इस बार फसल कैसी हुई है’
‘अच्छी भी हुई और खराब भी’
‘अच्छी भी हुई और खराब भी’ इससे आपका क्या तात्पर्य है।
काश्तकार महोदय तात्पर्य का तात्पर्य समझ नहीं पाये। जब उसे बताया कि इसका मतलब मतलब है तब जवाब मिला।
‘फसल तो ठीक हुई है लेकिन सरपंच जी की भैंसे खेत में घुस जातीं है इसलिए खराब हो जाती है’।
‘अब आप क्या कर रहे हैं।’
‘हम क्या करें सरकार को ही कुछ करना चाहिए’
‘सरकार क्या भैंसे भगाए’
‘नहीं वो तो हम भगा देते हैं लेकिन जो भी नेता या अफसर यहाँ आता है वो भाषण दे जाता है कि हमें अच्छी फसल के लिए आधुनिक तरीके अपनाने चाहिए।
‘तो आपने कुछ तरीकों में बदलाव किया है।
‘हॉ किया है।
‘क्या किया’
‘हमने हल में बैल की जगह घोड़े जोतना शुरू कर दिया है।
कैमरा पुनः फूल पत्तियों को तोड़ता हुआ तथा पेड़ पर बैठे हुए बंदर तोते तथा कौओं को उड़ाता भगाता हुआ एक पक्के मकान के दरवाजे पर दस्तक देता है। अंदर सफेद धुले हुए कपड़ों में विज्ञापन के मॉडल की भाँति बगुले की तरह बैठे हुए गांव के प्रधान के ऊपर ठहरता है। वैसे आम दिनों में उनकी पोशाक जेब वाली बनियान तथा धोती होती थी जिसे वे इस तरह पहने रहते थे जिसमें से उनकी चड्डी भी आने जाने वालों को इस तरह देखा करती थी जिस तरह गांव की औरतें घूंघट की ओट से दिलवर का दीदार किया करतीं थीं परन्तु आज दूरदर्शन वालों के आने की सूचना से उनके शरीर पर कुर्ते ने भी कब्जा जमा लिया था। दूरदर्शन तथा गांव के प्रधान के बीच जो बातचीत हुई वह बड़ी उबाऊ किस्म की थी ।अतः उसे पूरी न लिख कर यहाँ कुछ शब्द दिए जा रहे हैं पाठकगण स्वयं बातचीत का अंदाज लगा सकते हैं।
गोबर गैस‚ हैण्ड पम्प‚ पंच वर्षीय योजना‚इन्दिरा गांधी, महात्मा गांधी, राजीव गांधी, राहुल गंधी, सोनिया गांधी, नहर‚ सिंचाई‚ खाद‚ अमोनिया‚ तहसीलदार‚ बी डी ओ‚ प्रौढ़ शिक्षा‚ यूरिया‚ पंचायत‚ गबन‚ फसल‚ ऋण‚ चुनाव‚ खुशहाल‚ कांइयां‚ जूते मारना चाहिए‚ षडयंत्र‚ मुकदमा‚ काला मुंह‚ गधे पर बैठा दो‚ बहुत कृपा की‚ जनता के सेवक‚ धन्यवाद‚ जयहिन्द ।


शरद के स्वर में भी सुनें

रविवार, 26 अप्रैल 2009

तीन व्यंग लघु कहानियाँ

मापदण्ड

बहुत दिनों तक अपने बिल में बैठे बैठे जब सांप उकता गया तो एक दिन सैर सपाटे के लिए सड़क पर घूमने निकल गया । सड़क पर जैसे ही लोगों ने सांप को घूमते देखा वे लाठी और पत्थर लेकर उसे मारने दौड़ पडे़ । बड़ी मुश्किल से वह अपनी जान बचाकर वापस बिल में घुस पाया ।

’ बाहर की दुनिया के लोग तो मुझ से बड़ी घृणा करते हैं वे तो मेरी सूरत तक देखना पसंद नहीं करते परन्तु क्या कारण हैं जब मैं भगवान शंकर के गले या उनके शरीर पर ब्बैठा रहता हूँ तो वे ही लोग मेरी पूजा करते हैं ? सांप ने अपनी सांपिन से पूछा ।

"अरे यही तो बात है । आज की दुनिया में किसी से घृणा या उसकी पूजा करने का मापदण्ड यह नहीं है कि वह अच्छा है या बुरा वरन यह है कि वह सड़क पर है या किसी ऊँची जगह बैठा है" । सांपिन ने सांप को समझाया ।

सफाई

एक लम्बे अर्से के बाद जब मंत्री जी की कार तथा पीछे पीछे धूल उड़ातीं कुछ जीपों के कफ़िले ने जैसे ही एक गाँव में प्रवेश किया गाँव के बच्चे मंत्री जी की कार को घेर कर खड़े हो गए । एक मनचले बालक ने जब कार के शीशे पर जमीं हुई धूल देखी तो वह अपनी अंगुली से उस पर कुछ लिखने लगा । एकाएक एक सुरक्षाकर्मी की नज़र उस बालक पर पड़ी । सुरक्षाकर्मी ने उस को दो चार चाँटे जड़ दिए । "मंत्री जी की कार को गंदा कर रहा है - साफ कर इसे । बालक ड़ाट खाकर सहम गया ।

अगले ही पल वह अपनी बनियान से कार के शीशे को जिसे उसने थोड़ी देर पहले कुछ लिखकर गंदा कर दिया था साफ करने लगा । कार के शीशॆ फिर चमकने लगे । उसने शीशॆ पर लिख दिया था " भारत माता की जय" ।

व्यवस्था

उस सड़क पर हमेशा भारी आवागमन बना रहता था । परिणामस्वरूप आए दिन दुर्घटनाएं होतीं रहतीं थीं । जब भी कोई दुर्घटना होती, लोग प्रशासन को गालियां देना शुरू कर देते । ऐसे जुमले अक्सर सुनने को मिल जाते थे " ऊपर सारे गधे बैठा रखे हैं कोई कुछ ध्यान ही नहीं देता है" ।

एक दिन सड़क के बीचों बीच एक गधा ट्रक की चपेट में आकर मर गया । थोडी देर तक तो सड़क पर भीड़ जमा हुई फिर एकाएक ट्रेफिक व्यवस्था अपने आप सुचारू रूप से व्यवस्थित हो गई । गधे की लाश के एक ओर से वाहन आ रहे थे तथा दूसरी ओर से जा रहे थे । जो व्यवस्था कुछ जीवित गधे ठीक न कर सके उसे मृत गधे ने ठीक कर दिया था ।

गुरुवार, 16 अप्रैल 2009

एक बार आजा आजा आजा ..

हे जनप्रतिनिधि !
जब से तुम चुनाव जीत कर गए हो,शहर के लोग तुम्हारी प्रतीक्षा में पलकें बिछाए बैठे हैं । सब लोग रह रह कर सड़क के दोनों ओर दूर दूर तक इस तरह निगाह डालते रहते हैं जिस तरह रेलगाडी की प्रतीक्षा में यात्री यह जानते हुए भी कि रेल दांयी तरफ़ से आ रही है वांयी तरफ़ भी देखते रहते हैं । सभी व्याकुल हैं कि ’कब गरद उठे अम्बर में और कब उन्हें आते दिखें घनश्याम’। कब एम्बेस्डर कारों का काफ़िला ’पैट्रोल बचाओ अभियान’ की धज्जियां उडाता हुआ उनके मुहल्ले में प्रवेश करे । कब बगुले के समान सफ़ेद झक्क वस्त्रों में आपके दीदार हों । कब गली के लावारिस बच्चे आपके काफ़िले की कारों के शीशे पर जमीं हुई धूल पर अपनी अंगुली से मॊडर्न आर्ट बना सकें । इसलिए एक बार आजा आजा ।

हे कथित जन सेवक !

तुम्हारी प्रतीक्षा में नगर की टूटी हुई सड़कों से धूल उड़ उड़ कर तुम्हारे मुख मण्ड्ल पर अबीर गुलाल की भांति लिपटने को व्याकुल हो रही है । सड़कों के किनारे लगे हुए हैण्ड पम्पों के आँसू तुम्हारी याद में रो रो कर सूख चुके हैं । सार्वजनिक नल दिन रात बहते हुए तुम्हारे आने की राह को पखारने में लगे हुए हैं । लेम्प पोस्ट पर लगीं बिजली की बत्तियां तुम्हारे विरह में दिन भर जलतीं रहतीं हैं तथा रात भर बुझी बुझी रहतीं हैं । इसलिए एक बार आजा आजा ।

हे लीप इयर की फ़रवरी माह की २९ तारीख जैसी प्रकृति वाले पुरुष !

पॊलीथीन की थैलियां नालियों में से अपना सिर बाहर निकाल निकाल कर तुम्हें निहारने के लिए दिन रात टकटकी बाधें पडी़ रहतीं हैं । कचरे के ढेर भी तुम्हारे स्वागत में जगह जगह किसी दल के कार्यकर्ताओं की तरह इकट्ठे हो रहे हैं । तुम्हारी एक झलक पाने के लिए आवारा पशु मुख्य सड़कों पर तुम्हारी राहों में पलक पांवडे बिछाए हुए तथा आने जाने वालों की परवाह न करते हुए विचरण करते रहते हैं । इसलिए एक बार आजा आजा ।

हे विपक्षी दलों की आँखों के काँटे !

ये माना कि चुनाव अभी दूर है और तुम्हारा अभी आना परम्परा के विपरीत होगा लेकिन एक नई परम्परा के निर्वाह के लिए तथा दूसरों के सामने एक उदाहरण बनने के लिए ही एक बार आजा अन्यथा कहीं ऐसा न तू जब आए तो इतनी देर हो जाए कि फिर लोगों के क्रोध के कारण तू कभी भी वापस आने के लायक ही न रहे । इसलिए एक बार आजा, आजा, आजा ।

बुधवार, 15 अप्रैल 2009

साडी़ का ब्लाउज़


मेरे मित्र शर्मा जी आराम से घर के बाहर बैठ कर अखबार पढ रहे थे । मैनें उनसे पूछा कि क्या आज दफ्तर नहीं जाना है ? वे बोले नहीं , आज छुटटी ली है.
ऐसा क्या काम आ गया, सब खैरियत तो है न ?
वो मेरी पत्नी ने साड़ी खरीदी है.
साड़ी खरीदी है या गाड़ी ? साड़ी खरीदने में ऐसी कौन सी महत्वपूर्ण घटना घट गई जिसका जश्न मनाने के लिए छुटटी ली जाए . क्या पहली बार ही खरीदी है ?
नही नहीं ! छुटटी साड़ी खरीदने की खुशी में नही ली है वरन आज उसका मैचिंग ब्लाउज पीस खरीदने जाना है।
तो उसके लिए छुटटी ? मैंने फिर शंका जाहिर की .
हॉ ब्लाउज पीस खरीदने जाएंगे तो समय तो लगेगा ही . तुम्हारी भाभी भी रात के खाने के लिए कुछ पराठें बना रही है आते आते रात तो हो ही जाएगी.
ब्लाउज का कपड़ा खरीदने में इतना समय लगता है क्या ? मैंने फिर शंका प्रकट की. बच्चू जब तुम्हारी शादी हो जाएगी तब तुम्हें मालूम होगा कि कितना बडा आयोजन होता है. मैंने उनसे कहा भाई साब मैं भी आपके साथ चलूं आगे चलकर मेरे भी काम आएगा. उन्होंने आज्ञा दे दी चलो .
ऐसा माना जाता है कि भारतीय महिलाओं की पारम्परिक वेशभूषा साड़ी है . जो काम महज दो गज कपड़े में सम्पन्न हो सकता था इसके लिए साढे पॉच गज कपड़ा बरबाद करने की तुक में मुझे साड़ी के आबिष्कारक का पागलपन ही नजर आता है. लेकिन अब समय बदल गया है आज की नारी को उस दकियानूसी वेशभूषा का अनुसरण करने में हीन भावना पैदा होने लग गई है. वे वस्त्रभार के इस अतिरिक्त बोझ से छुटकारा पाना चाहतीं है नतीजा यह हुआ कि बहुत सी मल्लिकाओं तथा शिल्पाओं ने वस्त्र की इस बरबादी के खिलाफ मुहिम छेड़ दी और साड़ी का त्याग कर दिया. जब साड़ी ही न रही तो अकेला ब्लाउज कौन पहनना पसंद करेगा नतीजा यह हुआ कि ब्लाउज अपने आप ही लुप्त होने की दिशा में निरन्तर अग्रसर होने लग गया. इसका एक फायदा यह हुआ कि कई लोगों को जो संशय बना रहता था कि ‘नारी बीच सारी है कि सारी बीच नारी है’ वह समाप्त हो जायगा और लोग समझ जाएंगे कि न तो नारी बीच सारी है और न ही सारी बीच नारी है बल्कि नारी अलग है और सारी अलग है.
यह भी सबकी धारणा है कि अविवाहित लड़कियॉ बैसे भले ही जीन्स, स्कर्ट, सलवार, कुर्ता, टी शर्ट कुछ भी पहन लें किन्तु उनकी शादी होते ही साड़ी पहनना आवश्यक हो जाएगा नहीं तो सब क्या सोचेंगे . जैसे उनकी शादी किसी लड़के से न होकर साड़ी से हो रही हो . अधिकांश युवतियॉ जो शादी करके साड़ी नहीं पहनतीं है उनके बारे में लोग पता नही क्या क्या सोचते होंगे., किसी भी लड़की की शादी का आयोजन हुआ नहीं कि सब लोग उसे भेंट में साड़ी देना शुरू कर देते है. उसी तरह लड़की की सास, ननद, बुआ, जेठानी, देवरानी और जितने भी महिला पात्र है सभी को साड़ी दी जाती है. इन साड़ियों की विशेषता यह होती है कि इनके रंग लाल पीले तथा इतने घटिया टाइप के होते है कि किसी को पसंद नहीं आते है इसलिए इन्हें कोई नहीं पहनता तथा उसी पैक्ड कंडीशन में अपने बक्सों में रख देते है जिससे कभी उनके घर में शादी हो तो ससुराल वालों को लेबल बदल कर भेंट में दे दी जाए. इसी तरह परम्परा चलती रहती है. बहुत सी मार्डन महिलाएं इन साड़ियों को अपनी कामवाली बाई को दे देतीं है सबका मानना है कि कामवाली बाईयाँ साड़ी के बहुत ही घटिया रंग पसंद कर लेतीं हैं. कितना मुश्किल काम है कि नव विवाहिता को साड़ी के साथ सम्पूर्ण जीवन गुजारना पड़ता है . तभी तो महिलाएं अपने मायके जाने के लिए बहुत उत्सुक रहतीं हैं कि वहॉ जाते ही उन्हें कुछ दिनों के लिए ही सही इस यातना से मुक्ति मिल जाती है. बहुत सी विवाहिता स्त्रियाँ तो ससुराल से मायके पहुंचते ही सबसे पहले घर में घुसते ही अपनी साड़ी खोलने लग जातीं हैं. कुछ तो सामान बाद में उतारतीं हैं साड़ी पहले .
किन्तु हमारी परम्पराएं और है हम में से हरेक आधुनिकता की दौड़ में मल्लिकाएं या शिल्पाएं नही बन सकतीं . बहुतों को अपनी परम्परा की रक्षा करनी है और साड़ी पहननी है और जब साड़ी पहननी ही है तो ब्लाउज का मैचिंग कपड़ा भी खरीदना है उसे सिलवाना है और पहनना है. चलिए अब मैं आपको उस दिन की घटना का आंखों देखा हाल सुनाता हूं जब मैं शर्मा दम्पत्ति के साथ साड़ी के मैचिंग ब्लाउज का कपड़ा खरीदने बाजार गया. आगे मैं शर्मा जी की पत्नी को शर्मानी कह कर सम्बोधित करूंगा.
बाजार में ब्लाउज के कपड़े की दुकान में घुसते ही शर्मानी ने साड़ी दुकानदार के हवाले कर दी. दुकानदार अन्तर्यामी था साड़ी हाथ में लेते ही समझ गया कि किस प्रयोजन से दी गई है. उसने वह साड़ी अपने नौकर के हवाले कर दी . उस नौकर ने एक दूसरे नौकर को दे दी. किसी के भी चेहरे पर प्रसन्नता की कोई भी लकीर नहीं दिखाई दे रही थी. रेखा शब्द का उपयोग यहॉ जानबूझ कर नहीं किया गया अन्यथा सब का ध्यान कहीं और भटक जाता. उस नौकर ने साड़ी को मोडकर उसे इस तरह आकार दिया जैसे बगुले की चौंच बना रहा हो. अलमारियों में ब्लाउज के थान किसी सैनिक टुकडी की तरह पंक्तिबद्ध खड़े हुए थे. नौकर साड़ी को उन के सामने से यूं गुजार रहा था जैसे किसी परेड का निरीक्षण हो रहा हो. एक के बाद एक कई अलमारियों का निरीक्षण चल रहा था. एकाएक एक थान को परेड से अलग कर दिया गया और उसे नीचे पटक दिया गया. शर्मा जी की पत्नी को दुकान के नौकर की ऑखों में कुछ खराबी नजर आई क्योंकि वह जिस कपड़े को साड़ी के रंग जैसा बता रहा था शर्मानी उसमें जमीन आसमान का फर्क बता रहीं थीं. अन्त में जब मामला दुकानदार तक पहुंचा तो अन्तर का मापदण्ड उसने दो ऐसी संख्याओं का उदाहरण देकर अपना फैसला सुना दिया जो प्रत्येक व्यापारी अपने धन्धे में उपयोग में लाता है कि उन्नीस बीस तो चलता ही है किन्तु शर्माजी की पत्नी उन्नीस बीस तो क्या उन्नीस और उन्नीस दशमलव एक पर भी राजी नहीं थी. और फिर काफिला दूसरी दुकान की तरफ कूच कर गया . फिर दूसरी से तीसरी तीसरी से चौथी और न जाने कितनी दुकानों पर निरीक्षण टोली छापा मारती रही. एक दुकान पर जा कर फिर यही क्रिया दुहराई गई . फिर एक थान बाहर निकाला गया . एकाएक शर्मानी ने दुकानदार को आदेश दिया कि दुकान की लाइटें बन्द कर दे . मैं घबरा गया कि कहीं हवाई हमला तो नहीं हो रहा है जिससे ब्लैक आउट करवाया जा रहा हो किन्तु बाहर तो उजाला ही उजाला था और लडाकू विमानों की आवाजें भी नहीं आ रहीं थी. शर्मानी एकाएक लाइट ऑफ होते ही साड़ी और कपड़े के थान के बीच कुश्ती का मुकाबला करातीं रहीं. कभी साड़ी ऊपर तो कभी कपड़े का थान ऊपर. अचानक वो साड़ी और उस ब्लाउज के कपड़े के थान को ले कर दुकान से बाहर निकल गईं . मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि जब ये कपड़ा खरीदने आए हैं तो इस तरह उसे चुराकर ले जाने की क्या आवश्यकता थी मुझे लग रहा था कि दुकानवाला चोर चोर का शोर मचाने ही वाला है किन्तु वह शान्त मुद्रा में ही बैठा रहा. मेरा अनुमान भी गलत निकला . शर्मानी कपड़े का थान चोरी कर के नहीं बल्कि उसको धूप दिखाने के लिए बाहर ले गईं थी क्योंकि हो सकता था इतने दिन दुकान में पडे पडे उसमें कीडे पड गए हो किन्तु मेरा यह अनुमान भी गलत था क्योंकि वो कपड़े का रंग लगभग साड़ी जैसा ही है इसकी पुष्टी सूर्य भगवान से करवाने के लिए बाहर ले गई थीं. उनके अन्दर आते ही दुकानदार पर प्रश्नों की बौछार शुरू हो गई. इसका रंग तो नहीं जाएगा, ? यह सिकुड़ तो नहीं जायेगा, ? यह जल्दी फट तो नहीं जाएगा, ? यह छिन तो नहीं जाएगा ? . दुकानदार के पास इन सब प्रश्नों के उत्तर पहले से ही मौजूद थे. उसे पहले से ही पेपर आउट हो गया था. सभी उत्तरों का जवाब हॉ या न में ही देना था तथा उसने सभी का उत्तर ना में ही दिया .
अन्त में फैसले की घड़ी आ गई जिसका मुझे पिछले चार पॉच घण्टों से इन्तजार था . मैं सोचने लगा कि जव एक कपड़े के लिए इतना समय लगा तो महिलाओं का आधा जीवन तो इसी कार्य में गुजर जाता होगा किन्तु संतोष हुआ कि अब वह थान खरीदा ही जाना था जिसके लिए इतना समय तथा परिश्रम व्यय किया गया. अगले ही पल शर्मानी ने दुकानदार को जो आदेश दिया उसको सुनकर ही मुझे चक्कर सा आ गया . ‘इसमें से अस्सी सेन्टीमीटर दे दो’. मेरी ऑखों के सामने गणित का सवाल घूमने लगा कि यदि एक महिला छः घण्टे में एक साड़ी के लिए अस्सी सेन्टीमीटर कपड़ा खरीदती है तो एक साल में उसके पति को कितनी छुट्टियाँ लेनी पडेंगी ? रात के लगभग नौ बजे हम लोग उस अनुष्ठान के पूर्ण करके अपने घर पहचे. शर्मा जी ने मुझसे पूछा क्या तुम्हारे पास सिलाई मशीन है ?
क्यों क्या ब्लाउज घर पर ही सिला जाएगा ?
नहीं वो तो बाजार में सिलवाएंगे किन्तु हर ब्लाउज की एक विशेषता होती है कि उसे चाहे कितने भी बडे से बडे दर्जी से सिलवाया जाए उसकी फिटिंग कभी सही नहीं बैठती और प्रत्येक महिला सिलकर आने के पश्चात उसका पोस्टमार्टम जरूर करती है. कभी उसमें सिलाई डाल कर या उसे उधेड़ कर .
दूसरे दिन सुबह सुबह मैंने फिर देखा कि शर्मा जी घर के बाहर अखबार पढ रहे हैं. क्या हुआ ? क्या आज भी छुट्टी पर हो ? कल ज्यादा थक गए थे क्या ? मैंने उनसे पूछा .
नहीं, आज भी बाजार जाना है .
क्यों अब क्या रह गया ? मैंने पूछा
आज पेटीकोट का कपड़ा लाना है .
पाठक इस लेख में ऊपर के पैराग्राफ में जहॉ यह लिखा है कि ‘ बाजार में ब्लाऊज के कपड़े की दुकान में घुसते ही’ से अन्त तक पुनः आगे का हाल पढते जाए और जहां जहां ब्लाउज लिखा है उसे पेटीकोट कर लें. उसमें भी वही क्रिया अपनाई जाती है.
०००


शरद के स्वर में भी सुनें

रविवार, 29 मार्च 2009

प्रशंसा करवाने का नुस्खा

राम सेवक जी बहुत मक्कार किस्म के व्यक्ति हैं। इतने वाहियात कि उनके नाम के साथ जी लगाने में भी सोचना पडता था। संसार में जितनी तरह की गालियाँ विद्यमान हैं विभिन्न लोग उनको उनके लिए प्रयोग में ला चुके थे।सब लोग उन्हें उन गालियों से इस प्रकार विभूषित करते थे जिस प्रकार किसी साहित्यकार को 'साहित्य श्री' किसी गायक गायिका को 'स्वर सम्राट' या 'स्वर कोकिला' की उपाधि दी जाती है। उनकी कुटिलता बेईमानी और तिकड़मबाज़ी का क्षेत्र बहुत व्यापक था। जो भी उनके बारे में कुछ कहता उनके नाम के पहले उनकी माँ तथा बहन को ज़रूर याद कर लेता था। वे भी इस उधेडबुन में रहते थे कि ऐसा क्या किया जाए जिससे लोग उनको याद करें या उनकी प्रशंसा करें। कुछ दिनों से उनकी हरकतें कुछ कम हो गईं थी। वे दिखते भी कम थे। कुछ लोगों ने बताया कि इन दिनों वे घर में बैठे-बैठे कुछ लिखते रहते है।
एक दो महिनों बाद डाक से एक निमंत्रण पत्र प्राप्त हुआ। यह राम सेवक जी की ओर से था लिखा था कि उनके प्रथम काव्य संग्रह ' कुत्ते की टेढ़ी पूँछ हूँ मैं' का विमोचन समारोह अमुक तिथि को होगा। अध्यक्षता उस शहर के एक प्रमुख साहित्यकार जिनका जन्म लगता था अध्यक्ष बनने के लिए ही हुआ था¸ करेंगे तथा मुख्य अतिथि¸ पत्र वाचक¸ विशिष्ठ अतिथि¸ अति विशिष्ठ अतिथि¸ संयोजन आदि के खाते में भी बहुत से प्रसिद्ध तथा महत्वपूर्ण लोगों के नाम थे। अन्त में सहभोज में सम्मिलित होने का भी आग्रह था । सभी को आश्चर्य हो रहा था कि यह आदमी कवि कब से हो गया और कवि होना तो दूर उसका काव्य संग्रह भी प्रकाशित हो गया जबकि बडे़-बडे़ साहित्यकार ज़िन्दगी भर साहित्यकार तो बने रहते है किन्तु उनकी रचनाओं की पुस्तक प्रकाशित नहीं हो पाती या कई लोगों की पुस्तकें तो ख़ूब प्रकाशित हो जाती हैं परन्तु वे साहित्यकार नहीं होते। मैं भी एक ऐसे आदमी को भी जानता हूँ जिसकी 12 पुस्तकें प्रकाशित हो गई है लेकिन लगता है कि उन की रचनाओं को उनके अलावा सिर्फ़ प्रेस के कम्पोजीटर या प्रूफ रीडर ने ही पढ़ा होगा। आज भी उनको कोई¸ साहित्यकार नहीं मानता सब उनके बारे में यही कहते है 'अच्छा वो हेड मास्साब'। वे एक महत्वपूर्ण सरकारी पद से सेवानिवृत हुए थे अत: उनको पेन्शन अच्छी मिलती थी जिसका उपयोग वे अपनी घटिया रचनाओं की पुस्तक छपाने में किया करते थे। सबने राम सेवक जी के बारे में सोचा कि आदमी चाहे कितना भी बुरा क्यों न हो कम-से-कम उसमें एक अच्छाई तो है कि वह साहित्य में अपना योगदान दे रहा है तथा साहित्यकारों को भोजन करवा रहा है।
निश्चित तिथि एवं समय पर मैं कार्यक्रम स्थल पहुँच गया। एक भव्य पंडाल सजाया गया था जिसमें लगभग 500 कुर्सियाँ तथा मंच पर विशिष्ट अतिथियों के बैठने की व्यवस्था की गई थी। पंडाल काफ़ी ख़ाली था । इक्के दुक्के लोग ही बैठे हुए थे। लोग एक एक करके एकत्र हो रहे थे। अधिकांश लोगों को मालूम था कि सहभोज तो कार्यक्रम शुरू होने के दो घण्टे बाद ही होगा । लोग आने के बाद रामसेवक जी को बधाई प्रेषित कर रहे थे। कुछ देर में सभी अतिथि गण भी आ गए। स्वागत तथा दीप जलाने की रस्म के बाद पुस्तक के विमोचन का कार्यक्रम हुआ। रंगीन कागज़ में लिपटी पुस्तकों को पैकिंग वाले ने इस क़दर टेप लगा कर पैक किया था कि उसे खोलने में मुख्य अतिथि महोदय को भारी मसक्कत करनी पड़ रही थी। पुस्तकें थीं कि बाहर आने का नाम ही नहीं ले रहीं थीं अन्त में एक कैंची की मदद लेनी पडी तब कही जा कर 'कुत्ते की टेढ़ी पूँछ' बाहर निकली रामसेवक जी ने अपने संकलन से कुछ रचनाओं का पाठ किया। उन्होंने बताया कि उनका यह संकलन जीवन में भोगे हुए अनुभवों का दर्पण है । उनकी पहली रचना थी :
' मेरे घर चाय पीने के जितने भी प्याले है
सब के हत्थे टूट चुके है।
अब वो प्याले नहीं कुल्हड़ लगते हैं
मैं अब भी उनमें चाय पीता हूँ
मतलब आम खाने से है या पेड़ गिनने से
चाय का स्वाद तो बदलेगा नहीं
चाहे प्याला हो या कुल्हड़'।
उनकी दूसरी रचना थी :
मेरी पत्नी मुझे एक रोटी देती है
कहती है गाय को खिला दो
बाहर जा कर वह रोटी में
कुत्ते को खिला देता हूँ या
ख़ुद खा जाता हूँ।
जो रोटी गाय माता खा सकती है
वह मैं क्यों नहीं ? कुत्ता क्यों नहीं ?
क्या उस रोटी पर गाय का नाम लिखा है ?
उनकी इस रचना पर एक विशेष समुदाय के लोगों ने ख़ूब तालियाँ बजाईं क्योंकि इसमें गाय¸ माता¸ तथा रोटी का ज़िक्र था। लोग उनकी रचनाएँ सुन रहे थे वाह-वाह भी कर रहे थे किन्तु सबका ध्यान पीछे बन रहे पकवानों की आ रही सुगन्ध की ओर था। कान के ऊपर नाक हाबी हो रही थी। राम सेवक जी ने तीसरी रचना पढ़ी :
संध्या ढलते ही जब सूरज छुप जाता है
पहाडों की ओट में
गहराने लगता है अंधकार
कितना उपयोगी होता है
छत पर पडा हुआ बाँस।
मैं फँसाकर उसमें घर की बिजली के
तारों के आँकडे़
डाल देता हूँ बिजली के उन तारों पर
गुज़रते हैं जो घर के क़रीब से
हो जाता है फिर से उजाला
ऐसा लगता है
मानों सूरज फिर से वापस लौट आया हो।
संकलन की समीक्षात्मक टिप्पणी करते हुए प्रथम वक्ता ने कहा कि रामसेवक जी की रचनाओं मे कवि ने जिस स्पष्टवादिता तथा जीवन के अनुभवों का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत किया है वो हम सब के लिए एक अनुकरणीय है। कवि जीवन में किए गए किसी भी कर्म को हेय दृष्टि से नहीं देखता हैं तथा उसे स्वाभिमानपूर्वक सबके सम्मुख उजागर भी करता है जो रचनाकार को एक विशिष्ट स्थान पर प्रतिपादित करता है। अपनी रचना गाय को रोटी मे कवि मन किसी अंधविश्वास का सहारा न लेकर गाय¸ कुत्ते तथा स्वयं में भी कोई भेद नहीं देखता है तथा इस रचना में उसका पशुओं के प्रति एक सकारात्मक मित्रतापूर्ण तथा भ्रातत्वपूर्ण नज़रिया दृष्टि गोचर होता है। इसी प्रकार उनकी रचना सूरज तथा बिजली के तारों के आँकडे में कवि ने देश की उन समस्याओं की ओर इशारा किया है जिनसे आज ग़रीब तथा भोली जनता त्रस्त है तथा उसे जीवन यापन के लिए अनुचित तरीकों का उपयोग करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। अप्रत्यक्ष रूप से यह उन राजनीतिज्ञों की कारगुज़ारी की ओर भी संकेत करता है जो देश की भोलीभाली जनता को ग़रीबी हटाओ जैसे झूठे आश्वासन देते हैं तथा उन्हें पूरा नहीं करते। उनकी रचना 'चाय तो चाय ही है' में वे आज के समाज में फैल रहे झूठे दिखावे तथा भौतिकवादी ताक़तों के विरूद्ध एक संघर्ष छेडते नज़र आते है। उनकी एक एक रचना समाज में एक नई क्रान्ति का सूत्रपात करने में सक्षम है।
दूसरे वक्ता ने भी उनके इस काव्य संग्रह की तिल जैसी रचनाओ को ताड़ बनाने में कोई क़सर नहीं छोडी। उन्होनें कहा कि रामसेवक जी को अपनी कविता के विषय खोजने के लिए कहीं इधर-उधर नहीं भटकना पडा वरन् इन्होनें स्वयं तथा अपने घर को ही अपनी काव्य-कला का आधार बनाया है जो इनके स्वाभिमान तथा इनकी दूसरों के घरों में ताक-झाँक न करने की आदत का द्योतक हैं।
इसी क्रम में मुख्य अतिथि¸ विशिष्ट अतिथि¸ अति विशिष्ट अतिथि¸ ने भी अपने सम्बोधन मे राम सेवक जी के साथ गुज़ारे अपने पुराने समय को याद किया क्योंकि वे राजनीति से जुडे हुए लोग थे जिन्हे कविता से कुछ भी लेना-देना नहीं था। वे तो केवल सहभोज के लिए आए थे। मुख्य अतिथि ने अवश्य यह कहा कि जव हम पाँचवी कक्षा में पढते थे राम सेवक ने उस समय भी एक कविता बनाई थी। हुआ यूँ कि इसने हमारे मास्साब की कुर्सी पर काली स्याही डाल दी थी¸ मास्साब का रंग भी काला था तब उसने कहा था :
'आगे से भी काले हैं पीछे से भी काले हैं
इन्हे देखकर लगता है ये कुम्भकरण के साले है'।
अर्थात् यह कहने में अतिशियोक्ति नहीं होगी कि इनमें काव्य कला का बीजारोपण इनके बाल्यकाल से ही हो गया था तथा इनकी यथार्थवाद की रचनाएँ इनको महाकवि निराला के समकक्ष खडा करतीं हैं। मुख्य अतिथि की इस बात पर सब लोग मुँह दबा कर तथा उन्हें मन-ही-मन गालियाँ देते हुए हँस रहे थे।
मुख्य अतिथि के बाद अध्यक्ष महोदय की बारी थी किन्तु कार्यक्रम बहुत अधिक लम्बा खिंच जाने के कारण सब लोग आपस में बातें करने लगे थे अध्यक्ष की बात कोई नहीं सुन रहा था। अध्यक्ष महोदय रामसेवक जी की तारीफ़ कम अपनी ज़्यादा कर रहे थे उन्हें इस बात से कोई लेना देना नहीं था कि लोग सुन रहे हैं या नहीं वे तो जितना बोलना चाहते थे बोले जा रहे थे। लोगों की धैर्य की सीमा टूट रही थी। खाना बनाने वाले भी 3 घन्टे से फ़िजूल की बकबास सुनते सुनते ऊब चुके थे। उनमें से एक आदमी ने झट से टाट पट्टियाँ बिछा कर पत्तले बिछाना प्रारम्भ कर दिया। पत्तले बिछी देखकर लोग उठ-उठ कर पत्तलों के आगे बैठने लगे थे। अध्यक्ष जी का भाषण अभी चल ही रहा था। अब नाक और कान पर मुँह और पेट भारी पड़ने लगा था। मजबूरन अध्यक्ष जी को अपना भाषण समाप्त करना पडा।
सह-भोज के बाद सब लोग अपने पेट पर हाथ फेरते हुए राम सेवक जी की प्रशंसा तथा उन्हें बधाई दे रहे थे । सब को सामूहिक रूप से अपनी प्रशंसा करवाने का गुर प्राप्त हो गया था ।

रविवार, 22 मार्च 2009


मुझको भी तो जेल करा दे

मेरी तीन प्रबल इच्छाएं हैं। पहली यह कि मैं प्यानो बजाऊं । दूसरी मैं अपनी पत्नी की कम से कम एक बार पिटाई करूं और तीसरी कि मैं भी जेल जाऊं। अब पहली इच्छा पूरी करने के लिए २० गुणा ५० वर्गफुट का मकान पर्याप्त नहीं है उसके लिए तो एक शानदार महलनुमां बंगला चाहिए। बंगले के बहुत बड़े हाल में रखा हुआ प्यानो चाहिए। हाल में चक्कर लगाती हुई सुन्दर प्रेमिका और गुस्से में आग बबूला होता हुआ उसका बाप भी चाहिए फिर प्यानो बजाने में एक परेशानी यह थी कि उसे दोनों हाथों से बजाना होता है। मैनें अब तक सिर्फ हारमोनियम ही बजाया है और वह भी एक हाथ से यदि दोनों हाथों से बजाता तो हवा कौन भरता। हवा भरने पर ही बहुत सी चीजें बजतीं हैं। मेरी पत्नी ने सलाह दी कि वह पैर फैलाकर बैठ जायेगी और मैं उसके पैरों पर दोनों हाथों से प्यानो बजाने का अभ्यास कर लूं इससे मेरा अभ्यास ठीक हो जायेगा और उसके दोनों पैरों का दर्द। इन सभी में बहुत सी झंझटें तथा खर्चा अधिक होने के कारण मुझे इस इच्छा को छोड़ना पड़ा।
दूसरी इच्छा जो पत्नी की पिटाई से ताल्लुक रखती थी उसके विषय में मुझे एकाएक महसूस हुआ कि इस प्रकार की इच्छा दूसरी ओर भी जन्म ले सकती है। आग दोनों तरफ लग सकती है। महिलायें भी पुरूष के समान अधिकार प्राप्त करने की दिशा में सक्रिय हैं। मैं अपनी इच्छा के कारण इतना बड़ा जोखिम उठाने को तैयार नहीं था अत: इस इच्छा का भी त्याग करना पड़ा।
मेरी तीसरी और अन्तिम इच्छा जेल जाने की अभी भी बलवती बनी हुई है। जेल जाने में आसानी यह है कि इसके लिए किसी योग्यता की आवश्यकता नहीं होती। समाज में दो ही स्थान ऐसे हैं जहां योग्यता का कोई महत्व नहीं है एक जेल तथा दूसरा संसद। किसी चारदीवारी के बाहर लड़ने झगड़ने पर जब आपको जिस चारदीवारी के अन्दर कर दिया जाता है उसे जेल कहते है पर जब किसी चारदीवारी के अन्दर लड़ने झगड़ने पर आपको बाहर निकाल दिया जाये वह जगह संसद कहलाती है। आप सोच रहे होंगे कि यह मुख्य विषय से दूर हट रहा है। एक अच्छे व्यंग लेख की यही विशेषता है।
जेल और राजनीति का तो चड्डी बनियान जैसा साथ है। अपने देश में कुछ लोग जेल चले जाते हैं तो कुछ राजनीति में। कुछ राजनीति में जाकर जेल चले जाते हैं तो अधिकांश जेल से राजनीति मे चले आ रहे है । हमारी आयात और निर्यात नीति बहुत अच्छी है ।
जेलों के विषय में हमारी हिन्दी फिल्मों ने सबको इतना विशद अध्ययन करवा दिया है जितना स्वयं जेल के अधिकारी भी नहीं जानते होंगे फिर भी जेल के विषय में कुछ महत्वपूर्ण जानकारियॉ उपलब्ध कराना अपना फर्ज समझता हूं क्योंकि जिस जगह जाना है उसके इतिहास और भूगोल की जानकारी तो होनी ही चाहिए। इसका तात्पर्य यह नहीं हैं कि मुझे जेलों के बारे मैं बहुत ज्ञान है अधिकतर लोग किसी विषय में जानकारी न होने पर भी उस विषय पर बात कर लेते है। साहित्य और कविता के क्षेत्र में भी यही हो रहा है। जेल की जानकारी होने से भविष्य में वह आप के काम भी आ सकती है।
जेल की दीवारें हमेशा ऊंची और चौकोर पत्थरों की बनी होतीं हैं जिन पर सीमेन्ट का प्लास्तर नहीं होता। वैसे प्लास्तर होता तो है पर जेल की दीवारों पर नहीं कागजों पर होता है। प्रसिद्ध व्यंगकार शरद जोशी के अनुसार ऊंची ऊंची ये दीवारें कैदियों के सामने एक चुनौती के रूप में खड़ी होकर उन्हे हमेशा लांघने के लिए एक प्रेरित करती रहतीं हैं। बिना प्लास्तर की दीवारें होने का एक लाभ यह है कि कैदी इस बात की आसानी से जॉच कर लेते है कि किस स्थान के पत्थर हटा कर आसानी से भागा जा सकता है। जेल के अधिकारियों को भी यह पता करने में सुविधा रहती है कि कैदी किस जगह के पत्थर हटा कर भागा। दोनों को फायदा है।
जेल को कुछ मनचले ससुराल की भी संज्ञा देते है क्योंकि वहॉ खाना पीना तथा ठहरना मुफ्त में होता है। मेरे अनुभवों के आधार पर आजकल जेल को ससुराल मानने से बेहतर है कि ससुराल को जेल समान माना जाये। सास ससुर के इस वाक्य में कि ''हमारे दामाद तो हमारे बेटे जैसे हैं’’ के पीछे एक भयंकर षड़यंत्र छुपा होता है। इस ब्रह्यवाक्य का प्रयोग कर वे आपसे घर के अनेक छोटे मोटे कार्य जैसे उनको डॉक्टर को दिखाना उनकी दवा लाना या उनके किसी रिश्तेदारों को रेल या बस में बैठाना इत्यादि करवाते रहते है।
जेल में एक जेलर भी होता है जो न तो कालिया फिल्म के प्राण जैसा होता है न ही कर्मा के दिलीप कुमार जैसा और न ही अंग्रेजों के जमाने के जेलर असरानी जैसा। पहले के जेलरों को बड़ा खूंखार किस्म का माना जाता था किन्तु आज के जेलर कायर भी हो सकते है और शायर भी। ऐसे भी हो सकते है जिनके न मूंछ हो न दाढ़ी और ऐसे भी जिनके बदन पर लिपटी हो साड़ी।
आजकल जेलों में जगह जगह सुधार कार्यक्रम आयोजित किए जाते है। जब हमने एक जेलर से पूछा कि ऐसे कार्यक्रमों से क्या कैदियों में कुछ सुधार होता है तो वे बोले '' आम कैदियों में तो होता है किन्तु ख़ास कैदियों के लिए तो हमें जेल में ही सुधार कराना पड़ता है। अब तो यही डर लगा रहता है कि इन ख़ास कैदियों की सज़ा पूरी करवाने में कहीं हमें ही सज़ा न भुगतनी पड़े।
ईश्वर करे आप को भी जेल जाने का अवसर मिले जिससे मेरे द्वारा उपलब्ध जानकारी का आप लाभ उठा सकें।

दूध है कि मानता नहीं..

पुराने या बुजुर्ग लोगों का यह आदर्श वाक्य है कि हमें दूध पीना चाहिए क्योंकि दूध पीने से मनुष्य में ताकत आती है हालांकि इसी ताकत को बाद में युवा लोग उन्हीं बुजुर्गों से लड़ने झगड़ने के काम में प्रयोग में लाते हैं। यदि किसी विज्ञापन की भाषा में बात करें तो कह सकते हैं '' दूध पियें क्योंकि इसमें जान है।“ लेकिन दूध पीने की प्रकिया मात्र इतनी सी ही नहीं है कि दूध लिया और पी लिया तथा ताकत ग्रहण कर ली इसके लिए बड़ी तपस्या करनी पड़ती है।
यह भी हम सब जानते हैं इस दुनियां में जो नर हैं उन्हें अपने मन को निराश नहीं करना चाहिए तथा कुछ काम करना चाहिए अर्थात विवाह करना चाहिए और जब विवाह होगा तो जाहिर हैं उनकी पत्नी भी आएगी और जब पत्नी आएगी तो वह यदा कदा मायके भी जाएगी जब वह मायके जाएगी तो पति को स्वयं ही खाना या तो बनाना पड़ेगा या बाज़ार में खाना पड़ेगा खाना तो चलो वह बाजाऱ में खा लेगा किन्तु सुबह सुबह उठते ही उसे चाय भी तो चाहिए । वैसे पुरूष चाहे कितना ही कामचोर या अक्खड़ किस्म का क्यों न हो चाय तथा खिचड़ी बनाने का गुण तो उसे जन्मजात से ही मिला हुआ होता है। उसकी सबेरे सबेरे चाय पीने की आदत के कारण ही सुबह हुई नहीं कि सबसे पहले तो दूध वाले का इन्त़जार करो। जो लोग ऐसा करते हैं वे इस कथन को बिलकुल बकवास समझते हैं कि इन्तज़ार का मज़ा ही कुछ और है'। इसमें कोई मज़ा वज़ा नहीं आता जिनको आता है वे शायद दूध नहीं पीते होंगे।
दूध के विषय में भी लोगों में यह भ्रान्ति फैला दी गई है कि उसे आते ही गर्म करके उफान लेने से वह फटता नहीं है मनुष्य का स्वभाव इसके विपरीत है उसमें उफान आते ही वह फट पड़ता है और दूसरों को फाड़ने के लिए आतुर हो जाता है। घर में अकेले होने पर यह सबसे बडा प्रश्न सम्मुख खडा रहता है कि दूध कितना लेना है हालॉकि प्रश्न दिखता तो नहीं है कि वह खड़ा है हो सकता है कि वह बैठा हुआ हो जब दिखता नहीं है तो क्या भरोसा खड़ा है कि बैठा है फिर भी हम मान लेते है कि वह खड़ा है। यदि एक पाव लेते हैं तो कम रहता है आधा लीटर लेते है तो बच जाता है जो प्रतिदिन थोड़ा थोड़ा एकत्रित हो कर बूंद बूंद से घड़ा भरने वाली कहावत को सिद्ध कर देता है परन्तु मेरी समस्या दूध की मात्रा या उसके उपयोग को ले कर नहीं है वरन्‌ उसे उफान लाने के लिए गर्म करने को ले कर है।
आपने दूधवाले से दूध ले लिया और उसे गैस के चूल्हे पर चढ़ा दिया ।अब आप प्रतीक्षा कर रहे है कि दूध में उफान आए तो आपका अनुष्ठान पूरा हो। आपकी स्थिति रेलवे स्टेशन पर खड़े उस यात्री की तरह हो रही है जिसे ट्रेन के आने का इन्तज़ार करना पड़ रहा है पर वह आ नहीं रही है। आपको भी उफान के आने का इन्तज़ार है पर वह भी नहीं आ रहा है । आपके दिमाग में ही उफान आ रहा है। दूध है कि किसी तपस्वी की तरह शान्तचित्त अपनी तपस्या में लीन है । आप उस पर कितना ही खीज क्यों न खाए उस पर कोई असर नहीं पड़ रहा है। इन्तज़ार की घड़ियॉं रिस्ट वॉच से बढ़ कर दीवार घड़ी बनती जा रही है पर दूध है कि मानता ही नहीं। दूध भी सोचता रहता है कि खड़े रहो बेटा लेते रहो इन्तज़ार का मज़ा । इस बीच आपको कोई काम याद आ जाता है या यह विचार मन में आ जाता है कि कहीं बाहर का दरवाजा खुला न रह गया हो देख लिया जाए और आप जल्दी से यह देखने थोड़ी देर के लिए बाहर चले जाते हैं बस सारी गड़बड़ यहीं से शुरू हो जाती है। दूध जैसे ही देखता है कि अब अपुन को देखने वाला कोई नहीं तो वह किसी कैदी की भॉंति चल पड़ता है कारागार की दीवारों की सारी सीमाएं लांघ कर दूसरी दुनिया की सैर करने । आप जब जल्दी से काम निपटा कर वापस आते हैं तब तक मालूम पड़ता है कि चिड़ियॉं तो खेत को चुग ही गईं हैं। आपका गैस का चूल्हा भी दूधो नहाओ हो चुका हैं।
वैज्ञानिकों के सामने भी यह समस्या अवश्य आई होगी क्योंकि उनकी भी शादी हुई होगी उनकी पत्नी भी मायके गई होगी उन्होनें भी दूध उफान लिया होगा और उनके साथ भी ऐसा हादसा हुआ होगा। वे भी लग गए होगे इस समस्या का हल खोजने और इस समस्या का हल उन्होने खोज निकाला भी । कुछ समय पूर्व बाजार में एक ऐसा पात्र प्रचलन में आया जिसकी दो दीवारें होतीं थीं । दोनों दीवारों के बीच एक छेद में से वर्तन में कुछ पानी डाला जाता था तथा उस छेद में एक सीटी फिट कर दी जाती थी। जब दूध गर्म हो जाता था तो बाहरी दीवारों में भरा हुआ पानी भी गर्म हो कर भाप में परिवर्तित हो कर सीटी को बजाता था जिससे मालूम हो जाता था कि दूध गर्म हो गया। उस पात्र की एक विशेषता यह भी थी कि चाहे कितनी भी देर गर्म होता रहे दूध बर्तन से बाहर उफनता नहीं था । कितना आसान तरीका था कि दूध को गैस चूल्हे पर रख कर आराम से पडोसिन से गप्पें लडाओ। अब भले पत्नी महीनों तक मायके में बैठी रहे कोई समस्या नहीं। परन्तु परम्पराएं भी तो कोई चीज़ होती है । आधुनिकता की चकाचौंध के वशीभूत हो कर हम अपने रीति रिवाज़ तो नहीं बदल सकते है । हमारी परम्परा है कि जब तक दूध उन फौजियों की तरह जो धीरे धीरे चुपके चुपके चलते चलते अपने दुश्मन पर एकाएक आक्रमण करके मलाई को बाहर तक न खदेड़ दे और उनकी सीमा में प्रवेश कर अपनी सीमा का उल्लंघन न कर जाए तब तक आनन्द कहां ।
यह क्या बात हुई कि किसी बच्चे की तरह जिसने अपनी कुछ शंकाओं का निवारण कर लिया हो एक जगह पडे पड़े चिल्लाए जा रहे हो और किसी पर उसकी इस चीख पुकार का कोई असर नहीं हो रहा।सब उसको अकेला छोड़कर अपने अपने कार्यों मे व्यस्त हैं। यह वीरों की भूमि है यहॉ चाहे रक्त में हो या दूध में उफान आता देख कर वीर रस से ही लोगों मे उत्साह तथा जोश पैदा होता है न कि शान्त रस से । भला ऐसे दूध पीने से क्या फायदा जिसमें उफान ही न आया हो । नहीं चाहिए हमें ऐसा पात्र जो किसी दूध में उफान तक न ला सके । ऐसा दूध किसी नौजवान को क्या तन्दुरूस्त बनाएगा जिसमें खुद ही उफान न आए । अब हम अपनी पत्नी के ताने भी नहीं सहेंगे कि हमें दूध उफान लेना नहीं आता । अब हम सारे काम छोड़ कर तब तक वहीं खडे़ रहेंगे जब तक दूध में उफान न आ जाए ।हम दूध पियेंगे तो उफान लेकर ही पिएंगे । हम अपनी परम्पराएं नहीं छोड़ सकते ।

किस्म किस्म के कवि

हमारे शहर में कवि सम्मेलनों तथा कवि गोष्ठियों की एक स्वस्थ्य परम्परा है। तीस चालीस कवियों के बीच अपनी तीन चार मिनट की रचना को सुनाने के लिए तीन चार घण्टे बैठ कर अपनी बारी की प्रतीक्षा करना तथा दूसरों की अच्छी बुरी रचनाओं को पचाना एक स्वस्थ्य कवि का ही काम हो सकता है। जब कवि स्वस्थ रहेगा तभी स्वस्थ्य परम्परा का निर्वाह हो पाएगा । इन कवि सम्मेलनों के साथ ही साथ अच्छे अच्छे कवियों को हूट करने की भी पुष्ट परम्परा हमारे शहर में वर्षों से चली आ रही है। देश भर में अपनी रचनाओं के माध्यम से मंच पर छा जाने वाले नामी गिरामी कवि जब हमारे शहर में भी अपनी श्रेष्ठ रचनाओं के बलबूते पर जमने का प्रयास करते है तो यहॉ के श्रोता इनको धूल चटाने को बेकरार बैठे रहते हैं। ये आयोजन अक्सर रात में आयोजित होने के कारण ही संभवतः यह कहावत ईजाद हुई होगी कि द्यजहॉ न पहुंचे रवि वहॉ पहुंचे कवि' परन्तु अब तरीका बदल गया है अब भरी दुपहरी में भी जब रवि हर जगह पहुंच रखता हो कवि भी गोष्ठियों और सम्मेलनों में पहुंच जाते हैं।
मुख्यतः कवि अनेक प्रकार के होते है । पहले वे जो बुजुर्ग कवि हैं और गोष्ठियों में इसलिए आते हैं कि यदि वे न गये तो अध्यक्षता कौन करेगा मुख्य अतिथि का क्या होगा। उनके न जाने से किसी भी ऐरे गैरे को बना दिया जाएगा जिससे साहित्य का स्तर गिरेगा और गोष्ठियों की गरिमा का पतन होगा। साहित्य के संरक्षण के लिए उनका यह योगदान अत्यन्त आवश्यक है। एक लाभ यह भी होता है कि दूसरे दिन समाचार पत्रों में भी आयोजन के समाचार में अन्य कवियों के नाम चाहे प्रकाशित हों या न हों इन लोगों के नाम प्रमुखता से प्रकाशित हो जाते हैं कि अध्यक्षता फलां ने की तथा मुख्य अतिथि फलां फलां थे। वैसे भी इस श्रेणी के कवि अपने काम धाम से सेवा निवृत हो चुके होते है इसलिए यह सोचकर भी आ जाते है कि घर में दिन भर बोर होने से अच्छा है कि कवि गोष्ठियों में ही बोर हुआ और किया जाए। ये पढे लिखे विद्वान तथा समझदार होते हैं राजनीति के क्षेत्र की भॉति नहीं जहॉ बुजुर्ग होने से ही काम चल जाता हो। अध्यक्ष या मुख्य अतिथि बनने वालों के सामने यह मजबूरी रहती है कि उनको अध्यक्षीय उद्बोधन तथा अपनी रचना सुनाने का अवसर गोष्ठी के अंत में ही प्रदान किया जाता है जो उनके लिए कष्टदायक होता है किन्तु वे इसका बदला अपने उद्बोधन तथा अपनी नीरस रचनाओं को सुना कर ले लेते हैं। वे अपनी दो तीन रचनाएं सुनाकर सबसे यह भी पूछते है कि यदि आज्ञा हो तो एक रचना और सुना दूं और सब लोग न चाहते हुए भी आज्ञा दे देते हैं। इन की रचनाओं में दोहे, कुण्डलियां, छन्द, गीत, छप्पय तथा सवैया प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं।
दूसरी श्रेणी के कवि कुछ अधेड़ आयु के होते है। वे प्रारम्भ से ही यह मान कर चलते हैं कि ज़माना बहुत खराब है तथा देश की हालत बहुत पतली है। वे शिवाजी, महाराणा प्रताप, महात्मा गांधी, लक्ष्मी बाई, तथा अन्य महापुरूषों को अपनी रचनाओं के माध्यम से मजबूर करते रहते हैं कि उन्हें इस भारत भूमि पर फिर से जन्म लेना ही पडेगा। वे हमेशा इस बात का रोना रोते रहते हैं कि आजकल कवि सम्मेलनों का स्तर बहुत गिर गया है तथा मंच पर सिर्फ चुटकुलेबाज़ी तथा फूहड़ हास्य रचनाओं का ही बोलबाला हैं किन्तु ऐसे कवि सम्मेलनों के आयोजनों में आमंत्रण मिलने पर कवियों की सबसे पहली पंक्ति में बैठे दिखाई पड़ते हैं।
प्रत्येक कवि सम्मेलनों के प्रारम्भ में मां सरस्वती के चित्र पर माल्यार्पण तथा दीप प्रज्वलन के साथ ही साथ सरस्वती वन्दना सुनाने की भी परम्परा है। ऐसे कवि अपनी रचनाओं के साथ एक सरस्वती वन्दना भी रखते है क्योंकि सरस्वती वन्दना सुनाने वाले को अपनी रचना पढ़ने का दुबारा मौका भी मिलता है अर्थात्‌ अन्य कवियों के अलावा दुगने अवसर प्राप्त होते है । सरस्वती वन्दना को लोग रचना की श्रेणी में नहीं मानते तथा सब के मन में यह धारणा रहती है कि यह तो कोई भी लिख कर सुना सकता है। इन्हें अतुकान्त रचनाओं से परहेज होता है।
तीसरी श्रेणी के कवि कुछ जवान किस्म के होते है तथा जवान दिखने का प्रयास भी करते है। इस तरह के कवि कब कहॉ, क्या कह जायें इसका कोई भरोसा नहीं। मुख्यतः इनकी रचनाओं में ऐसे विषय शामिल होते जिनसे देशभक्ति का रस टपकता हो जिसे वे अपने अभिनय तथा बुलन्द आवाज़ से श्रोताओं के कानों में पिघले हुए शीशे की तरह डालने की कोशिश करते हैं । बहुत से श्रोता इनकी रचनाओं की अपेक्षा इनके अभिनय से प्रभावित हो जाते हैं। जिन रचनाओं में पाकिस्तान, मुसर्रफ, अमेरिका का उल्लेख न हो तो ये लोग उसे कविता की श्रेणी में नहीं गिनते। आज जब हर कोई आतंकवाद तथा सीमा पर दुश्मनों की हरकतों से परेशान दिखाई देता है तथा उसका हल निकालने में लगा है इस श्रेणी के कवि इन समस्याओं को चलते रहने के पक्ष में रहते हैं क्योंकि उनकी रचनाएं इन्ही समस्याओं पर आश्रित रहतीं हैं। इन समस्यों का हल यदि निकल गया तो फिर बहुत से कवि बेकार हो जाएंगे उनका काम तो इन समस्याओं के बने रहने से ही चल पाता है। कभी कभी ये शृंगार रस में भी डूब जाते हैं।
चौथी श्रेणी के कवि अतुकान्त रचनायें लिखने के बहुत शौकीन होते है क्योंकि काफिया या तुकबन्दी मिलाने की या मात्राएं गिनने की झंझट कौन मोल ले और यदि उनको सुनाने के बाद श्रोताओं की प्रशंसा मिले तब तो रचना अच्छी ही समझी जाएगी किन्तु प्रशंसा न भी मिले तो मान लिया जाता हैं कि रचना उच्च स्तर की है जिसे हर कोई समझ नहीं सकता अर्थात दोनों हाथों में लडडू होते हैं। वैसे ऐसी अधिकांश रचनाओं को लिखने वाला ही समझ पाता है पर कुछ लोग न समझते हुए भी समझ जाने की समझदारी दिखाते हैं। पत्र पत्रिकाऐं जिन्हें कोई नहीं पढता में ऐसे कवियों की रचनाऐं खूब प्रकाशित होती रहतीं हैं किन्तु कवि सम्मेलनों में इनकी मांग बहुत कम होती है़।
पॉचवीं श्रेणी के कवि बालकवि होते है । उनके द्वारा पढी जाने वाली रचनाएं उनके पिता या चाचा द्वारा लिखी जातीं है क्योंकि इनकी रचनाओं के जो विषय होते है वे अधिकतर क्षेत्रीय भाषा में पति पत्नी की तक़रार या घरवाली पर केन्द्रित होते हैं जिसका तजुर्बा उनको आगे चल कर होगा । ऐसे बाल कवियों के पिताश्री जो स्वयं अपने आप को कवि समझते हैं कवि सम्मेलनों में बार बार हूट होने के कारण ही अपनी कविता को अपने बच्चों के मुख से लोगों को सुना कर उनसे प्रशंसा पाकर आत्म संतुष्टि प्राप्त कर लेते हैं। इस बात से सभी परिचित रहते हैं कि बाल कवियों द्वारा सुनाई जाने वाली रचना उसके द्वारा लिखी ही नहीं जा सकती फिर भी अन्य कवि उसकी रचना पर इस तरह वाह वाह करते है जैसे उसी ने लिखी हो। इन बाल कवियों हेतु उनके माता पिता अच्छी डिजायन का कुरता पजामा भी सिलवा देते हैं क्योंकि कवियों की रचनाएं भले ही दमदार न हों उनका कुर्ता पजामा दमदार होना चाहिए।
छंटवीं श्रेणी में कवित्रियां आती हैं । इनकी रचनाओं में ससुराल पक्ष के सदस्यों का वर्णन प्रचुर मा्रत्रा में पाया जाता है। बलमा, सजना, सासु, ननद, भौजाई, मां, बहनों तथा गहनों के उल्लेख के अलावा इनकी अपने पति से हमेशा शिकायत रहती है कि वे उसे मेले में नहीं ले जाते । किसी अन्य विषय पर इनके द्वारा रचना पाठ करने पर सब उन्हें शक की निगाह से देखते हैं कि यह रचना किसी और कवि ने उनको लिखकर दी है जिसे वे अपने नाम से सुना रहीं हैं। मंच पर इनकी उपस्थिति एक रोमांच पैदा करती है तथा सम्मेलन या गोष्ठियों के संचालकों को उनसे चुहलबाजी करने का मौका मिल जाता है।
इस तरह हमारे शहर में विभिन्न श्रेणियों के हजारों कवि और कवियत्रियां हैं । सभी कवि स्वयं को बहुत उच्च स्तर का तथा दूसरे कवियों को निम्न स्तर का समझते हैं इसलिए मौका पाते ही दूसरों की बुराई करने से भी नहीं चूकते हैं। विभिन्न मेलों के समय का मौसम इनकी संख्या में वृद्धि के लिए अत्यन्त अनुकूल होता है। उस समय तो यदि आप ऑंख बन्द करके किसी भी दिशा में कोई पत्थर उछालें तो वह जिसको भी लगेगा वह कोई कवि ही होगा।

गुस्से में है भैंस

भैंस बहुत गुस्से में है। उसका गुस्सा अपनी जगह ठीक भी है़। उसकी नाराजगी गाय को मॉं का दर्जा प्रदान किए जाने के कारण है। गाय को हम माता के समान मानते हैं यही बात प्रत्येक मां अपने बच्चों को भी बतलाती है । इसके पीछे संभवतः यही तर्क है कि जिस प्रकार अपनी मां के दूध को पीकर हर बच्चा ह्ष्ट पुष्ट तथा बड़ा होता है गाय का दूध भी यही कार्य करता है। दूध का रंग सफेद होता है तथा उसकी यह विशेषता होती है कि यदि उसमें पानी मिला दिया जाए तो वह भी दूध बन जाता है। कुछ फिल्म वाले भी अपने गीतों में दूध वितरकों को पानी के रंग के बारे में भी यही सलाह देते रहते हैं कि उसे जिस में मिला दो लगे उस जैसा।
गाय के दूध की विशेषता यह भी है कि उससे दही, पनीर, घी, छाछ, रबडी इत्यादि अनेक चीजों का निर्माण होता है साथ ही गौमूत्र को भी अनेक रोगों की चिकित्सा में लाभकारी बताया गया है जिसके उपयोग की सलाह सब दूसरों को तो देते रहते है पर स्वयं उपयोग नहीं करते है पर भैंस नाराज़ है उसका कहना है कि उसके दूध से भी वही सब बनता है जो गाय के दूध से बनता है फिर क्या बात है कि गाय को तो मां का सम्मान प्राप्त है और उसे कुछ भी नहीं ।
भैंस का कहना है कि अनेक घरों में आज भी खाना बनाते समय सबसे पहले सिर्फ गाय के लिए ही एक रोटी बनाने की परंपरा है जिसे वे लोग अपने घर में बची खुची जूठन तथा फलों और सब्जियों के छिलकों के साथ उसे परोस देते है पर भैंस के लिए कोई कुछ नहीं बनाता। इसी प्रकार धार्मिक कार्यों में भी सबसे पहले गऊ ग्रास को ही महत्व दिया जाता हैं भैंस ग्रास नाम की कोई भी चीज़ नहीं बनाई है। कुछ लोग गाय को एक दो रूपयों का चारा डाल कर अपना परलोक सुधारने में भी लगे रहते हैं इसलिए उनको पुण्य का भागीदार बनाने के लिए बहुत सी चारे वालियां सड़क के किनारे डेरा जमाए रहतीं हैं यह बात और है कि यदि कोई गाय माता उनके चारे के ढ़ेर में गलती से मुंह मार कर चारे वालियों को भी पुण्य कमाने का अवसर प्रदान कराना चाहे तो उसे स्वयं पाप का भागीदार बनना पड़ता है जिसकी परिणिति दो चार डण्डे खाने के बाद ही होती है पर भैंस को कोई चारा नहीं डालता इसलिए उसके पास गुस्सा करने के अलावा और कोई चारा भी नहीं है ।
शास्त्रों के अनुसार गाय की पूंछ पकड़ कर ही वैतरणी पार की जाती है तथा बैकुण्ठ प्राप्त होता है किन्तु सड़कों के किनारे पुण्य कमाने की दुकानों के कारण अनेक लोग भी सड़क पर ही साष्टांग प्रणाम करते हुए बैकुण्ठ पहुंच जाते है । संभवतः गाय को इसीलिए मां का दर्जा दिया गया है।
भैंस इस बात पर भी गुस्से का इज़हार करती है कि उसका उपयोग हिन्दी कहावतों तथा मुहावरों में करके उसे बदनाम करने की साजिश रची गई है जैसे “भैंस के आगे बीन बजाना' में उसे ऐसा माना गया है जैसे बह बहरी हो तथा संगीत से नफरत करती हो जबकि यदा कदा वह भी अपने मुख से अनेक कठिन ताने निकालती रहती है। यदि बीन बजानी ही हो तो सांप के आगे बजाओ भैंस के आगे बजाने की क्या आवश्यकता है। “काला अक्षर भैंस बराबर' में उसे अनपढ़ तथा मूर्ख समझा गया है जबकि सभी ग्रन्थ पुस्तकें समाचार पत्र काले अक्षरों में ही प्रकाशित होते है क्या वे सभी उसके बराबर हैं। इसी तरह “अक्ल बड़ी या भैंस' में अक्ल को सब उससे बड़ा समझते है । जरा सोचिए कि अक्ल भैंस से बड़ी कैसे हो सकती है । क्या अक्ल जो छोटे से दिमाग में रहती है के अन्दर भैंस समा सकती है परन्तु भैंस के अन्दर थोड़ी बहुत तो अक्ल होती ही है । इसी तरह “गई भैंस पानी में' यदि पानी में चली गई तो क्या जुल्म हो गया पानी में जाकर जब वह बाहर आएगी तो साफ सुथरी ही तो रहेगी गन्दी तो नहीं। 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' में उसे ताकतवर का पक्षधर तथा लड़ाई झगड़ों की जड़ समझा गया है और तो और स्कूलों में निबंध भी गाय पर लिखने के लिए दिए जाते है भैंस पर कोई लिखने के लिए नहीं कहता।
फिल्म निर्माताओं ने भी उसकी उपेक्षा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। उन्होने भी गाय , हाथी , कुत्ते , बैलों , शेर , बन्दर , आदि जानवरों पर महत्वपूर्ण फिल्में बनाईं हैं पर उस पर ध्यान नहीं दिया गया । एक फिल्मी गीत में एक बात अवश्य उस के पक्ष में फिल्म के हीरो ने उठाई है कि उसकी भैंस को डण्डा क्यूं मारा जबकि उसका कुसूर सिर्फ इतना ही था कि वह खेत में चारा चर रही थी किसी के बाप का कुछ नहीं कर रही थी जबकि बहुत से लोग तो पूरे का पूरा खेत ही चर जाते हैं । उसे शिकायत है कि उसके प्रति रंगभेद नीति अपनाई जा रही है जो सरासर गलत है । जगह जगह गौ रक्षा समितियों का गठन हुआ है तथा समय समय पर गौ रक्षा आन्दोलन भी चलाए जाते रहे हैं परन्तु भैंस रक्षा समितियां या भैंस रक्षा आन्दोलन कहीं भी किसी ने भी नहीं चलाया ।
किसी सुन्दर तथा सुशील महिला के लिए भी उसकी प्रशंसा करने के लिए भी उसकी तुलना गाय से ही की जाती है जैसे द्यवह तो पूरी गऊ है' किन्तु किसी के दुर्गुणों या अपमान करने के लिए बस इतना ही कहना काफी होता है कि “वह तो पूरी भैंस है'।
उसे इस बात पर भी एतराज है कि देवताओं ने भी उसके साथ पक्षपात किया है। अधिकांश देवताओं ने दूसरे जानवरों को अपना वाहन बनाया है जिनमें गाय, बैल, गरूड़, तथा मोर और यहाँ तक कि चूहा और उल्लू तक शामिल हैं किन्तु भैंस के वंशजों को मृत्यु के देवता यमराज को सौंप दिया है।
अपनी मांग को मनवाने के लिए वह आज के चलन के अनुसार अपने परिवार के सदस्यों के साथ यदा कदा सड़कों के बीच में बैठकर तथा चक्का जाम करने का हथकण्डा भी अपनाती रहती है परन्तु प्रशासन उसे वहां से खदेड़ देता हैं । उसकी मांग है कि यदि उसे मां के समान न समझा जाए तो कम से कम यह तो कहा जाए कि गाय हमारी माता है और भैंस हमारी मौसी है।

होता जो हनीमून नेपाल में..

हनीमून से मेरा परिचय उस समय ही हो गया था जब मेरी उम्र लगभग तीन या चार वर्ष की रही होगी. बात यूं हुई कि मेरे चाचा जी की शादी हुई थी और वे हनीमून के लिये कश्मीर जा रहे थे. उन दिनों कश्मीर हनीमून मनाने तथा फिल्मों की शूटिंग के काम आता था, आजकल आतंकवादियों की शूटिंग के काम आता है. हाँऽ तो मैं कह रहा था कि चाचा जी को कश्मीर जाते देख मैं भी जद पर अड़ गया कि मैं भी हनीमून पर जाऊंगा. मेरी मां ने मुझे समझाया कि बेटा ! अच्छे बच्चे हनीमून पर नहीं जाया करते. तब मेरे पिताजी मुझे बहलाने के लिए हनुमान जी के मन्दिर ले गये, हनुमान जी को भी हनीमून से परहेज था यह बात और थी कि उनके परम भक्त तथा उस मन्दिर के पुजारी और उनके बीच इस मामले में गहरे मतभेद थे और यह सब उन महिला भक्तिनों के कारण था जो उस मन्दिर में हनुमान जी के दर्शन करने आती थीं. जितनी देर वे हनुमान जी के दर्शन करतीं पुजारी जी उनके दर्शन कर लिया करते थे.
मैं कल्पना कर रहा हूं कि मैं भी हनीमून मनाने के लिए कश्मीर गया हूं. वहाँ आतंकवादियों ने मेरा अपहरण कर लिया है. आतंकवादी मुझे यातना दे रहे है . साला हिन्दोस्तानी , हमारे कश्मीर को हनीमून का अड्डा समझ रखा है ‘ जो देखो चला आ रहा है यहाँ हनीमून मनाने. तुम सब इसे नापाक बनाने पर तुले हो और हम इसे पाक बनाना चाहते हैं . लो हो गया हनीमून. कश्मीर में आतंकवाद का शायद एक कारण यह भी हो सकता है कि सब वहाँ हनीमून मनाने पहुंच जाते थे.
मैं सोचता हूं यदि मेरा हनीमून नेपाल में होता तो कैसा होता. जब लोग भारत तथा नेपाल में दो दो जगहों पर मना सकते हैं तो मैं क्यूं नहीं. सुना है नेपाल एक हिन्दू राष्ट्र है, चलो इससे कम से कम उन लोगों को तो जो भारत को भी हिन्दू राष्ट्र बनाने का सपना देख रहे हैं यह जान कर संतोष होगा कि अपने देश का एक नवयुवक पाश्चात्य देशों का मोह त्याग कर एक हिन्दू राष्ट्र में अपना हनीमून मना रहा है. एक सच्चे हिन्दू की यही पहचान है कि वह महत्वपूर्ण काम के क्षणों में भी अपने हिन्दुत्व को न भूले.
आप सब सोच रहे होंगे कि जिस प्रकार किसी घटना के घटते ही कुछ कवि अथवा लेखक उस पर कविता या लेख लिखने बैठ जाते है यह शख्स अभी तक उस भारतीय विमान अपहरण काण्ड पर क्यूं नहीं आ रहा है जिसे अपहरण करके नेपाल से कांधार ले जाया गया था. साथियों ! मामला वाकई बहुत गम्भीर था आखिर सवाल नेपाल से हनीमून मना कर वापस लौट रहे अपने देश के बेटे बहुओं की सुरक्षा का था जो विदेश की भूमि पर बंधक थे. हमारी उस समय सरकार भी बहुत चिंतित थी. सरकार अक्सर बहुओं के मामले में चिंतित हो जाया करती थी चाहे फिर वो विदेश की भूमि पर स्वदेशी बहू हो या स्वदेश की भूमि पर विदेशी बहू. चलिये अच्छा हुआ मामला रफा दफा हो गया . आतंकवादियों ने ३ के बदले १५६ को छोड़ दिया था हमारी सरकार ने तो २७६ सदस्यों के लिए ३७० को छोड़ दिया था.
वैसे हम जैसे मध्यमवर्गीय परिवार के लोग तो हवाई यात्रा से कहीं भी हनीमून पर जाने की सोच भी नहीं सकते आखिर सबकी बेटियों के बाप इतने सक्षम भी नहीं होते कि विवाह में दहेज के साथ वे हवाई जहाज का टिकट भी दे सकें. देखा जाए तो विमान अपहरण तथा विवाह में कोई विशेष अंतर नहीं है फर्क बस इतना है कि एक में नियंत्रण में लेने के बाद मांग की जाती है और दूसरे में मांग पूरी हो जाने के बाद नियंत्रण में लेते हैं.
मेरे एक मित्र ने सलाह दी कि तुम नेपाल रेल या कार से चले जाओ परन्तु उसमें भी एक समस्या थी कि रास्ते में कुछ भी हो सकता है. मेरे एक अन्य बुद्धिजीवी मित्र बोले कि तुम्हें हनीमून के लिए नेपाल जाने की क्या आवश्यकता है . समाज के कुछ ठेकेदारों ने तो अपने देश में ही हर जगह ऐसी व्यवस्था कर रखी है जहाँ कन्यायें आपको हनीमून के लिए आमंत्रण देतीं रहती हैं यहाँ तो हर शहर गॉव बस्ती में नेपाल बसा है . जब जी चाहे, जहाँ जी चाहे, मना लो हनीमून .

जीवन दो दिन का

कुछ दिनों से लोग मुझे कुछ सिरफिरा समझने लगे है। सबको शिकायत है कि शहर में एक नामी संत के प्रवचन का आयोजन चल रहा है और मैं अपने घर पर ही पड़ा रहता हूँ। अधर्मी व्यक्तियों के लिए जितने भी विशेषण हो सकते है उन सभी से वे मुझे सम्मानित कर चुके है। एक दिन मैंने भी तय कर ही लिया कि जब पूरे शहर के कुछ पुरुष एवं बहुत-सी महिलाएँ वहाँ जाते हैं तो मैं भी अपनी जन्मपत्री में ठोकर मार ही दूँ। जितना बड़ा पंडाल एवं धन उस प्रवचन के आयोजन के लिए लगाया गया था उसके अन्दर तो सैंकड़ों गरीब एवं मध्यमवर्गी जोड़ों के सामूहिक विवाह का आयोजन सम्पन्न हो सकता था। संत जी जन समुदाय को जो बातें बता रहे थे सभी लोग उन बातों को अनेक बार सुन चुके थे तथा सब कुछ जानते हुए भी इस तरह सुनने में व्यस्त थे जैसे पहली बार ही सुन रहे हो। उन्होंने एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण रहस्योद्घाटन किया कि ये जीवन दो दिन का है। मैंने अपने पास में बैठे एक सज्जन से पूछा, ''भाई साहब क्या जीवन वास्तव में दो दिन का ही है?''वे बोले, ''हाँ जब ये कह रहे हैं तो दो दिन का ही होगा।''मैंने पूछा, ''इनका ये कार्यक्रम कितने दिन और चलेगा?''वे बोले, ''सात दिन।'' ''पर जीवन तो दो ही दिन का है, बाकी पाँच दिन का क्या होगा?''वे बोले, ''दो दिन का मतलब दो दिन नहीं होता ज़्यादा होता है।''मैंने पूछा, ''कितना होता है?'' वे बोले, ''इसका किसी को पता नहीं वो तो कहने के लिए दो दिन का होता है मानने के लिए नहीं।''''जब इनकी बाते सिर्फ़ कहने के लिए ही हैं मानने के लिए नहीं तो फिर सुनने से क्या लाभ?''''हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश तो ज़िन्दगी में लगा ही रहता है। यहाँ तो सब सुनने के लिए ही आते हैं यदि उन बातों पर अमल करेंगे फिर तो सभी संत नहीं हो जाएँगे।''मुझे उनकी बातें संत की बातों से अधिक प्रभावशाली लग रहीं थीं।मैंने उनका पीछा नहीं छोड़ा, ''पर एक और दूसरे संत हैं वो तो कहते हैं कि दो दिन का तो जग में मेला होता है और चार दिन की जवानी होती है।''''वो ग़लत कह रहे हैं। कहने वाले तो जीवन और मेले को भी चार दिनों का भी कह सकते हैं और दस दिन का भी। खुद हमारे शहर में मेला पन्द्रह दिन का होता है। कई लोग तो चाँदनी भी चार दिन की बताते हैं पर होती कहाँ है। अभी इस संत का प्रवचन चल रहा है तो जीवन दो दिन का ही मानना पड़ेगा दूसरे संत का चलेगा तो वे जितने दिन का कहेंगे उतने दिन का मान लेंगे।''''दूसरे संत दो दिन का मेला क्यों बताते हैं?'' मैंने फिर पूछा।''ये दूसरे संत जो दो दिन का मेला बता रहे हैं क्या इन संत से बड़े हैं।'' ''अब संत तो संत ही होता है उसमें क्या बड़ा और क्या छोटा।'' ''वाह ऐसे कैसे बड़ा छोटा नहीं होता है। क्या उनके लंबी-लंबी दाढ़ी है? क्या वे सिर्फ़ धोती ही पहनते हैं और नंगे बदन रहते हैं? क्या बहुत-सी साध्वियाँ उनके साथ-साथ चलती है? क्या वे हवाई जहाज़ से यात्रा करते हैं? क्या उनके फ़ोटो महलों से शौचालयों तक लगे रहते हैं? क्या बड़े-बड़े नेता भी उनसे आशीर्वाद लेने आते हैं? क्या उनके बड़े-बड़े आश्रम हैं? यदि ये सब विशेषताएँ उनमे हैं तभी वे बडे संत कहलाएँगे।''''नहीं वे दूसरे संत तो साधारण कपड़े ही पहनते है लेकिन है बहुत ज्ञानी।''''काहे के ज्ञानी। संत होने के लिए तो गैटअप भी तो संत जैसा होना चाहिए नहीं तो कौन उनको संत मानेगा। खाली ज्ञान या विद्वान होने से ही कोई संत थोड़े ही हो जाएगा।''''लेकिन हम ग़लत बात क्यों मानें कि जीवन दो दिन का है?''''नहीं मानोगे तो उनके भक्त तुम्हारे घर में तोड़-फोड़ कर देंगे और यदि उनको ज़्यादा गुस्सा आ गया तो तुम्हारी हत्या भी कर सकते है। संतों की बातों का अनुसरण उनके अनुयायियों के लिए करना आवश्यक नहीं है फिर तुम्हें पता चल जाएगा कि तुम्हारा जीवन भी दो ही दिनों का था। उनके सामने बड़े-बड़े सूरमा भी कुछ नहीं कर सकते। मैं ही कौन-सा उनकी बात मान रहा हूँ। मेरा तो जीवन हर माह की पहली तारीख को शुरू होता है तथा छह सात दिन चलता है उसके बाद तो मरण ही मरण है। कई लोगों का पन्द्रह दिन का हो जाता है। राज नेताओं का चुनाव नतीजे आने के बाद शुरू होता है तथा उनका जीवन जीवनभर या कई-कई पीढ़ियों तक चलता है।
मैंने एक दूसरे सज्जन से जो उन संत का प्रवचन कम और इधर उधर अधिक देख रहे थे से भी पूछ ही लिया कि क्या उनका जीवन भी दो दिन का ही है।वे बोले, ''मेरा जीवन तो इन जैसे संत महात्माओं के प्रवचन के इन कार्यक्रमों के चलते रहने से ही चलता है इस आयोजन में टेन्ट तथा दरी गद्दों का ठेका मेरे ही पास है अब चाहे वो दो दिन का बताएँ या दस दिन का। जीवन जितने अधिक दिनों का बताएँगे मेरे लिए तो उतना ही अच्छा है। तुम्हें यदि दो दिन का कम लगता है तो तुम चार दिन का मान लो। तुमने क्या सुना नहीं कि 'उम्रे दराज माँग के लाए थे चार दिन दो आरजू में कट गए दो इंतज़ार में'। इससे तो यही जाहिर होता है कि जीवन दो दिन का हो न हो चार दिन का तो होता ही होगा। बहादुर शाह ज़फ़र की आत्मा उनके शरीर में प्रवेश करके बाहर निकल गई थी।''परन्तु कुछ मापदंड तो हो कि जीवन दो या चार दिन का किस हिसाब से है।''वे बोले, ''मान लीजिए मनुष्य की आयु १०० वर्ष है तो फारमूला यह है कि मनुष्य की आयु को दो से या चार से भाग दीजिए फिर जो भागफल आए उतने वर्ष को एक दिन के बराबर मान लेना चाहिए। वैसे यहाँ प्रवचन सुनने कुछ ऐसे भी है लोग आए हुए है जिनको अपना जीवन पारिवारिक कलह, ज़मीन जायदाद के झगड़ों, शारीरिक कष्ट, संतान के भविष्य की चिन्ता, बेटे बहुओं के दुराचरण तथा अनेक कठिनाइयों से एक दिन का भी भारी लग रहा है। संत के प्रवचन में जीवन को दो दिन का सुन कर कम से कम वे कुछ समय के लिए संभवत: यह सोचकर खुश तो हो लेते होगे कि चलो अब वो दो दिन करीब ही होंगे जब उनके कष्टों का अन्त होने वाला होगा।
मैं यह सोच कर घर वापस आ गया कि जब जीवन के बारे में ही अलग-अलग मत हैं तो अपना जीवन किसी अच्छे काम में ही क्यों न लगाऊँ क्यों कि मेरे हिसाब से तो जीवन का कोई भरोसा नही कि वह कितने दिन का हो।