रविवार, 26 अप्रैल 2009

तीन व्यंग लघु कहानियाँ

मापदण्ड

बहुत दिनों तक अपने बिल में बैठे बैठे जब सांप उकता गया तो एक दिन सैर सपाटे के लिए सड़क पर घूमने निकल गया । सड़क पर जैसे ही लोगों ने सांप को घूमते देखा वे लाठी और पत्थर लेकर उसे मारने दौड़ पडे़ । बड़ी मुश्किल से वह अपनी जान बचाकर वापस बिल में घुस पाया ।

’ बाहर की दुनिया के लोग तो मुझ से बड़ी घृणा करते हैं वे तो मेरी सूरत तक देखना पसंद नहीं करते परन्तु क्या कारण हैं जब मैं भगवान शंकर के गले या उनके शरीर पर ब्बैठा रहता हूँ तो वे ही लोग मेरी पूजा करते हैं ? सांप ने अपनी सांपिन से पूछा ।

"अरे यही तो बात है । आज की दुनिया में किसी से घृणा या उसकी पूजा करने का मापदण्ड यह नहीं है कि वह अच्छा है या बुरा वरन यह है कि वह सड़क पर है या किसी ऊँची जगह बैठा है" । सांपिन ने सांप को समझाया ।

सफाई

एक लम्बे अर्से के बाद जब मंत्री जी की कार तथा पीछे पीछे धूल उड़ातीं कुछ जीपों के कफ़िले ने जैसे ही एक गाँव में प्रवेश किया गाँव के बच्चे मंत्री जी की कार को घेर कर खड़े हो गए । एक मनचले बालक ने जब कार के शीशे पर जमीं हुई धूल देखी तो वह अपनी अंगुली से उस पर कुछ लिखने लगा । एकाएक एक सुरक्षाकर्मी की नज़र उस बालक पर पड़ी । सुरक्षाकर्मी ने उस को दो चार चाँटे जड़ दिए । "मंत्री जी की कार को गंदा कर रहा है - साफ कर इसे । बालक ड़ाट खाकर सहम गया ।

अगले ही पल वह अपनी बनियान से कार के शीशे को जिसे उसने थोड़ी देर पहले कुछ लिखकर गंदा कर दिया था साफ करने लगा । कार के शीशॆ फिर चमकने लगे । उसने शीशॆ पर लिख दिया था " भारत माता की जय" ।

व्यवस्था

उस सड़क पर हमेशा भारी आवागमन बना रहता था । परिणामस्वरूप आए दिन दुर्घटनाएं होतीं रहतीं थीं । जब भी कोई दुर्घटना होती, लोग प्रशासन को गालियां देना शुरू कर देते । ऐसे जुमले अक्सर सुनने को मिल जाते थे " ऊपर सारे गधे बैठा रखे हैं कोई कुछ ध्यान ही नहीं देता है" ।

एक दिन सड़क के बीचों बीच एक गधा ट्रक की चपेट में आकर मर गया । थोडी देर तक तो सड़क पर भीड़ जमा हुई फिर एकाएक ट्रेफिक व्यवस्था अपने आप सुचारू रूप से व्यवस्थित हो गई । गधे की लाश के एक ओर से वाहन आ रहे थे तथा दूसरी ओर से जा रहे थे । जो व्यवस्था कुछ जीवित गधे ठीक न कर सके उसे मृत गधे ने ठीक कर दिया था ।

गुरुवार, 16 अप्रैल 2009

एक बार आजा आजा आजा ..

हे जनप्रतिनिधि !
जब से तुम चुनाव जीत कर गए हो,शहर के लोग तुम्हारी प्रतीक्षा में पलकें बिछाए बैठे हैं । सब लोग रह रह कर सड़क के दोनों ओर दूर दूर तक इस तरह निगाह डालते रहते हैं जिस तरह रेलगाडी की प्रतीक्षा में यात्री यह जानते हुए भी कि रेल दांयी तरफ़ से आ रही है वांयी तरफ़ भी देखते रहते हैं । सभी व्याकुल हैं कि ’कब गरद उठे अम्बर में और कब उन्हें आते दिखें घनश्याम’। कब एम्बेस्डर कारों का काफ़िला ’पैट्रोल बचाओ अभियान’ की धज्जियां उडाता हुआ उनके मुहल्ले में प्रवेश करे । कब बगुले के समान सफ़ेद झक्क वस्त्रों में आपके दीदार हों । कब गली के लावारिस बच्चे आपके काफ़िले की कारों के शीशे पर जमीं हुई धूल पर अपनी अंगुली से मॊडर्न आर्ट बना सकें । इसलिए एक बार आजा आजा ।

हे कथित जन सेवक !

तुम्हारी प्रतीक्षा में नगर की टूटी हुई सड़कों से धूल उड़ उड़ कर तुम्हारे मुख मण्ड्ल पर अबीर गुलाल की भांति लिपटने को व्याकुल हो रही है । सड़कों के किनारे लगे हुए हैण्ड पम्पों के आँसू तुम्हारी याद में रो रो कर सूख चुके हैं । सार्वजनिक नल दिन रात बहते हुए तुम्हारे आने की राह को पखारने में लगे हुए हैं । लेम्प पोस्ट पर लगीं बिजली की बत्तियां तुम्हारे विरह में दिन भर जलतीं रहतीं हैं तथा रात भर बुझी बुझी रहतीं हैं । इसलिए एक बार आजा आजा ।

हे लीप इयर की फ़रवरी माह की २९ तारीख जैसी प्रकृति वाले पुरुष !

पॊलीथीन की थैलियां नालियों में से अपना सिर बाहर निकाल निकाल कर तुम्हें निहारने के लिए दिन रात टकटकी बाधें पडी़ रहतीं हैं । कचरे के ढेर भी तुम्हारे स्वागत में जगह जगह किसी दल के कार्यकर्ताओं की तरह इकट्ठे हो रहे हैं । तुम्हारी एक झलक पाने के लिए आवारा पशु मुख्य सड़कों पर तुम्हारी राहों में पलक पांवडे बिछाए हुए तथा आने जाने वालों की परवाह न करते हुए विचरण करते रहते हैं । इसलिए एक बार आजा आजा ।

हे विपक्षी दलों की आँखों के काँटे !

ये माना कि चुनाव अभी दूर है और तुम्हारा अभी आना परम्परा के विपरीत होगा लेकिन एक नई परम्परा के निर्वाह के लिए तथा दूसरों के सामने एक उदाहरण बनने के लिए ही एक बार आजा अन्यथा कहीं ऐसा न तू जब आए तो इतनी देर हो जाए कि फिर लोगों के क्रोध के कारण तू कभी भी वापस आने के लायक ही न रहे । इसलिए एक बार आजा, आजा, आजा ।

बुधवार, 15 अप्रैल 2009

साडी़ का ब्लाउज़


मेरे मित्र शर्मा जी आराम से घर के बाहर बैठ कर अखबार पढ रहे थे । मैनें उनसे पूछा कि क्या आज दफ्तर नहीं जाना है ? वे बोले नहीं , आज छुटटी ली है.
ऐसा क्या काम आ गया, सब खैरियत तो है न ?
वो मेरी पत्नी ने साड़ी खरीदी है.
साड़ी खरीदी है या गाड़ी ? साड़ी खरीदने में ऐसी कौन सी महत्वपूर्ण घटना घट गई जिसका जश्न मनाने के लिए छुटटी ली जाए . क्या पहली बार ही खरीदी है ?
नही नहीं ! छुटटी साड़ी खरीदने की खुशी में नही ली है वरन आज उसका मैचिंग ब्लाउज पीस खरीदने जाना है।
तो उसके लिए छुटटी ? मैंने फिर शंका जाहिर की .
हॉ ब्लाउज पीस खरीदने जाएंगे तो समय तो लगेगा ही . तुम्हारी भाभी भी रात के खाने के लिए कुछ पराठें बना रही है आते आते रात तो हो ही जाएगी.
ब्लाउज का कपड़ा खरीदने में इतना समय लगता है क्या ? मैंने फिर शंका प्रकट की. बच्चू जब तुम्हारी शादी हो जाएगी तब तुम्हें मालूम होगा कि कितना बडा आयोजन होता है. मैंने उनसे कहा भाई साब मैं भी आपके साथ चलूं आगे चलकर मेरे भी काम आएगा. उन्होंने आज्ञा दे दी चलो .
ऐसा माना जाता है कि भारतीय महिलाओं की पारम्परिक वेशभूषा साड़ी है . जो काम महज दो गज कपड़े में सम्पन्न हो सकता था इसके लिए साढे पॉच गज कपड़ा बरबाद करने की तुक में मुझे साड़ी के आबिष्कारक का पागलपन ही नजर आता है. लेकिन अब समय बदल गया है आज की नारी को उस दकियानूसी वेशभूषा का अनुसरण करने में हीन भावना पैदा होने लग गई है. वे वस्त्रभार के इस अतिरिक्त बोझ से छुटकारा पाना चाहतीं है नतीजा यह हुआ कि बहुत सी मल्लिकाओं तथा शिल्पाओं ने वस्त्र की इस बरबादी के खिलाफ मुहिम छेड़ दी और साड़ी का त्याग कर दिया. जब साड़ी ही न रही तो अकेला ब्लाउज कौन पहनना पसंद करेगा नतीजा यह हुआ कि ब्लाउज अपने आप ही लुप्त होने की दिशा में निरन्तर अग्रसर होने लग गया. इसका एक फायदा यह हुआ कि कई लोगों को जो संशय बना रहता था कि ‘नारी बीच सारी है कि सारी बीच नारी है’ वह समाप्त हो जायगा और लोग समझ जाएंगे कि न तो नारी बीच सारी है और न ही सारी बीच नारी है बल्कि नारी अलग है और सारी अलग है.
यह भी सबकी धारणा है कि अविवाहित लड़कियॉ बैसे भले ही जीन्स, स्कर्ट, सलवार, कुर्ता, टी शर्ट कुछ भी पहन लें किन्तु उनकी शादी होते ही साड़ी पहनना आवश्यक हो जाएगा नहीं तो सब क्या सोचेंगे . जैसे उनकी शादी किसी लड़के से न होकर साड़ी से हो रही हो . अधिकांश युवतियॉ जो शादी करके साड़ी नहीं पहनतीं है उनके बारे में लोग पता नही क्या क्या सोचते होंगे., किसी भी लड़की की शादी का आयोजन हुआ नहीं कि सब लोग उसे भेंट में साड़ी देना शुरू कर देते है. उसी तरह लड़की की सास, ननद, बुआ, जेठानी, देवरानी और जितने भी महिला पात्र है सभी को साड़ी दी जाती है. इन साड़ियों की विशेषता यह होती है कि इनके रंग लाल पीले तथा इतने घटिया टाइप के होते है कि किसी को पसंद नहीं आते है इसलिए इन्हें कोई नहीं पहनता तथा उसी पैक्ड कंडीशन में अपने बक्सों में रख देते है जिससे कभी उनके घर में शादी हो तो ससुराल वालों को लेबल बदल कर भेंट में दे दी जाए. इसी तरह परम्परा चलती रहती है. बहुत सी मार्डन महिलाएं इन साड़ियों को अपनी कामवाली बाई को दे देतीं है सबका मानना है कि कामवाली बाईयाँ साड़ी के बहुत ही घटिया रंग पसंद कर लेतीं हैं. कितना मुश्किल काम है कि नव विवाहिता को साड़ी के साथ सम्पूर्ण जीवन गुजारना पड़ता है . तभी तो महिलाएं अपने मायके जाने के लिए बहुत उत्सुक रहतीं हैं कि वहॉ जाते ही उन्हें कुछ दिनों के लिए ही सही इस यातना से मुक्ति मिल जाती है. बहुत सी विवाहिता स्त्रियाँ तो ससुराल से मायके पहुंचते ही सबसे पहले घर में घुसते ही अपनी साड़ी खोलने लग जातीं हैं. कुछ तो सामान बाद में उतारतीं हैं साड़ी पहले .
किन्तु हमारी परम्पराएं और है हम में से हरेक आधुनिकता की दौड़ में मल्लिकाएं या शिल्पाएं नही बन सकतीं . बहुतों को अपनी परम्परा की रक्षा करनी है और साड़ी पहननी है और जब साड़ी पहननी ही है तो ब्लाउज का मैचिंग कपड़ा भी खरीदना है उसे सिलवाना है और पहनना है. चलिए अब मैं आपको उस दिन की घटना का आंखों देखा हाल सुनाता हूं जब मैं शर्मा दम्पत्ति के साथ साड़ी के मैचिंग ब्लाउज का कपड़ा खरीदने बाजार गया. आगे मैं शर्मा जी की पत्नी को शर्मानी कह कर सम्बोधित करूंगा.
बाजार में ब्लाउज के कपड़े की दुकान में घुसते ही शर्मानी ने साड़ी दुकानदार के हवाले कर दी. दुकानदार अन्तर्यामी था साड़ी हाथ में लेते ही समझ गया कि किस प्रयोजन से दी गई है. उसने वह साड़ी अपने नौकर के हवाले कर दी . उस नौकर ने एक दूसरे नौकर को दे दी. किसी के भी चेहरे पर प्रसन्नता की कोई भी लकीर नहीं दिखाई दे रही थी. रेखा शब्द का उपयोग यहॉ जानबूझ कर नहीं किया गया अन्यथा सब का ध्यान कहीं और भटक जाता. उस नौकर ने साड़ी को मोडकर उसे इस तरह आकार दिया जैसे बगुले की चौंच बना रहा हो. अलमारियों में ब्लाउज के थान किसी सैनिक टुकडी की तरह पंक्तिबद्ध खड़े हुए थे. नौकर साड़ी को उन के सामने से यूं गुजार रहा था जैसे किसी परेड का निरीक्षण हो रहा हो. एक के बाद एक कई अलमारियों का निरीक्षण चल रहा था. एकाएक एक थान को परेड से अलग कर दिया गया और उसे नीचे पटक दिया गया. शर्मा जी की पत्नी को दुकान के नौकर की ऑखों में कुछ खराबी नजर आई क्योंकि वह जिस कपड़े को साड़ी के रंग जैसा बता रहा था शर्मानी उसमें जमीन आसमान का फर्क बता रहीं थीं. अन्त में जब मामला दुकानदार तक पहुंचा तो अन्तर का मापदण्ड उसने दो ऐसी संख्याओं का उदाहरण देकर अपना फैसला सुना दिया जो प्रत्येक व्यापारी अपने धन्धे में उपयोग में लाता है कि उन्नीस बीस तो चलता ही है किन्तु शर्माजी की पत्नी उन्नीस बीस तो क्या उन्नीस और उन्नीस दशमलव एक पर भी राजी नहीं थी. और फिर काफिला दूसरी दुकान की तरफ कूच कर गया . फिर दूसरी से तीसरी तीसरी से चौथी और न जाने कितनी दुकानों पर निरीक्षण टोली छापा मारती रही. एक दुकान पर जा कर फिर यही क्रिया दुहराई गई . फिर एक थान बाहर निकाला गया . एकाएक शर्मानी ने दुकानदार को आदेश दिया कि दुकान की लाइटें बन्द कर दे . मैं घबरा गया कि कहीं हवाई हमला तो नहीं हो रहा है जिससे ब्लैक आउट करवाया जा रहा हो किन्तु बाहर तो उजाला ही उजाला था और लडाकू विमानों की आवाजें भी नहीं आ रहीं थी. शर्मानी एकाएक लाइट ऑफ होते ही साड़ी और कपड़े के थान के बीच कुश्ती का मुकाबला करातीं रहीं. कभी साड़ी ऊपर तो कभी कपड़े का थान ऊपर. अचानक वो साड़ी और उस ब्लाउज के कपड़े के थान को ले कर दुकान से बाहर निकल गईं . मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि जब ये कपड़ा खरीदने आए हैं तो इस तरह उसे चुराकर ले जाने की क्या आवश्यकता थी मुझे लग रहा था कि दुकानवाला चोर चोर का शोर मचाने ही वाला है किन्तु वह शान्त मुद्रा में ही बैठा रहा. मेरा अनुमान भी गलत निकला . शर्मानी कपड़े का थान चोरी कर के नहीं बल्कि उसको धूप दिखाने के लिए बाहर ले गईं थी क्योंकि हो सकता था इतने दिन दुकान में पडे पडे उसमें कीडे पड गए हो किन्तु मेरा यह अनुमान भी गलत था क्योंकि वो कपड़े का रंग लगभग साड़ी जैसा ही है इसकी पुष्टी सूर्य भगवान से करवाने के लिए बाहर ले गई थीं. उनके अन्दर आते ही दुकानदार पर प्रश्नों की बौछार शुरू हो गई. इसका रंग तो नहीं जाएगा, ? यह सिकुड़ तो नहीं जायेगा, ? यह जल्दी फट तो नहीं जाएगा, ? यह छिन तो नहीं जाएगा ? . दुकानदार के पास इन सब प्रश्नों के उत्तर पहले से ही मौजूद थे. उसे पहले से ही पेपर आउट हो गया था. सभी उत्तरों का जवाब हॉ या न में ही देना था तथा उसने सभी का उत्तर ना में ही दिया .
अन्त में फैसले की घड़ी आ गई जिसका मुझे पिछले चार पॉच घण्टों से इन्तजार था . मैं सोचने लगा कि जव एक कपड़े के लिए इतना समय लगा तो महिलाओं का आधा जीवन तो इसी कार्य में गुजर जाता होगा किन्तु संतोष हुआ कि अब वह थान खरीदा ही जाना था जिसके लिए इतना समय तथा परिश्रम व्यय किया गया. अगले ही पल शर्मानी ने दुकानदार को जो आदेश दिया उसको सुनकर ही मुझे चक्कर सा आ गया . ‘इसमें से अस्सी सेन्टीमीटर दे दो’. मेरी ऑखों के सामने गणित का सवाल घूमने लगा कि यदि एक महिला छः घण्टे में एक साड़ी के लिए अस्सी सेन्टीमीटर कपड़ा खरीदती है तो एक साल में उसके पति को कितनी छुट्टियाँ लेनी पडेंगी ? रात के लगभग नौ बजे हम लोग उस अनुष्ठान के पूर्ण करके अपने घर पहचे. शर्मा जी ने मुझसे पूछा क्या तुम्हारे पास सिलाई मशीन है ?
क्यों क्या ब्लाउज घर पर ही सिला जाएगा ?
नहीं वो तो बाजार में सिलवाएंगे किन्तु हर ब्लाउज की एक विशेषता होती है कि उसे चाहे कितने भी बडे से बडे दर्जी से सिलवाया जाए उसकी फिटिंग कभी सही नहीं बैठती और प्रत्येक महिला सिलकर आने के पश्चात उसका पोस्टमार्टम जरूर करती है. कभी उसमें सिलाई डाल कर या उसे उधेड़ कर .
दूसरे दिन सुबह सुबह मैंने फिर देखा कि शर्मा जी घर के बाहर अखबार पढ रहे हैं. क्या हुआ ? क्या आज भी छुट्टी पर हो ? कल ज्यादा थक गए थे क्या ? मैंने उनसे पूछा .
नहीं, आज भी बाजार जाना है .
क्यों अब क्या रह गया ? मैंने पूछा
आज पेटीकोट का कपड़ा लाना है .
पाठक इस लेख में ऊपर के पैराग्राफ में जहॉ यह लिखा है कि ‘ बाजार में ब्लाऊज के कपड़े की दुकान में घुसते ही’ से अन्त तक पुनः आगे का हाल पढते जाए और जहां जहां ब्लाउज लिखा है उसे पेटीकोट कर लें. उसमें भी वही क्रिया अपनाई जाती है.
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