रविवार, 29 मार्च 2009

प्रशंसा करवाने का नुस्खा

राम सेवक जी बहुत मक्कार किस्म के व्यक्ति हैं। इतने वाहियात कि उनके नाम के साथ जी लगाने में भी सोचना पडता था। संसार में जितनी तरह की गालियाँ विद्यमान हैं विभिन्न लोग उनको उनके लिए प्रयोग में ला चुके थे।सब लोग उन्हें उन गालियों से इस प्रकार विभूषित करते थे जिस प्रकार किसी साहित्यकार को 'साहित्य श्री' किसी गायक गायिका को 'स्वर सम्राट' या 'स्वर कोकिला' की उपाधि दी जाती है। उनकी कुटिलता बेईमानी और तिकड़मबाज़ी का क्षेत्र बहुत व्यापक था। जो भी उनके बारे में कुछ कहता उनके नाम के पहले उनकी माँ तथा बहन को ज़रूर याद कर लेता था। वे भी इस उधेडबुन में रहते थे कि ऐसा क्या किया जाए जिससे लोग उनको याद करें या उनकी प्रशंसा करें। कुछ दिनों से उनकी हरकतें कुछ कम हो गईं थी। वे दिखते भी कम थे। कुछ लोगों ने बताया कि इन दिनों वे घर में बैठे-बैठे कुछ लिखते रहते है।
एक दो महिनों बाद डाक से एक निमंत्रण पत्र प्राप्त हुआ। यह राम सेवक जी की ओर से था लिखा था कि उनके प्रथम काव्य संग्रह ' कुत्ते की टेढ़ी पूँछ हूँ मैं' का विमोचन समारोह अमुक तिथि को होगा। अध्यक्षता उस शहर के एक प्रमुख साहित्यकार जिनका जन्म लगता था अध्यक्ष बनने के लिए ही हुआ था¸ करेंगे तथा मुख्य अतिथि¸ पत्र वाचक¸ विशिष्ठ अतिथि¸ अति विशिष्ठ अतिथि¸ संयोजन आदि के खाते में भी बहुत से प्रसिद्ध तथा महत्वपूर्ण लोगों के नाम थे। अन्त में सहभोज में सम्मिलित होने का भी आग्रह था । सभी को आश्चर्य हो रहा था कि यह आदमी कवि कब से हो गया और कवि होना तो दूर उसका काव्य संग्रह भी प्रकाशित हो गया जबकि बडे़-बडे़ साहित्यकार ज़िन्दगी भर साहित्यकार तो बने रहते है किन्तु उनकी रचनाओं की पुस्तक प्रकाशित नहीं हो पाती या कई लोगों की पुस्तकें तो ख़ूब प्रकाशित हो जाती हैं परन्तु वे साहित्यकार नहीं होते। मैं भी एक ऐसे आदमी को भी जानता हूँ जिसकी 12 पुस्तकें प्रकाशित हो गई है लेकिन लगता है कि उन की रचनाओं को उनके अलावा सिर्फ़ प्रेस के कम्पोजीटर या प्रूफ रीडर ने ही पढ़ा होगा। आज भी उनको कोई¸ साहित्यकार नहीं मानता सब उनके बारे में यही कहते है 'अच्छा वो हेड मास्साब'। वे एक महत्वपूर्ण सरकारी पद से सेवानिवृत हुए थे अत: उनको पेन्शन अच्छी मिलती थी जिसका उपयोग वे अपनी घटिया रचनाओं की पुस्तक छपाने में किया करते थे। सबने राम सेवक जी के बारे में सोचा कि आदमी चाहे कितना भी बुरा क्यों न हो कम-से-कम उसमें एक अच्छाई तो है कि वह साहित्य में अपना योगदान दे रहा है तथा साहित्यकारों को भोजन करवा रहा है।
निश्चित तिथि एवं समय पर मैं कार्यक्रम स्थल पहुँच गया। एक भव्य पंडाल सजाया गया था जिसमें लगभग 500 कुर्सियाँ तथा मंच पर विशिष्ट अतिथियों के बैठने की व्यवस्था की गई थी। पंडाल काफ़ी ख़ाली था । इक्के दुक्के लोग ही बैठे हुए थे। लोग एक एक करके एकत्र हो रहे थे। अधिकांश लोगों को मालूम था कि सहभोज तो कार्यक्रम शुरू होने के दो घण्टे बाद ही होगा । लोग आने के बाद रामसेवक जी को बधाई प्रेषित कर रहे थे। कुछ देर में सभी अतिथि गण भी आ गए। स्वागत तथा दीप जलाने की रस्म के बाद पुस्तक के विमोचन का कार्यक्रम हुआ। रंगीन कागज़ में लिपटी पुस्तकों को पैकिंग वाले ने इस क़दर टेप लगा कर पैक किया था कि उसे खोलने में मुख्य अतिथि महोदय को भारी मसक्कत करनी पड़ रही थी। पुस्तकें थीं कि बाहर आने का नाम ही नहीं ले रहीं थीं अन्त में एक कैंची की मदद लेनी पडी तब कही जा कर 'कुत्ते की टेढ़ी पूँछ' बाहर निकली रामसेवक जी ने अपने संकलन से कुछ रचनाओं का पाठ किया। उन्होंने बताया कि उनका यह संकलन जीवन में भोगे हुए अनुभवों का दर्पण है । उनकी पहली रचना थी :
' मेरे घर चाय पीने के जितने भी प्याले है
सब के हत्थे टूट चुके है।
अब वो प्याले नहीं कुल्हड़ लगते हैं
मैं अब भी उनमें चाय पीता हूँ
मतलब आम खाने से है या पेड़ गिनने से
चाय का स्वाद तो बदलेगा नहीं
चाहे प्याला हो या कुल्हड़'।
उनकी दूसरी रचना थी :
मेरी पत्नी मुझे एक रोटी देती है
कहती है गाय को खिला दो
बाहर जा कर वह रोटी में
कुत्ते को खिला देता हूँ या
ख़ुद खा जाता हूँ।
जो रोटी गाय माता खा सकती है
वह मैं क्यों नहीं ? कुत्ता क्यों नहीं ?
क्या उस रोटी पर गाय का नाम लिखा है ?
उनकी इस रचना पर एक विशेष समुदाय के लोगों ने ख़ूब तालियाँ बजाईं क्योंकि इसमें गाय¸ माता¸ तथा रोटी का ज़िक्र था। लोग उनकी रचनाएँ सुन रहे थे वाह-वाह भी कर रहे थे किन्तु सबका ध्यान पीछे बन रहे पकवानों की आ रही सुगन्ध की ओर था। कान के ऊपर नाक हाबी हो रही थी। राम सेवक जी ने तीसरी रचना पढ़ी :
संध्या ढलते ही जब सूरज छुप जाता है
पहाडों की ओट में
गहराने लगता है अंधकार
कितना उपयोगी होता है
छत पर पडा हुआ बाँस।
मैं फँसाकर उसमें घर की बिजली के
तारों के आँकडे़
डाल देता हूँ बिजली के उन तारों पर
गुज़रते हैं जो घर के क़रीब से
हो जाता है फिर से उजाला
ऐसा लगता है
मानों सूरज फिर से वापस लौट आया हो।
संकलन की समीक्षात्मक टिप्पणी करते हुए प्रथम वक्ता ने कहा कि रामसेवक जी की रचनाओं मे कवि ने जिस स्पष्टवादिता तथा जीवन के अनुभवों का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत किया है वो हम सब के लिए एक अनुकरणीय है। कवि जीवन में किए गए किसी भी कर्म को हेय दृष्टि से नहीं देखता हैं तथा उसे स्वाभिमानपूर्वक सबके सम्मुख उजागर भी करता है जो रचनाकार को एक विशिष्ट स्थान पर प्रतिपादित करता है। अपनी रचना गाय को रोटी मे कवि मन किसी अंधविश्वास का सहारा न लेकर गाय¸ कुत्ते तथा स्वयं में भी कोई भेद नहीं देखता है तथा इस रचना में उसका पशुओं के प्रति एक सकारात्मक मित्रतापूर्ण तथा भ्रातत्वपूर्ण नज़रिया दृष्टि गोचर होता है। इसी प्रकार उनकी रचना सूरज तथा बिजली के तारों के आँकडे में कवि ने देश की उन समस्याओं की ओर इशारा किया है जिनसे आज ग़रीब तथा भोली जनता त्रस्त है तथा उसे जीवन यापन के लिए अनुचित तरीकों का उपयोग करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। अप्रत्यक्ष रूप से यह उन राजनीतिज्ञों की कारगुज़ारी की ओर भी संकेत करता है जो देश की भोलीभाली जनता को ग़रीबी हटाओ जैसे झूठे आश्वासन देते हैं तथा उन्हें पूरा नहीं करते। उनकी रचना 'चाय तो चाय ही है' में वे आज के समाज में फैल रहे झूठे दिखावे तथा भौतिकवादी ताक़तों के विरूद्ध एक संघर्ष छेडते नज़र आते है। उनकी एक एक रचना समाज में एक नई क्रान्ति का सूत्रपात करने में सक्षम है।
दूसरे वक्ता ने भी उनके इस काव्य संग्रह की तिल जैसी रचनाओ को ताड़ बनाने में कोई क़सर नहीं छोडी। उन्होनें कहा कि रामसेवक जी को अपनी कविता के विषय खोजने के लिए कहीं इधर-उधर नहीं भटकना पडा वरन् इन्होनें स्वयं तथा अपने घर को ही अपनी काव्य-कला का आधार बनाया है जो इनके स्वाभिमान तथा इनकी दूसरों के घरों में ताक-झाँक न करने की आदत का द्योतक हैं।
इसी क्रम में मुख्य अतिथि¸ विशिष्ट अतिथि¸ अति विशिष्ट अतिथि¸ ने भी अपने सम्बोधन मे राम सेवक जी के साथ गुज़ारे अपने पुराने समय को याद किया क्योंकि वे राजनीति से जुडे हुए लोग थे जिन्हे कविता से कुछ भी लेना-देना नहीं था। वे तो केवल सहभोज के लिए आए थे। मुख्य अतिथि ने अवश्य यह कहा कि जव हम पाँचवी कक्षा में पढते थे राम सेवक ने उस समय भी एक कविता बनाई थी। हुआ यूँ कि इसने हमारे मास्साब की कुर्सी पर काली स्याही डाल दी थी¸ मास्साब का रंग भी काला था तब उसने कहा था :
'आगे से भी काले हैं पीछे से भी काले हैं
इन्हे देखकर लगता है ये कुम्भकरण के साले है'।
अर्थात् यह कहने में अतिशियोक्ति नहीं होगी कि इनमें काव्य कला का बीजारोपण इनके बाल्यकाल से ही हो गया था तथा इनकी यथार्थवाद की रचनाएँ इनको महाकवि निराला के समकक्ष खडा करतीं हैं। मुख्य अतिथि की इस बात पर सब लोग मुँह दबा कर तथा उन्हें मन-ही-मन गालियाँ देते हुए हँस रहे थे।
मुख्य अतिथि के बाद अध्यक्ष महोदय की बारी थी किन्तु कार्यक्रम बहुत अधिक लम्बा खिंच जाने के कारण सब लोग आपस में बातें करने लगे थे अध्यक्ष की बात कोई नहीं सुन रहा था। अध्यक्ष महोदय रामसेवक जी की तारीफ़ कम अपनी ज़्यादा कर रहे थे उन्हें इस बात से कोई लेना देना नहीं था कि लोग सुन रहे हैं या नहीं वे तो जितना बोलना चाहते थे बोले जा रहे थे। लोगों की धैर्य की सीमा टूट रही थी। खाना बनाने वाले भी 3 घन्टे से फ़िजूल की बकबास सुनते सुनते ऊब चुके थे। उनमें से एक आदमी ने झट से टाट पट्टियाँ बिछा कर पत्तले बिछाना प्रारम्भ कर दिया। पत्तले बिछी देखकर लोग उठ-उठ कर पत्तलों के आगे बैठने लगे थे। अध्यक्ष जी का भाषण अभी चल ही रहा था। अब नाक और कान पर मुँह और पेट भारी पड़ने लगा था। मजबूरन अध्यक्ष जी को अपना भाषण समाप्त करना पडा।
सह-भोज के बाद सब लोग अपने पेट पर हाथ फेरते हुए राम सेवक जी की प्रशंसा तथा उन्हें बधाई दे रहे थे । सब को सामूहिक रूप से अपनी प्रशंसा करवाने का गुर प्राप्त हो गया था ।

रविवार, 22 मार्च 2009


मुझको भी तो जेल करा दे

मेरी तीन प्रबल इच्छाएं हैं। पहली यह कि मैं प्यानो बजाऊं । दूसरी मैं अपनी पत्नी की कम से कम एक बार पिटाई करूं और तीसरी कि मैं भी जेल जाऊं। अब पहली इच्छा पूरी करने के लिए २० गुणा ५० वर्गफुट का मकान पर्याप्त नहीं है उसके लिए तो एक शानदार महलनुमां बंगला चाहिए। बंगले के बहुत बड़े हाल में रखा हुआ प्यानो चाहिए। हाल में चक्कर लगाती हुई सुन्दर प्रेमिका और गुस्से में आग बबूला होता हुआ उसका बाप भी चाहिए फिर प्यानो बजाने में एक परेशानी यह थी कि उसे दोनों हाथों से बजाना होता है। मैनें अब तक सिर्फ हारमोनियम ही बजाया है और वह भी एक हाथ से यदि दोनों हाथों से बजाता तो हवा कौन भरता। हवा भरने पर ही बहुत सी चीजें बजतीं हैं। मेरी पत्नी ने सलाह दी कि वह पैर फैलाकर बैठ जायेगी और मैं उसके पैरों पर दोनों हाथों से प्यानो बजाने का अभ्यास कर लूं इससे मेरा अभ्यास ठीक हो जायेगा और उसके दोनों पैरों का दर्द। इन सभी में बहुत सी झंझटें तथा खर्चा अधिक होने के कारण मुझे इस इच्छा को छोड़ना पड़ा।
दूसरी इच्छा जो पत्नी की पिटाई से ताल्लुक रखती थी उसके विषय में मुझे एकाएक महसूस हुआ कि इस प्रकार की इच्छा दूसरी ओर भी जन्म ले सकती है। आग दोनों तरफ लग सकती है। महिलायें भी पुरूष के समान अधिकार प्राप्त करने की दिशा में सक्रिय हैं। मैं अपनी इच्छा के कारण इतना बड़ा जोखिम उठाने को तैयार नहीं था अत: इस इच्छा का भी त्याग करना पड़ा।
मेरी तीसरी और अन्तिम इच्छा जेल जाने की अभी भी बलवती बनी हुई है। जेल जाने में आसानी यह है कि इसके लिए किसी योग्यता की आवश्यकता नहीं होती। समाज में दो ही स्थान ऐसे हैं जहां योग्यता का कोई महत्व नहीं है एक जेल तथा दूसरा संसद। किसी चारदीवारी के बाहर लड़ने झगड़ने पर जब आपको जिस चारदीवारी के अन्दर कर दिया जाता है उसे जेल कहते है पर जब किसी चारदीवारी के अन्दर लड़ने झगड़ने पर आपको बाहर निकाल दिया जाये वह जगह संसद कहलाती है। आप सोच रहे होंगे कि यह मुख्य विषय से दूर हट रहा है। एक अच्छे व्यंग लेख की यही विशेषता है।
जेल और राजनीति का तो चड्डी बनियान जैसा साथ है। अपने देश में कुछ लोग जेल चले जाते हैं तो कुछ राजनीति में। कुछ राजनीति में जाकर जेल चले जाते हैं तो अधिकांश जेल से राजनीति मे चले आ रहे है । हमारी आयात और निर्यात नीति बहुत अच्छी है ।
जेलों के विषय में हमारी हिन्दी फिल्मों ने सबको इतना विशद अध्ययन करवा दिया है जितना स्वयं जेल के अधिकारी भी नहीं जानते होंगे फिर भी जेल के विषय में कुछ महत्वपूर्ण जानकारियॉ उपलब्ध कराना अपना फर्ज समझता हूं क्योंकि जिस जगह जाना है उसके इतिहास और भूगोल की जानकारी तो होनी ही चाहिए। इसका तात्पर्य यह नहीं हैं कि मुझे जेलों के बारे मैं बहुत ज्ञान है अधिकतर लोग किसी विषय में जानकारी न होने पर भी उस विषय पर बात कर लेते है। साहित्य और कविता के क्षेत्र में भी यही हो रहा है। जेल की जानकारी होने से भविष्य में वह आप के काम भी आ सकती है।
जेल की दीवारें हमेशा ऊंची और चौकोर पत्थरों की बनी होतीं हैं जिन पर सीमेन्ट का प्लास्तर नहीं होता। वैसे प्लास्तर होता तो है पर जेल की दीवारों पर नहीं कागजों पर होता है। प्रसिद्ध व्यंगकार शरद जोशी के अनुसार ऊंची ऊंची ये दीवारें कैदियों के सामने एक चुनौती के रूप में खड़ी होकर उन्हे हमेशा लांघने के लिए एक प्रेरित करती रहतीं हैं। बिना प्लास्तर की दीवारें होने का एक लाभ यह है कि कैदी इस बात की आसानी से जॉच कर लेते है कि किस स्थान के पत्थर हटा कर आसानी से भागा जा सकता है। जेल के अधिकारियों को भी यह पता करने में सुविधा रहती है कि कैदी किस जगह के पत्थर हटा कर भागा। दोनों को फायदा है।
जेल को कुछ मनचले ससुराल की भी संज्ञा देते है क्योंकि वहॉ खाना पीना तथा ठहरना मुफ्त में होता है। मेरे अनुभवों के आधार पर आजकल जेल को ससुराल मानने से बेहतर है कि ससुराल को जेल समान माना जाये। सास ससुर के इस वाक्य में कि ''हमारे दामाद तो हमारे बेटे जैसे हैं’’ के पीछे एक भयंकर षड़यंत्र छुपा होता है। इस ब्रह्यवाक्य का प्रयोग कर वे आपसे घर के अनेक छोटे मोटे कार्य जैसे उनको डॉक्टर को दिखाना उनकी दवा लाना या उनके किसी रिश्तेदारों को रेल या बस में बैठाना इत्यादि करवाते रहते है।
जेल में एक जेलर भी होता है जो न तो कालिया फिल्म के प्राण जैसा होता है न ही कर्मा के दिलीप कुमार जैसा और न ही अंग्रेजों के जमाने के जेलर असरानी जैसा। पहले के जेलरों को बड़ा खूंखार किस्म का माना जाता था किन्तु आज के जेलर कायर भी हो सकते है और शायर भी। ऐसे भी हो सकते है जिनके न मूंछ हो न दाढ़ी और ऐसे भी जिनके बदन पर लिपटी हो साड़ी।
आजकल जेलों में जगह जगह सुधार कार्यक्रम आयोजित किए जाते है। जब हमने एक जेलर से पूछा कि ऐसे कार्यक्रमों से क्या कैदियों में कुछ सुधार होता है तो वे बोले '' आम कैदियों में तो होता है किन्तु ख़ास कैदियों के लिए तो हमें जेल में ही सुधार कराना पड़ता है। अब तो यही डर लगा रहता है कि इन ख़ास कैदियों की सज़ा पूरी करवाने में कहीं हमें ही सज़ा न भुगतनी पड़े।
ईश्वर करे आप को भी जेल जाने का अवसर मिले जिससे मेरे द्वारा उपलब्ध जानकारी का आप लाभ उठा सकें।

दूध है कि मानता नहीं..

पुराने या बुजुर्ग लोगों का यह आदर्श वाक्य है कि हमें दूध पीना चाहिए क्योंकि दूध पीने से मनुष्य में ताकत आती है हालांकि इसी ताकत को बाद में युवा लोग उन्हीं बुजुर्गों से लड़ने झगड़ने के काम में प्रयोग में लाते हैं। यदि किसी विज्ञापन की भाषा में बात करें तो कह सकते हैं '' दूध पियें क्योंकि इसमें जान है।“ लेकिन दूध पीने की प्रकिया मात्र इतनी सी ही नहीं है कि दूध लिया और पी लिया तथा ताकत ग्रहण कर ली इसके लिए बड़ी तपस्या करनी पड़ती है।
यह भी हम सब जानते हैं इस दुनियां में जो नर हैं उन्हें अपने मन को निराश नहीं करना चाहिए तथा कुछ काम करना चाहिए अर्थात विवाह करना चाहिए और जब विवाह होगा तो जाहिर हैं उनकी पत्नी भी आएगी और जब पत्नी आएगी तो वह यदा कदा मायके भी जाएगी जब वह मायके जाएगी तो पति को स्वयं ही खाना या तो बनाना पड़ेगा या बाज़ार में खाना पड़ेगा खाना तो चलो वह बाजाऱ में खा लेगा किन्तु सुबह सुबह उठते ही उसे चाय भी तो चाहिए । वैसे पुरूष चाहे कितना ही कामचोर या अक्खड़ किस्म का क्यों न हो चाय तथा खिचड़ी बनाने का गुण तो उसे जन्मजात से ही मिला हुआ होता है। उसकी सबेरे सबेरे चाय पीने की आदत के कारण ही सुबह हुई नहीं कि सबसे पहले तो दूध वाले का इन्त़जार करो। जो लोग ऐसा करते हैं वे इस कथन को बिलकुल बकवास समझते हैं कि इन्तज़ार का मज़ा ही कुछ और है'। इसमें कोई मज़ा वज़ा नहीं आता जिनको आता है वे शायद दूध नहीं पीते होंगे।
दूध के विषय में भी लोगों में यह भ्रान्ति फैला दी गई है कि उसे आते ही गर्म करके उफान लेने से वह फटता नहीं है मनुष्य का स्वभाव इसके विपरीत है उसमें उफान आते ही वह फट पड़ता है और दूसरों को फाड़ने के लिए आतुर हो जाता है। घर में अकेले होने पर यह सबसे बडा प्रश्न सम्मुख खडा रहता है कि दूध कितना लेना है हालॉकि प्रश्न दिखता तो नहीं है कि वह खड़ा है हो सकता है कि वह बैठा हुआ हो जब दिखता नहीं है तो क्या भरोसा खड़ा है कि बैठा है फिर भी हम मान लेते है कि वह खड़ा है। यदि एक पाव लेते हैं तो कम रहता है आधा लीटर लेते है तो बच जाता है जो प्रतिदिन थोड़ा थोड़ा एकत्रित हो कर बूंद बूंद से घड़ा भरने वाली कहावत को सिद्ध कर देता है परन्तु मेरी समस्या दूध की मात्रा या उसके उपयोग को ले कर नहीं है वरन्‌ उसे उफान लाने के लिए गर्म करने को ले कर है।
आपने दूधवाले से दूध ले लिया और उसे गैस के चूल्हे पर चढ़ा दिया ।अब आप प्रतीक्षा कर रहे है कि दूध में उफान आए तो आपका अनुष्ठान पूरा हो। आपकी स्थिति रेलवे स्टेशन पर खड़े उस यात्री की तरह हो रही है जिसे ट्रेन के आने का इन्तज़ार करना पड़ रहा है पर वह आ नहीं रही है। आपको भी उफान के आने का इन्तज़ार है पर वह भी नहीं आ रहा है । आपके दिमाग में ही उफान आ रहा है। दूध है कि किसी तपस्वी की तरह शान्तचित्त अपनी तपस्या में लीन है । आप उस पर कितना ही खीज क्यों न खाए उस पर कोई असर नहीं पड़ रहा है। इन्तज़ार की घड़ियॉं रिस्ट वॉच से बढ़ कर दीवार घड़ी बनती जा रही है पर दूध है कि मानता ही नहीं। दूध भी सोचता रहता है कि खड़े रहो बेटा लेते रहो इन्तज़ार का मज़ा । इस बीच आपको कोई काम याद आ जाता है या यह विचार मन में आ जाता है कि कहीं बाहर का दरवाजा खुला न रह गया हो देख लिया जाए और आप जल्दी से यह देखने थोड़ी देर के लिए बाहर चले जाते हैं बस सारी गड़बड़ यहीं से शुरू हो जाती है। दूध जैसे ही देखता है कि अब अपुन को देखने वाला कोई नहीं तो वह किसी कैदी की भॉंति चल पड़ता है कारागार की दीवारों की सारी सीमाएं लांघ कर दूसरी दुनिया की सैर करने । आप जब जल्दी से काम निपटा कर वापस आते हैं तब तक मालूम पड़ता है कि चिड़ियॉं तो खेत को चुग ही गईं हैं। आपका गैस का चूल्हा भी दूधो नहाओ हो चुका हैं।
वैज्ञानिकों के सामने भी यह समस्या अवश्य आई होगी क्योंकि उनकी भी शादी हुई होगी उनकी पत्नी भी मायके गई होगी उन्होनें भी दूध उफान लिया होगा और उनके साथ भी ऐसा हादसा हुआ होगा। वे भी लग गए होगे इस समस्या का हल खोजने और इस समस्या का हल उन्होने खोज निकाला भी । कुछ समय पूर्व बाजार में एक ऐसा पात्र प्रचलन में आया जिसकी दो दीवारें होतीं थीं । दोनों दीवारों के बीच एक छेद में से वर्तन में कुछ पानी डाला जाता था तथा उस छेद में एक सीटी फिट कर दी जाती थी। जब दूध गर्म हो जाता था तो बाहरी दीवारों में भरा हुआ पानी भी गर्म हो कर भाप में परिवर्तित हो कर सीटी को बजाता था जिससे मालूम हो जाता था कि दूध गर्म हो गया। उस पात्र की एक विशेषता यह भी थी कि चाहे कितनी भी देर गर्म होता रहे दूध बर्तन से बाहर उफनता नहीं था । कितना आसान तरीका था कि दूध को गैस चूल्हे पर रख कर आराम से पडोसिन से गप्पें लडाओ। अब भले पत्नी महीनों तक मायके में बैठी रहे कोई समस्या नहीं। परन्तु परम्पराएं भी तो कोई चीज़ होती है । आधुनिकता की चकाचौंध के वशीभूत हो कर हम अपने रीति रिवाज़ तो नहीं बदल सकते है । हमारी परम्परा है कि जब तक दूध उन फौजियों की तरह जो धीरे धीरे चुपके चुपके चलते चलते अपने दुश्मन पर एकाएक आक्रमण करके मलाई को बाहर तक न खदेड़ दे और उनकी सीमा में प्रवेश कर अपनी सीमा का उल्लंघन न कर जाए तब तक आनन्द कहां ।
यह क्या बात हुई कि किसी बच्चे की तरह जिसने अपनी कुछ शंकाओं का निवारण कर लिया हो एक जगह पडे पड़े चिल्लाए जा रहे हो और किसी पर उसकी इस चीख पुकार का कोई असर नहीं हो रहा।सब उसको अकेला छोड़कर अपने अपने कार्यों मे व्यस्त हैं। यह वीरों की भूमि है यहॉ चाहे रक्त में हो या दूध में उफान आता देख कर वीर रस से ही लोगों मे उत्साह तथा जोश पैदा होता है न कि शान्त रस से । भला ऐसे दूध पीने से क्या फायदा जिसमें उफान ही न आया हो । नहीं चाहिए हमें ऐसा पात्र जो किसी दूध में उफान तक न ला सके । ऐसा दूध किसी नौजवान को क्या तन्दुरूस्त बनाएगा जिसमें खुद ही उफान न आए । अब हम अपनी पत्नी के ताने भी नहीं सहेंगे कि हमें दूध उफान लेना नहीं आता । अब हम सारे काम छोड़ कर तब तक वहीं खडे़ रहेंगे जब तक दूध में उफान न आ जाए ।हम दूध पियेंगे तो उफान लेकर ही पिएंगे । हम अपनी परम्पराएं नहीं छोड़ सकते ।

किस्म किस्म के कवि

हमारे शहर में कवि सम्मेलनों तथा कवि गोष्ठियों की एक स्वस्थ्य परम्परा है। तीस चालीस कवियों के बीच अपनी तीन चार मिनट की रचना को सुनाने के लिए तीन चार घण्टे बैठ कर अपनी बारी की प्रतीक्षा करना तथा दूसरों की अच्छी बुरी रचनाओं को पचाना एक स्वस्थ्य कवि का ही काम हो सकता है। जब कवि स्वस्थ रहेगा तभी स्वस्थ्य परम्परा का निर्वाह हो पाएगा । इन कवि सम्मेलनों के साथ ही साथ अच्छे अच्छे कवियों को हूट करने की भी पुष्ट परम्परा हमारे शहर में वर्षों से चली आ रही है। देश भर में अपनी रचनाओं के माध्यम से मंच पर छा जाने वाले नामी गिरामी कवि जब हमारे शहर में भी अपनी श्रेष्ठ रचनाओं के बलबूते पर जमने का प्रयास करते है तो यहॉ के श्रोता इनको धूल चटाने को बेकरार बैठे रहते हैं। ये आयोजन अक्सर रात में आयोजित होने के कारण ही संभवतः यह कहावत ईजाद हुई होगी कि द्यजहॉ न पहुंचे रवि वहॉ पहुंचे कवि' परन्तु अब तरीका बदल गया है अब भरी दुपहरी में भी जब रवि हर जगह पहुंच रखता हो कवि भी गोष्ठियों और सम्मेलनों में पहुंच जाते हैं।
मुख्यतः कवि अनेक प्रकार के होते है । पहले वे जो बुजुर्ग कवि हैं और गोष्ठियों में इसलिए आते हैं कि यदि वे न गये तो अध्यक्षता कौन करेगा मुख्य अतिथि का क्या होगा। उनके न जाने से किसी भी ऐरे गैरे को बना दिया जाएगा जिससे साहित्य का स्तर गिरेगा और गोष्ठियों की गरिमा का पतन होगा। साहित्य के संरक्षण के लिए उनका यह योगदान अत्यन्त आवश्यक है। एक लाभ यह भी होता है कि दूसरे दिन समाचार पत्रों में भी आयोजन के समाचार में अन्य कवियों के नाम चाहे प्रकाशित हों या न हों इन लोगों के नाम प्रमुखता से प्रकाशित हो जाते हैं कि अध्यक्षता फलां ने की तथा मुख्य अतिथि फलां फलां थे। वैसे भी इस श्रेणी के कवि अपने काम धाम से सेवा निवृत हो चुके होते है इसलिए यह सोचकर भी आ जाते है कि घर में दिन भर बोर होने से अच्छा है कि कवि गोष्ठियों में ही बोर हुआ और किया जाए। ये पढे लिखे विद्वान तथा समझदार होते हैं राजनीति के क्षेत्र की भॉति नहीं जहॉ बुजुर्ग होने से ही काम चल जाता हो। अध्यक्ष या मुख्य अतिथि बनने वालों के सामने यह मजबूरी रहती है कि उनको अध्यक्षीय उद्बोधन तथा अपनी रचना सुनाने का अवसर गोष्ठी के अंत में ही प्रदान किया जाता है जो उनके लिए कष्टदायक होता है किन्तु वे इसका बदला अपने उद्बोधन तथा अपनी नीरस रचनाओं को सुना कर ले लेते हैं। वे अपनी दो तीन रचनाएं सुनाकर सबसे यह भी पूछते है कि यदि आज्ञा हो तो एक रचना और सुना दूं और सब लोग न चाहते हुए भी आज्ञा दे देते हैं। इन की रचनाओं में दोहे, कुण्डलियां, छन्द, गीत, छप्पय तथा सवैया प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं।
दूसरी श्रेणी के कवि कुछ अधेड़ आयु के होते है। वे प्रारम्भ से ही यह मान कर चलते हैं कि ज़माना बहुत खराब है तथा देश की हालत बहुत पतली है। वे शिवाजी, महाराणा प्रताप, महात्मा गांधी, लक्ष्मी बाई, तथा अन्य महापुरूषों को अपनी रचनाओं के माध्यम से मजबूर करते रहते हैं कि उन्हें इस भारत भूमि पर फिर से जन्म लेना ही पडेगा। वे हमेशा इस बात का रोना रोते रहते हैं कि आजकल कवि सम्मेलनों का स्तर बहुत गिर गया है तथा मंच पर सिर्फ चुटकुलेबाज़ी तथा फूहड़ हास्य रचनाओं का ही बोलबाला हैं किन्तु ऐसे कवि सम्मेलनों के आयोजनों में आमंत्रण मिलने पर कवियों की सबसे पहली पंक्ति में बैठे दिखाई पड़ते हैं।
प्रत्येक कवि सम्मेलनों के प्रारम्भ में मां सरस्वती के चित्र पर माल्यार्पण तथा दीप प्रज्वलन के साथ ही साथ सरस्वती वन्दना सुनाने की भी परम्परा है। ऐसे कवि अपनी रचनाओं के साथ एक सरस्वती वन्दना भी रखते है क्योंकि सरस्वती वन्दना सुनाने वाले को अपनी रचना पढ़ने का दुबारा मौका भी मिलता है अर्थात्‌ अन्य कवियों के अलावा दुगने अवसर प्राप्त होते है । सरस्वती वन्दना को लोग रचना की श्रेणी में नहीं मानते तथा सब के मन में यह धारणा रहती है कि यह तो कोई भी लिख कर सुना सकता है। इन्हें अतुकान्त रचनाओं से परहेज होता है।
तीसरी श्रेणी के कवि कुछ जवान किस्म के होते है तथा जवान दिखने का प्रयास भी करते है। इस तरह के कवि कब कहॉ, क्या कह जायें इसका कोई भरोसा नहीं। मुख्यतः इनकी रचनाओं में ऐसे विषय शामिल होते जिनसे देशभक्ति का रस टपकता हो जिसे वे अपने अभिनय तथा बुलन्द आवाज़ से श्रोताओं के कानों में पिघले हुए शीशे की तरह डालने की कोशिश करते हैं । बहुत से श्रोता इनकी रचनाओं की अपेक्षा इनके अभिनय से प्रभावित हो जाते हैं। जिन रचनाओं में पाकिस्तान, मुसर्रफ, अमेरिका का उल्लेख न हो तो ये लोग उसे कविता की श्रेणी में नहीं गिनते। आज जब हर कोई आतंकवाद तथा सीमा पर दुश्मनों की हरकतों से परेशान दिखाई देता है तथा उसका हल निकालने में लगा है इस श्रेणी के कवि इन समस्याओं को चलते रहने के पक्ष में रहते हैं क्योंकि उनकी रचनाएं इन्ही समस्याओं पर आश्रित रहतीं हैं। इन समस्यों का हल यदि निकल गया तो फिर बहुत से कवि बेकार हो जाएंगे उनका काम तो इन समस्याओं के बने रहने से ही चल पाता है। कभी कभी ये शृंगार रस में भी डूब जाते हैं।
चौथी श्रेणी के कवि अतुकान्त रचनायें लिखने के बहुत शौकीन होते है क्योंकि काफिया या तुकबन्दी मिलाने की या मात्राएं गिनने की झंझट कौन मोल ले और यदि उनको सुनाने के बाद श्रोताओं की प्रशंसा मिले तब तो रचना अच्छी ही समझी जाएगी किन्तु प्रशंसा न भी मिले तो मान लिया जाता हैं कि रचना उच्च स्तर की है जिसे हर कोई समझ नहीं सकता अर्थात दोनों हाथों में लडडू होते हैं। वैसे ऐसी अधिकांश रचनाओं को लिखने वाला ही समझ पाता है पर कुछ लोग न समझते हुए भी समझ जाने की समझदारी दिखाते हैं। पत्र पत्रिकाऐं जिन्हें कोई नहीं पढता में ऐसे कवियों की रचनाऐं खूब प्रकाशित होती रहतीं हैं किन्तु कवि सम्मेलनों में इनकी मांग बहुत कम होती है़।
पॉचवीं श्रेणी के कवि बालकवि होते है । उनके द्वारा पढी जाने वाली रचनाएं उनके पिता या चाचा द्वारा लिखी जातीं है क्योंकि इनकी रचनाओं के जो विषय होते है वे अधिकतर क्षेत्रीय भाषा में पति पत्नी की तक़रार या घरवाली पर केन्द्रित होते हैं जिसका तजुर्बा उनको आगे चल कर होगा । ऐसे बाल कवियों के पिताश्री जो स्वयं अपने आप को कवि समझते हैं कवि सम्मेलनों में बार बार हूट होने के कारण ही अपनी कविता को अपने बच्चों के मुख से लोगों को सुना कर उनसे प्रशंसा पाकर आत्म संतुष्टि प्राप्त कर लेते हैं। इस बात से सभी परिचित रहते हैं कि बाल कवियों द्वारा सुनाई जाने वाली रचना उसके द्वारा लिखी ही नहीं जा सकती फिर भी अन्य कवि उसकी रचना पर इस तरह वाह वाह करते है जैसे उसी ने लिखी हो। इन बाल कवियों हेतु उनके माता पिता अच्छी डिजायन का कुरता पजामा भी सिलवा देते हैं क्योंकि कवियों की रचनाएं भले ही दमदार न हों उनका कुर्ता पजामा दमदार होना चाहिए।
छंटवीं श्रेणी में कवित्रियां आती हैं । इनकी रचनाओं में ससुराल पक्ष के सदस्यों का वर्णन प्रचुर मा्रत्रा में पाया जाता है। बलमा, सजना, सासु, ननद, भौजाई, मां, बहनों तथा गहनों के उल्लेख के अलावा इनकी अपने पति से हमेशा शिकायत रहती है कि वे उसे मेले में नहीं ले जाते । किसी अन्य विषय पर इनके द्वारा रचना पाठ करने पर सब उन्हें शक की निगाह से देखते हैं कि यह रचना किसी और कवि ने उनको लिखकर दी है जिसे वे अपने नाम से सुना रहीं हैं। मंच पर इनकी उपस्थिति एक रोमांच पैदा करती है तथा सम्मेलन या गोष्ठियों के संचालकों को उनसे चुहलबाजी करने का मौका मिल जाता है।
इस तरह हमारे शहर में विभिन्न श्रेणियों के हजारों कवि और कवियत्रियां हैं । सभी कवि स्वयं को बहुत उच्च स्तर का तथा दूसरे कवियों को निम्न स्तर का समझते हैं इसलिए मौका पाते ही दूसरों की बुराई करने से भी नहीं चूकते हैं। विभिन्न मेलों के समय का मौसम इनकी संख्या में वृद्धि के लिए अत्यन्त अनुकूल होता है। उस समय तो यदि आप ऑंख बन्द करके किसी भी दिशा में कोई पत्थर उछालें तो वह जिसको भी लगेगा वह कोई कवि ही होगा।

गुस्से में है भैंस

भैंस बहुत गुस्से में है। उसका गुस्सा अपनी जगह ठीक भी है़। उसकी नाराजगी गाय को मॉं का दर्जा प्रदान किए जाने के कारण है। गाय को हम माता के समान मानते हैं यही बात प्रत्येक मां अपने बच्चों को भी बतलाती है । इसके पीछे संभवतः यही तर्क है कि जिस प्रकार अपनी मां के दूध को पीकर हर बच्चा ह्ष्ट पुष्ट तथा बड़ा होता है गाय का दूध भी यही कार्य करता है। दूध का रंग सफेद होता है तथा उसकी यह विशेषता होती है कि यदि उसमें पानी मिला दिया जाए तो वह भी दूध बन जाता है। कुछ फिल्म वाले भी अपने गीतों में दूध वितरकों को पानी के रंग के बारे में भी यही सलाह देते रहते हैं कि उसे जिस में मिला दो लगे उस जैसा।
गाय के दूध की विशेषता यह भी है कि उससे दही, पनीर, घी, छाछ, रबडी इत्यादि अनेक चीजों का निर्माण होता है साथ ही गौमूत्र को भी अनेक रोगों की चिकित्सा में लाभकारी बताया गया है जिसके उपयोग की सलाह सब दूसरों को तो देते रहते है पर स्वयं उपयोग नहीं करते है पर भैंस नाराज़ है उसका कहना है कि उसके दूध से भी वही सब बनता है जो गाय के दूध से बनता है फिर क्या बात है कि गाय को तो मां का सम्मान प्राप्त है और उसे कुछ भी नहीं ।
भैंस का कहना है कि अनेक घरों में आज भी खाना बनाते समय सबसे पहले सिर्फ गाय के लिए ही एक रोटी बनाने की परंपरा है जिसे वे लोग अपने घर में बची खुची जूठन तथा फलों और सब्जियों के छिलकों के साथ उसे परोस देते है पर भैंस के लिए कोई कुछ नहीं बनाता। इसी प्रकार धार्मिक कार्यों में भी सबसे पहले गऊ ग्रास को ही महत्व दिया जाता हैं भैंस ग्रास नाम की कोई भी चीज़ नहीं बनाई है। कुछ लोग गाय को एक दो रूपयों का चारा डाल कर अपना परलोक सुधारने में भी लगे रहते हैं इसलिए उनको पुण्य का भागीदार बनाने के लिए बहुत सी चारे वालियां सड़क के किनारे डेरा जमाए रहतीं हैं यह बात और है कि यदि कोई गाय माता उनके चारे के ढ़ेर में गलती से मुंह मार कर चारे वालियों को भी पुण्य कमाने का अवसर प्रदान कराना चाहे तो उसे स्वयं पाप का भागीदार बनना पड़ता है जिसकी परिणिति दो चार डण्डे खाने के बाद ही होती है पर भैंस को कोई चारा नहीं डालता इसलिए उसके पास गुस्सा करने के अलावा और कोई चारा भी नहीं है ।
शास्त्रों के अनुसार गाय की पूंछ पकड़ कर ही वैतरणी पार की जाती है तथा बैकुण्ठ प्राप्त होता है किन्तु सड़कों के किनारे पुण्य कमाने की दुकानों के कारण अनेक लोग भी सड़क पर ही साष्टांग प्रणाम करते हुए बैकुण्ठ पहुंच जाते है । संभवतः गाय को इसीलिए मां का दर्जा दिया गया है।
भैंस इस बात पर भी गुस्से का इज़हार करती है कि उसका उपयोग हिन्दी कहावतों तथा मुहावरों में करके उसे बदनाम करने की साजिश रची गई है जैसे “भैंस के आगे बीन बजाना' में उसे ऐसा माना गया है जैसे बह बहरी हो तथा संगीत से नफरत करती हो जबकि यदा कदा वह भी अपने मुख से अनेक कठिन ताने निकालती रहती है। यदि बीन बजानी ही हो तो सांप के आगे बजाओ भैंस के आगे बजाने की क्या आवश्यकता है। “काला अक्षर भैंस बराबर' में उसे अनपढ़ तथा मूर्ख समझा गया है जबकि सभी ग्रन्थ पुस्तकें समाचार पत्र काले अक्षरों में ही प्रकाशित होते है क्या वे सभी उसके बराबर हैं। इसी तरह “अक्ल बड़ी या भैंस' में अक्ल को सब उससे बड़ा समझते है । जरा सोचिए कि अक्ल भैंस से बड़ी कैसे हो सकती है । क्या अक्ल जो छोटे से दिमाग में रहती है के अन्दर भैंस समा सकती है परन्तु भैंस के अन्दर थोड़ी बहुत तो अक्ल होती ही है । इसी तरह “गई भैंस पानी में' यदि पानी में चली गई तो क्या जुल्म हो गया पानी में जाकर जब वह बाहर आएगी तो साफ सुथरी ही तो रहेगी गन्दी तो नहीं। 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' में उसे ताकतवर का पक्षधर तथा लड़ाई झगड़ों की जड़ समझा गया है और तो और स्कूलों में निबंध भी गाय पर लिखने के लिए दिए जाते है भैंस पर कोई लिखने के लिए नहीं कहता।
फिल्म निर्माताओं ने भी उसकी उपेक्षा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। उन्होने भी गाय , हाथी , कुत्ते , बैलों , शेर , बन्दर , आदि जानवरों पर महत्वपूर्ण फिल्में बनाईं हैं पर उस पर ध्यान नहीं दिया गया । एक फिल्मी गीत में एक बात अवश्य उस के पक्ष में फिल्म के हीरो ने उठाई है कि उसकी भैंस को डण्डा क्यूं मारा जबकि उसका कुसूर सिर्फ इतना ही था कि वह खेत में चारा चर रही थी किसी के बाप का कुछ नहीं कर रही थी जबकि बहुत से लोग तो पूरे का पूरा खेत ही चर जाते हैं । उसे शिकायत है कि उसके प्रति रंगभेद नीति अपनाई जा रही है जो सरासर गलत है । जगह जगह गौ रक्षा समितियों का गठन हुआ है तथा समय समय पर गौ रक्षा आन्दोलन भी चलाए जाते रहे हैं परन्तु भैंस रक्षा समितियां या भैंस रक्षा आन्दोलन कहीं भी किसी ने भी नहीं चलाया ।
किसी सुन्दर तथा सुशील महिला के लिए भी उसकी प्रशंसा करने के लिए भी उसकी तुलना गाय से ही की जाती है जैसे द्यवह तो पूरी गऊ है' किन्तु किसी के दुर्गुणों या अपमान करने के लिए बस इतना ही कहना काफी होता है कि “वह तो पूरी भैंस है'।
उसे इस बात पर भी एतराज है कि देवताओं ने भी उसके साथ पक्षपात किया है। अधिकांश देवताओं ने दूसरे जानवरों को अपना वाहन बनाया है जिनमें गाय, बैल, गरूड़, तथा मोर और यहाँ तक कि चूहा और उल्लू तक शामिल हैं किन्तु भैंस के वंशजों को मृत्यु के देवता यमराज को सौंप दिया है।
अपनी मांग को मनवाने के लिए वह आज के चलन के अनुसार अपने परिवार के सदस्यों के साथ यदा कदा सड़कों के बीच में बैठकर तथा चक्का जाम करने का हथकण्डा भी अपनाती रहती है परन्तु प्रशासन उसे वहां से खदेड़ देता हैं । उसकी मांग है कि यदि उसे मां के समान न समझा जाए तो कम से कम यह तो कहा जाए कि गाय हमारी माता है और भैंस हमारी मौसी है।

होता जो हनीमून नेपाल में..

हनीमून से मेरा परिचय उस समय ही हो गया था जब मेरी उम्र लगभग तीन या चार वर्ष की रही होगी. बात यूं हुई कि मेरे चाचा जी की शादी हुई थी और वे हनीमून के लिये कश्मीर जा रहे थे. उन दिनों कश्मीर हनीमून मनाने तथा फिल्मों की शूटिंग के काम आता था, आजकल आतंकवादियों की शूटिंग के काम आता है. हाँऽ तो मैं कह रहा था कि चाचा जी को कश्मीर जाते देख मैं भी जद पर अड़ गया कि मैं भी हनीमून पर जाऊंगा. मेरी मां ने मुझे समझाया कि बेटा ! अच्छे बच्चे हनीमून पर नहीं जाया करते. तब मेरे पिताजी मुझे बहलाने के लिए हनुमान जी के मन्दिर ले गये, हनुमान जी को भी हनीमून से परहेज था यह बात और थी कि उनके परम भक्त तथा उस मन्दिर के पुजारी और उनके बीच इस मामले में गहरे मतभेद थे और यह सब उन महिला भक्तिनों के कारण था जो उस मन्दिर में हनुमान जी के दर्शन करने आती थीं. जितनी देर वे हनुमान जी के दर्शन करतीं पुजारी जी उनके दर्शन कर लिया करते थे.
मैं कल्पना कर रहा हूं कि मैं भी हनीमून मनाने के लिए कश्मीर गया हूं. वहाँ आतंकवादियों ने मेरा अपहरण कर लिया है. आतंकवादी मुझे यातना दे रहे है . साला हिन्दोस्तानी , हमारे कश्मीर को हनीमून का अड्डा समझ रखा है ‘ जो देखो चला आ रहा है यहाँ हनीमून मनाने. तुम सब इसे नापाक बनाने पर तुले हो और हम इसे पाक बनाना चाहते हैं . लो हो गया हनीमून. कश्मीर में आतंकवाद का शायद एक कारण यह भी हो सकता है कि सब वहाँ हनीमून मनाने पहुंच जाते थे.
मैं सोचता हूं यदि मेरा हनीमून नेपाल में होता तो कैसा होता. जब लोग भारत तथा नेपाल में दो दो जगहों पर मना सकते हैं तो मैं क्यूं नहीं. सुना है नेपाल एक हिन्दू राष्ट्र है, चलो इससे कम से कम उन लोगों को तो जो भारत को भी हिन्दू राष्ट्र बनाने का सपना देख रहे हैं यह जान कर संतोष होगा कि अपने देश का एक नवयुवक पाश्चात्य देशों का मोह त्याग कर एक हिन्दू राष्ट्र में अपना हनीमून मना रहा है. एक सच्चे हिन्दू की यही पहचान है कि वह महत्वपूर्ण काम के क्षणों में भी अपने हिन्दुत्व को न भूले.
आप सब सोच रहे होंगे कि जिस प्रकार किसी घटना के घटते ही कुछ कवि अथवा लेखक उस पर कविता या लेख लिखने बैठ जाते है यह शख्स अभी तक उस भारतीय विमान अपहरण काण्ड पर क्यूं नहीं आ रहा है जिसे अपहरण करके नेपाल से कांधार ले जाया गया था. साथियों ! मामला वाकई बहुत गम्भीर था आखिर सवाल नेपाल से हनीमून मना कर वापस लौट रहे अपने देश के बेटे बहुओं की सुरक्षा का था जो विदेश की भूमि पर बंधक थे. हमारी उस समय सरकार भी बहुत चिंतित थी. सरकार अक्सर बहुओं के मामले में चिंतित हो जाया करती थी चाहे फिर वो विदेश की भूमि पर स्वदेशी बहू हो या स्वदेश की भूमि पर विदेशी बहू. चलिये अच्छा हुआ मामला रफा दफा हो गया . आतंकवादियों ने ३ के बदले १५६ को छोड़ दिया था हमारी सरकार ने तो २७६ सदस्यों के लिए ३७० को छोड़ दिया था.
वैसे हम जैसे मध्यमवर्गीय परिवार के लोग तो हवाई यात्रा से कहीं भी हनीमून पर जाने की सोच भी नहीं सकते आखिर सबकी बेटियों के बाप इतने सक्षम भी नहीं होते कि विवाह में दहेज के साथ वे हवाई जहाज का टिकट भी दे सकें. देखा जाए तो विमान अपहरण तथा विवाह में कोई विशेष अंतर नहीं है फर्क बस इतना है कि एक में नियंत्रण में लेने के बाद मांग की जाती है और दूसरे में मांग पूरी हो जाने के बाद नियंत्रण में लेते हैं.
मेरे एक मित्र ने सलाह दी कि तुम नेपाल रेल या कार से चले जाओ परन्तु उसमें भी एक समस्या थी कि रास्ते में कुछ भी हो सकता है. मेरे एक अन्य बुद्धिजीवी मित्र बोले कि तुम्हें हनीमून के लिए नेपाल जाने की क्या आवश्यकता है . समाज के कुछ ठेकेदारों ने तो अपने देश में ही हर जगह ऐसी व्यवस्था कर रखी है जहाँ कन्यायें आपको हनीमून के लिए आमंत्रण देतीं रहती हैं यहाँ तो हर शहर गॉव बस्ती में नेपाल बसा है . जब जी चाहे, जहाँ जी चाहे, मना लो हनीमून .

जीवन दो दिन का

कुछ दिनों से लोग मुझे कुछ सिरफिरा समझने लगे है। सबको शिकायत है कि शहर में एक नामी संत के प्रवचन का आयोजन चल रहा है और मैं अपने घर पर ही पड़ा रहता हूँ। अधर्मी व्यक्तियों के लिए जितने भी विशेषण हो सकते है उन सभी से वे मुझे सम्मानित कर चुके है। एक दिन मैंने भी तय कर ही लिया कि जब पूरे शहर के कुछ पुरुष एवं बहुत-सी महिलाएँ वहाँ जाते हैं तो मैं भी अपनी जन्मपत्री में ठोकर मार ही दूँ। जितना बड़ा पंडाल एवं धन उस प्रवचन के आयोजन के लिए लगाया गया था उसके अन्दर तो सैंकड़ों गरीब एवं मध्यमवर्गी जोड़ों के सामूहिक विवाह का आयोजन सम्पन्न हो सकता था। संत जी जन समुदाय को जो बातें बता रहे थे सभी लोग उन बातों को अनेक बार सुन चुके थे तथा सब कुछ जानते हुए भी इस तरह सुनने में व्यस्त थे जैसे पहली बार ही सुन रहे हो। उन्होंने एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण रहस्योद्घाटन किया कि ये जीवन दो दिन का है। मैंने अपने पास में बैठे एक सज्जन से पूछा, ''भाई साहब क्या जीवन वास्तव में दो दिन का ही है?''वे बोले, ''हाँ जब ये कह रहे हैं तो दो दिन का ही होगा।''मैंने पूछा, ''इनका ये कार्यक्रम कितने दिन और चलेगा?''वे बोले, ''सात दिन।'' ''पर जीवन तो दो ही दिन का है, बाकी पाँच दिन का क्या होगा?''वे बोले, ''दो दिन का मतलब दो दिन नहीं होता ज़्यादा होता है।''मैंने पूछा, ''कितना होता है?'' वे बोले, ''इसका किसी को पता नहीं वो तो कहने के लिए दो दिन का होता है मानने के लिए नहीं।''''जब इनकी बाते सिर्फ़ कहने के लिए ही हैं मानने के लिए नहीं तो फिर सुनने से क्या लाभ?''''हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश तो ज़िन्दगी में लगा ही रहता है। यहाँ तो सब सुनने के लिए ही आते हैं यदि उन बातों पर अमल करेंगे फिर तो सभी संत नहीं हो जाएँगे।''मुझे उनकी बातें संत की बातों से अधिक प्रभावशाली लग रहीं थीं।मैंने उनका पीछा नहीं छोड़ा, ''पर एक और दूसरे संत हैं वो तो कहते हैं कि दो दिन का तो जग में मेला होता है और चार दिन की जवानी होती है।''''वो ग़लत कह रहे हैं। कहने वाले तो जीवन और मेले को भी चार दिनों का भी कह सकते हैं और दस दिन का भी। खुद हमारे शहर में मेला पन्द्रह दिन का होता है। कई लोग तो चाँदनी भी चार दिन की बताते हैं पर होती कहाँ है। अभी इस संत का प्रवचन चल रहा है तो जीवन दो दिन का ही मानना पड़ेगा दूसरे संत का चलेगा तो वे जितने दिन का कहेंगे उतने दिन का मान लेंगे।''''दूसरे संत दो दिन का मेला क्यों बताते हैं?'' मैंने फिर पूछा।''ये दूसरे संत जो दो दिन का मेला बता रहे हैं क्या इन संत से बड़े हैं।'' ''अब संत तो संत ही होता है उसमें क्या बड़ा और क्या छोटा।'' ''वाह ऐसे कैसे बड़ा छोटा नहीं होता है। क्या उनके लंबी-लंबी दाढ़ी है? क्या वे सिर्फ़ धोती ही पहनते हैं और नंगे बदन रहते हैं? क्या बहुत-सी साध्वियाँ उनके साथ-साथ चलती है? क्या वे हवाई जहाज़ से यात्रा करते हैं? क्या उनके फ़ोटो महलों से शौचालयों तक लगे रहते हैं? क्या बड़े-बड़े नेता भी उनसे आशीर्वाद लेने आते हैं? क्या उनके बड़े-बड़े आश्रम हैं? यदि ये सब विशेषताएँ उनमे हैं तभी वे बडे संत कहलाएँगे।''''नहीं वे दूसरे संत तो साधारण कपड़े ही पहनते है लेकिन है बहुत ज्ञानी।''''काहे के ज्ञानी। संत होने के लिए तो गैटअप भी तो संत जैसा होना चाहिए नहीं तो कौन उनको संत मानेगा। खाली ज्ञान या विद्वान होने से ही कोई संत थोड़े ही हो जाएगा।''''लेकिन हम ग़लत बात क्यों मानें कि जीवन दो दिन का है?''''नहीं मानोगे तो उनके भक्त तुम्हारे घर में तोड़-फोड़ कर देंगे और यदि उनको ज़्यादा गुस्सा आ गया तो तुम्हारी हत्या भी कर सकते है। संतों की बातों का अनुसरण उनके अनुयायियों के लिए करना आवश्यक नहीं है फिर तुम्हें पता चल जाएगा कि तुम्हारा जीवन भी दो ही दिनों का था। उनके सामने बड़े-बड़े सूरमा भी कुछ नहीं कर सकते। मैं ही कौन-सा उनकी बात मान रहा हूँ। मेरा तो जीवन हर माह की पहली तारीख को शुरू होता है तथा छह सात दिन चलता है उसके बाद तो मरण ही मरण है। कई लोगों का पन्द्रह दिन का हो जाता है। राज नेताओं का चुनाव नतीजे आने के बाद शुरू होता है तथा उनका जीवन जीवनभर या कई-कई पीढ़ियों तक चलता है।
मैंने एक दूसरे सज्जन से जो उन संत का प्रवचन कम और इधर उधर अधिक देख रहे थे से भी पूछ ही लिया कि क्या उनका जीवन भी दो दिन का ही है।वे बोले, ''मेरा जीवन तो इन जैसे संत महात्माओं के प्रवचन के इन कार्यक्रमों के चलते रहने से ही चलता है इस आयोजन में टेन्ट तथा दरी गद्दों का ठेका मेरे ही पास है अब चाहे वो दो दिन का बताएँ या दस दिन का। जीवन जितने अधिक दिनों का बताएँगे मेरे लिए तो उतना ही अच्छा है। तुम्हें यदि दो दिन का कम लगता है तो तुम चार दिन का मान लो। तुमने क्या सुना नहीं कि 'उम्रे दराज माँग के लाए थे चार दिन दो आरजू में कट गए दो इंतज़ार में'। इससे तो यही जाहिर होता है कि जीवन दो दिन का हो न हो चार दिन का तो होता ही होगा। बहादुर शाह ज़फ़र की आत्मा उनके शरीर में प्रवेश करके बाहर निकल गई थी।''परन्तु कुछ मापदंड तो हो कि जीवन दो या चार दिन का किस हिसाब से है।''वे बोले, ''मान लीजिए मनुष्य की आयु १०० वर्ष है तो फारमूला यह है कि मनुष्य की आयु को दो से या चार से भाग दीजिए फिर जो भागफल आए उतने वर्ष को एक दिन के बराबर मान लेना चाहिए। वैसे यहाँ प्रवचन सुनने कुछ ऐसे भी है लोग आए हुए है जिनको अपना जीवन पारिवारिक कलह, ज़मीन जायदाद के झगड़ों, शारीरिक कष्ट, संतान के भविष्य की चिन्ता, बेटे बहुओं के दुराचरण तथा अनेक कठिनाइयों से एक दिन का भी भारी लग रहा है। संत के प्रवचन में जीवन को दो दिन का सुन कर कम से कम वे कुछ समय के लिए संभवत: यह सोचकर खुश तो हो लेते होगे कि चलो अब वो दो दिन करीब ही होंगे जब उनके कष्टों का अन्त होने वाला होगा।
मैं यह सोच कर घर वापस आ गया कि जब जीवन के बारे में ही अलग-अलग मत हैं तो अपना जीवन किसी अच्छे काम में ही क्यों न लगाऊँ क्यों कि मेरे हिसाब से तो जीवन का कोई भरोसा नही कि वह कितने दिन का हो।