बुधवार, 5 मई 2010

सिनेमा और जवानी दर्शन

किसी भी शहर की विशालता का अनुमान पहले इस बात से लगाया जाता था कि उस जगह कितने सिनेमाघर है। दिल्ली में चालीस सिनेमाघर थे तो मुम्बई में साठ सत्तर। कोटा में शुरूआत में नटराज, मोहन तथा बृज सिनेमाघर ही गिनाए जा सकते थे। छुट्टियों में रिश्तेदारों के बच्चे कोटा आते तो बताने में शर्म आती थी कि यहां मात्र तीन सिनेमाघर ही है। धीरे धीरे सरोवर, मनोज, मयूर तथा आकाश सिनेमाघरों के निर्माण हुए जिससे यहाँ के लोगों में शर्मसार होने में कमी आई। उस समय कितनी बेशर्म किस्म की फिल्में इन सिनेमाघरों में लगा करतीं थीं जो एक बार लगने के बाद उतरने का नाम ही नहीं लेतीं थीं। ऐसा नहीं कि वे फिल्में उतरना नहीं चाहतीं थीं वो तो यहाँ के लोग ही ऐसे थे कि उनको उतरने ही नहीं देते थे। फिल्म शुरू होने का वक़्त हुआ नहीं कि उसके पहले ही लम्बी लम्बी लाइनें लगाकर खड़े मिलते थे। और चलिए एक बार देख ली दो बार देख ली परन्तु यह क्या कि पांच पांच बार देखे चले जा रहे हैं। फिल्में सिनेमाघरों के मालिकों के सामने गिड़गिड़ाती रहतीं कि अब हमें दूसरी जगह जाने दो लेकिन उन पर कोई असर ही नहीं होता था। महिनों तक ’पूरब पश्चिम’ की सायरा बानो मिनि स्कर्ट में सिनेमाघर की दीवार पर लटकी-लटकी अपनी टांगे दिखाती रहती थी उस समय उसके मिनि स्कर्ट पर किसी को एतराज़ नहीं था। गब्बर सिंह भी दिन भर पोस्टर पर चिपके चिपके सड़क पर नज़रें लगाए रहते थे कि कितने आदमी हैं ?

उस समय फिल्म देखने जाना किसी महायज्ञ से कम नहीं होता था। पहले फिल्म का चयन होता था फिर शो शुरू होने के एक घण्टे पहले नियत स्थान पर पहुंचा जाता था फिर लाईन में लगना पड़ता था। इस कार्य के लिए महिलाओं को प्राथमिकता प्रदान की जाती थी। अन्य परिवार के लोग हनुमान चालीसा का पाठ करते रहते थे जिससे टिकट की खिड़की पर पहुंचते ही ऐन वक्त पर टिकट समाप्ति की घोषणा न हो जाए। खुदा न खास्ता यदि टिकट मिल भी जायें तो हॉल के अन्दर घुसने के लिए भी मशक्कत करनी पड़ती थी और हॉल के अन्दर जाने पर मालूम होता था कि फिल्म शुरू हो चुकी है और उसका बहुत सा हिस्सा निकल भी चुका है। हॉल के अन्दर हाथ को हाथ भी नहीं सूझता था बाहर भी नहीं सूझता हैं क्योंकि हाथ में आँखें नहीं होतीं हैं । बड़ी मुश्किल से सिनेमा देख रहे अन्य दर्शकों से गालियाँ खाते हुए अपनी सीट तक पहुंचते थे। उस समय देखने को फिल्म होती थी और साथ साथ खाने को मूंगफली। यह भावना भी सब के मन में रहती थी कि सिनेमाघर के बेचारे सफाई कर्मचारियों को भी कुछ काम मिले इसलिए मूंगफली के छिलके वहीं सीट के आसपास स्थान पाते रहते थे। इतना कुछ होने के पश्चात किसी फिल्म देखने का आयोजन सम्पन्न होता था। दुर्भाग्य से यदि हनुमान जी अपनी प्रशंसा को सिनेमा जैसे कार्य के लिए उपयोग में लाने को उचित न समझें और अपने चालीसा का असर दिखाने से मना कर दें और टिकट न मिलें तो मन धिक्कारता था कि - लानत है ऐसे जीवन पर कि फिल्म देखने गए और बिन देखे लौट के बुद्धू वापस घर लौट आए ऐसी स्थिति में तुरत फुरत किसी दूसरे सिनेमाघर की ओर कूच करते थे और कोई न कोई अच्छी बुरी फिल्म देख ही आते थे ।

अब समय बदल गया है अब दिन भर टी वी और वीडियों सीडी के माध्यम से फिल्म देखते देखते लोग ऊब चुके है। अब फिल्म देखने में कोई संघर्ष नहीं रह गया है और जब कोई चीज आसानी से उपलब्ध हो जाए तो उसमें मज़ा भी नहीं रहता। सिनेमाघरों में जाना तो अब भूली बिसरी बातें हो गईं परिणाम यह हुआ कि सिनेमाघरों की हालत पतली हो गई कुछ तो बन्द हो गये कुछ यह सोच कर मिट्टी में मिल गए कि जब सबको मिट्टी में ही मिल जाना हैं तो वे अभी से ही क्यों न मिल जाएं। फिर भी जो कुछ बचे रहे उन्होने यहाँ तेजी से फल फूल रहे कोचिंग संस्थानों से प्रेरणा लेकर सिनेमाघरों को अंग्रेजी फिल्मों के माध्यम से अनपढ़ और छोटे तबकों के लोगों को महिलाओं के शरीर विज्ञान तथा अंग्रेजी विषय की शिक्षा देने का कार्य प्रारम्भ कर दिया। इस शिक्षण कार्यक्रम से ही लोगों ने जाना कि जवानी की अनेकों किस्में होतीं है। जैसे मचलती जवानी. सिसकती जवानी, तड़पती जवानी, जवानी दीवानी, प्यासी जवानी, आदि। वैसे इन फिल्मों के नाम तो कुछ उलूल जुलूल टाइप के होते है किन्तु उनके हिन्दी अनुवाद उन्हें घुमा फिरा कर जवानी की ओर ले आते है। जो लोग यह रोना रोते है कि हिन्दी में अच्छे अनुवादकों की कमी है वे गलत सोचते हैं। ऐसे शिक्षण कार्यक्रम नाबालिगों के लिए नहीं चलाए जाते क्योंकि यदि वे बचपन में ही समझ गए कि जवानी क्या और कैसी होती है तो जवानी में क्या समझेंगे और जिनकी जवानी निकल गई वे भी यह सोच कर इन कार्यक्रमों में पहुंच जाते है कि वे भी तो जानें कि उनकी जवानी जो बीत गई है, किस किस्म की थी।

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