बुधवार, 12 मई 2010

देश प्रगति कर रहा है

मुझे बहुत दिनों बाद ये बात महसूस हुई कि अपना देश प्रगति कर रहा है । वैसे सुनता तो एक लम्बे समय से आ रहा था कि देश प्रगति कर रहा है परन्तु जब भी घर से बाहर क़दम रखता टूटी हुई सड़क और उसमें जगह जगह गन्दगी के ढ़ेर देख कर विश्वास नहीं होता था कि वाकई ऐसा हो रहा है किन्तु अभी कुछ दिनों से ऐसा लग रहा है कि ऐसा हो रहा है । हुआ यूं कि एक दिन अचानक कुछ लोग एक ट्रक में आए और उसमें रखॆ हुए बिजली के खम्बे हमारे घर के सामने की सड़्क पर जगह जगह उतारने लगे । बिजली के खम्बे पहले भी सड़क पर लगे हुए थे पर उनमें बिजली नही जलती थी वे महज सीमेन्ट के ही खम्बे थे । पूछने पर मालूम हुआ कि यहाँ की सड़क को चौडा किया जाएगा इस लिए अभी जिस जगह खम्बे लगे हुए है उन्हें हटाकर कुछ और पीछे सड़क के किनारे लगाया जाएगा जिससे सड़क चौडी़ हो जाएगी । मैं उनके सड़क चौडा करने के इस महत्वपूर्ण तरीके पर उनकी बुद्धिमता का कायल हो गया । सोचने लगा यदि बिजली के खम्बों को हटाए बिना ही सड़क चौडी कर देते तो लोग नाहक ही इस बात से कन्फ़्यूज़ हो जाते कि उन्हें खम्बे के आगे से निकलना है या पीछे से । वाह ! भई, क्या सोच है ।
कुछ दिन फिर कोई हलचल नहीं हुई मुझे लगा कि देश की प्रगति में कुछ रुकावट आ गई है किन्तु नहीं साहब ! कुछ दिन बाद फिर लोग आए और सड़क के किनारे गड्डे कर गए । वैसे भी सड़क पर पहले से ही इतने गड्डे थे कि खम्बे कहीं भी लगा सकते थे पर उससे सड़क चौडी कहाँ होती ? देश की प्रगति तो सड़क के किनारे पर गड्डे कर के उनमें बिलजी के खम्बे लगा कर सड़क चौडी करने में ही निहित थी । आज लेकिन एक बड़ा महत्वपूर्ण कार्य हुआ था । कामगारों के इस प्रकृति को कि एक बार में एक ही तरह का कार्य करेंगे जैसे जिस दिन खम्बे हटाने हैं तो उस दिन खम्बे ही हटाएंगे, जिस दिन गड्डे करना है तो सिर्फ़ गड्डे ही करेंगें में एक विशेष संशोधन किया गया था, आज गड्डों के साथ ही साथ खम्बे भी लगाए जा रहे थे । शाम तक सड़क पर खम्बे ही खम्बे दिखाई दे रहे थे । कुछ पुराने और कुछ नए । फिर कुछ दिनों का अन्तराल आ गया जैसे किसी टीवी धारावाहिक में थोडी थोडी देर में ब्रेक आ जाता है । इसके बाद कई एपीसोड तक घरों की बिजली घन्टों तक बन्द करके पुराने खम्बों से तार ह्टाए गए उन्हें नए खम्बों में लगाया गया फिर बिजली बन्द करके पुराने खम्बों से लाईटें निकाली गईं उन्हें नए खम्बों में लगाया गया, फिर पुराने खम्बे हटाए गए, उन्हें सड़क पर ही पटक दिया गया, फिर मुझ से चाय पिलाने की फ़रमाइश की गई उससे पूर्व ठण्डा पानी मांगा गया तथा ज़माना खराब है जैसे चालू वाक्यों को बोलकर देश की प्रगति की दिशा में एक कदम आगे वढ़ा कर उन्होंने अपने अपने क़दम भी आगे बढ़ा दिए ।
अब देखने से लगने लगा था कि सड़क चौडी हो गई है और उसकी सीमा बिजली के खम्बों तक मानी जा सकती थी लेकिन उस चौड़ाई को सड़क कहना मुनासिब नहीं था क्योंकि सड़क की जगह तो गड्डों वाला स्थान था सड़क तो अब बननी शुरु होनी थी और न जाने कब बननी शुरु होनी थी क्योंकि जो बिजली वाले हैं वे सड़क नहीं बना सकते थे और जो सड़क बनाने वाले है वे बिजली के खम्बों के चक्कर में आते नही थे । हम लोग इन्तज़ार कर रहे थे कि कब शाम हो और नए खम्बों पर लगाई गईं लाइटे हमारे घर के बाहर सड़क को रोशन करें । शाम होने का इन्तज़ार हमें ज़्यादा देर तक नहीं करना पडा इसका मतलब यह नहीं कि उस दिन शाम जल्दी ही हो गईं थी वरन जब खम्बे लगाने का कार्य पूरा हुआ तब तक तो शाम होनी ही थी । कामगारों का सबसे प्रमुख कार्य यही होता है कि वे शाम होने का इन्तज़ार करें जिससे वे अपना काम बन्द कर के घर जा सकें या उनका कार्य ही तब समाप्त हो्ता है जब शाम हो जाए ।
शाम का अंधेरा होते ही हमारी नज़रें जो बहुत देर से बिजली के खम्बों की लाइटों पर टिकी थीं धीरे धीरे चेहरे पर अनेक तरह के रसों के भाव प्रकट करते हुए नीचे झुकतीं चलीं गईं क्योंकि लाइटों ने उस दिन हडताल कर दी थी और उनके बल्ब गाए जा रहे थे कि ’ मैं तो आशिक हूँ रात की स्याही का’ । लाईटें उस रात नहीं जलीं । दूसरे दिन मेरे मोहल्ले के लोग मेरे पास आए वे कुछ गलतफ़हमी या किसी षडयंत्र के कारण मुझे बुद्धिजीवी तथा एक जागरूक नागरिक समझते थे तथा यह भी समझते थे कि किसी भी परेशानी की शिकायत उस शिकायत से सम्बन्धित महकमे में करना एक बुद्धिजीवी तथा जागरूक नागरिक का ही काम होता है । जाहिर है उन लोगों ने मुझे इस कार्य के लिए बिलकुल उपयुक्त समझा था कि मैं लाइटे न जलने की शिकायत करके आउँ । मैं नगर निगम के कार्यालय में पहुंचा । उन्होंने हाथ खडे़ कर दिए हाथों का ये फ़ायदा है कि उनसे अनेक कार्य लिए जा सकते हैं जैसे हाथ जोड़ना, हाथ खडे़ करना, हाथ चलाना, हाथ पसारना, हाथ बांटना, हाथ मारना, हाथ फैलाना आदि । वे बोले यह कार्य तो आजकल हम नहीं नगर विकास न्यास वाले करवा रहे हैं आप उनके कार्यालय में सक्सेना जी से बात कीजिए । नगर विकास न्यास के कार्यालय की हालत देखकर लगता था कि नगर से पहले उन्हें खुद के कार्यालय के विकास की अत्यधिक आवश्यकता थी । "सक्सेना जी का तो दो महिने पहले तबादला हो गया आप क्या बार्ड पार्षद हैं" ? मैंने कहा ’नही’ ।’फिर आप शिकायत लेकर कैसे आए है’ ? वहाँ पर बैठे हुए एक सज्जन ने पूछा । ’वैसे ही मैं उस मुहल्ले का एक जागरूक नागरिक हूँ इसलिए आया हूँ"। लगता है आपने भी टीवी पर ’जागो ग्राहक जागो’ वाला विज्ञापन देख लिया है " आप मिश्राजी से बात कर लीजिए वे तो आए नही लेकिन उनका मोबाइल नम्बर ले लीजिए । मिश्रा जी से मेरी बात हुई मैंने उन्हें अपने मोहल्ले की तकलीफ़ बताई । वे बोले ये सारा कार्य हमने ठेके पर दिया हुआ है उसके लिए तो ठेकेदार से मिलना पडेगा । ’देश की प्रगति में ठेकेदार की भूमिका’ विषय सम्मुख आते ही मेरी आँखों के सामने एक लम्बा सा निबन्ध घूमने लगा । मुझे लगा बात इतनी आसान नहीं है क्योंकि जहाँ पर ठेकेदार है वहाँ उससे सम्बन्धित उस राग को गाने वाले मंत्री से लेकर अफ़सर, बाबू, चपरासी बहुत से लोग होंगे, ठेकेदार तो सिर्फ ठेका लगाने के लिए ही होगा । मुझे यह जानकर संतोष हुआ कि जब सड़क चौडी करने के मामले में ही इतने सारे लोग संलग्न हैं तब तो देश की प्रगति में जाने कितने लोग लगे होंगे तभी तो मुझे महसूस हो रहा है कि देश प्रगति कर रहा है ।

बुधवार, 5 मई 2010

सिनेमा और जवानी दर्शन

किसी भी शहर की विशालता का अनुमान पहले इस बात से लगाया जाता था कि उस जगह कितने सिनेमाघर है। दिल्ली में चालीस सिनेमाघर थे तो मुम्बई में साठ सत्तर। कोटा में शुरूआत में नटराज, मोहन तथा बृज सिनेमाघर ही गिनाए जा सकते थे। छुट्टियों में रिश्तेदारों के बच्चे कोटा आते तो बताने में शर्म आती थी कि यहां मात्र तीन सिनेमाघर ही है। धीरे धीरे सरोवर, मनोज, मयूर तथा आकाश सिनेमाघरों के निर्माण हुए जिससे यहाँ के लोगों में शर्मसार होने में कमी आई। उस समय कितनी बेशर्म किस्म की फिल्में इन सिनेमाघरों में लगा करतीं थीं जो एक बार लगने के बाद उतरने का नाम ही नहीं लेतीं थीं। ऐसा नहीं कि वे फिल्में उतरना नहीं चाहतीं थीं वो तो यहाँ के लोग ही ऐसे थे कि उनको उतरने ही नहीं देते थे। फिल्म शुरू होने का वक़्त हुआ नहीं कि उसके पहले ही लम्बी लम्बी लाइनें लगाकर खड़े मिलते थे। और चलिए एक बार देख ली दो बार देख ली परन्तु यह क्या कि पांच पांच बार देखे चले जा रहे हैं। फिल्में सिनेमाघरों के मालिकों के सामने गिड़गिड़ाती रहतीं कि अब हमें दूसरी जगह जाने दो लेकिन उन पर कोई असर ही नहीं होता था। महिनों तक ’पूरब पश्चिम’ की सायरा बानो मिनि स्कर्ट में सिनेमाघर की दीवार पर लटकी-लटकी अपनी टांगे दिखाती रहती थी उस समय उसके मिनि स्कर्ट पर किसी को एतराज़ नहीं था। गब्बर सिंह भी दिन भर पोस्टर पर चिपके चिपके सड़क पर नज़रें लगाए रहते थे कि कितने आदमी हैं ?

उस समय फिल्म देखने जाना किसी महायज्ञ से कम नहीं होता था। पहले फिल्म का चयन होता था फिर शो शुरू होने के एक घण्टे पहले नियत स्थान पर पहुंचा जाता था फिर लाईन में लगना पड़ता था। इस कार्य के लिए महिलाओं को प्राथमिकता प्रदान की जाती थी। अन्य परिवार के लोग हनुमान चालीसा का पाठ करते रहते थे जिससे टिकट की खिड़की पर पहुंचते ही ऐन वक्त पर टिकट समाप्ति की घोषणा न हो जाए। खुदा न खास्ता यदि टिकट मिल भी जायें तो हॉल के अन्दर घुसने के लिए भी मशक्कत करनी पड़ती थी और हॉल के अन्दर जाने पर मालूम होता था कि फिल्म शुरू हो चुकी है और उसका बहुत सा हिस्सा निकल भी चुका है। हॉल के अन्दर हाथ को हाथ भी नहीं सूझता था बाहर भी नहीं सूझता हैं क्योंकि हाथ में आँखें नहीं होतीं हैं । बड़ी मुश्किल से सिनेमा देख रहे अन्य दर्शकों से गालियाँ खाते हुए अपनी सीट तक पहुंचते थे। उस समय देखने को फिल्म होती थी और साथ साथ खाने को मूंगफली। यह भावना भी सब के मन में रहती थी कि सिनेमाघर के बेचारे सफाई कर्मचारियों को भी कुछ काम मिले इसलिए मूंगफली के छिलके वहीं सीट के आसपास स्थान पाते रहते थे। इतना कुछ होने के पश्चात किसी फिल्म देखने का आयोजन सम्पन्न होता था। दुर्भाग्य से यदि हनुमान जी अपनी प्रशंसा को सिनेमा जैसे कार्य के लिए उपयोग में लाने को उचित न समझें और अपने चालीसा का असर दिखाने से मना कर दें और टिकट न मिलें तो मन धिक्कारता था कि - लानत है ऐसे जीवन पर कि फिल्म देखने गए और बिन देखे लौट के बुद्धू वापस घर लौट आए ऐसी स्थिति में तुरत फुरत किसी दूसरे सिनेमाघर की ओर कूच करते थे और कोई न कोई अच्छी बुरी फिल्म देख ही आते थे ।

अब समय बदल गया है अब दिन भर टी वी और वीडियों सीडी के माध्यम से फिल्म देखते देखते लोग ऊब चुके है। अब फिल्म देखने में कोई संघर्ष नहीं रह गया है और जब कोई चीज आसानी से उपलब्ध हो जाए तो उसमें मज़ा भी नहीं रहता। सिनेमाघरों में जाना तो अब भूली बिसरी बातें हो गईं परिणाम यह हुआ कि सिनेमाघरों की हालत पतली हो गई कुछ तो बन्द हो गये कुछ यह सोच कर मिट्टी में मिल गए कि जब सबको मिट्टी में ही मिल जाना हैं तो वे अभी से ही क्यों न मिल जाएं। फिर भी जो कुछ बचे रहे उन्होने यहाँ तेजी से फल फूल रहे कोचिंग संस्थानों से प्रेरणा लेकर सिनेमाघरों को अंग्रेजी फिल्मों के माध्यम से अनपढ़ और छोटे तबकों के लोगों को महिलाओं के शरीर विज्ञान तथा अंग्रेजी विषय की शिक्षा देने का कार्य प्रारम्भ कर दिया। इस शिक्षण कार्यक्रम से ही लोगों ने जाना कि जवानी की अनेकों किस्में होतीं है। जैसे मचलती जवानी. सिसकती जवानी, तड़पती जवानी, जवानी दीवानी, प्यासी जवानी, आदि। वैसे इन फिल्मों के नाम तो कुछ उलूल जुलूल टाइप के होते है किन्तु उनके हिन्दी अनुवाद उन्हें घुमा फिरा कर जवानी की ओर ले आते है। जो लोग यह रोना रोते है कि हिन्दी में अच्छे अनुवादकों की कमी है वे गलत सोचते हैं। ऐसे शिक्षण कार्यक्रम नाबालिगों के लिए नहीं चलाए जाते क्योंकि यदि वे बचपन में ही समझ गए कि जवानी क्या और कैसी होती है तो जवानी में क्या समझेंगे और जिनकी जवानी निकल गई वे भी यह सोच कर इन कार्यक्रमों में पहुंच जाते है कि वे भी तो जानें कि उनकी जवानी जो बीत गई है, किस किस्म की थी।