रविवार, 29 मार्च 2009

प्रशंसा करवाने का नुस्खा

राम सेवक जी बहुत मक्कार किस्म के व्यक्ति हैं। इतने वाहियात कि उनके नाम के साथ जी लगाने में भी सोचना पडता था। संसार में जितनी तरह की गालियाँ विद्यमान हैं विभिन्न लोग उनको उनके लिए प्रयोग में ला चुके थे।सब लोग उन्हें उन गालियों से इस प्रकार विभूषित करते थे जिस प्रकार किसी साहित्यकार को 'साहित्य श्री' किसी गायक गायिका को 'स्वर सम्राट' या 'स्वर कोकिला' की उपाधि दी जाती है। उनकी कुटिलता बेईमानी और तिकड़मबाज़ी का क्षेत्र बहुत व्यापक था। जो भी उनके बारे में कुछ कहता उनके नाम के पहले उनकी माँ तथा बहन को ज़रूर याद कर लेता था। वे भी इस उधेडबुन में रहते थे कि ऐसा क्या किया जाए जिससे लोग उनको याद करें या उनकी प्रशंसा करें। कुछ दिनों से उनकी हरकतें कुछ कम हो गईं थी। वे दिखते भी कम थे। कुछ लोगों ने बताया कि इन दिनों वे घर में बैठे-बैठे कुछ लिखते रहते है।
एक दो महिनों बाद डाक से एक निमंत्रण पत्र प्राप्त हुआ। यह राम सेवक जी की ओर से था लिखा था कि उनके प्रथम काव्य संग्रह ' कुत्ते की टेढ़ी पूँछ हूँ मैं' का विमोचन समारोह अमुक तिथि को होगा। अध्यक्षता उस शहर के एक प्रमुख साहित्यकार जिनका जन्म लगता था अध्यक्ष बनने के लिए ही हुआ था¸ करेंगे तथा मुख्य अतिथि¸ पत्र वाचक¸ विशिष्ठ अतिथि¸ अति विशिष्ठ अतिथि¸ संयोजन आदि के खाते में भी बहुत से प्रसिद्ध तथा महत्वपूर्ण लोगों के नाम थे। अन्त में सहभोज में सम्मिलित होने का भी आग्रह था । सभी को आश्चर्य हो रहा था कि यह आदमी कवि कब से हो गया और कवि होना तो दूर उसका काव्य संग्रह भी प्रकाशित हो गया जबकि बडे़-बडे़ साहित्यकार ज़िन्दगी भर साहित्यकार तो बने रहते है किन्तु उनकी रचनाओं की पुस्तक प्रकाशित नहीं हो पाती या कई लोगों की पुस्तकें तो ख़ूब प्रकाशित हो जाती हैं परन्तु वे साहित्यकार नहीं होते। मैं भी एक ऐसे आदमी को भी जानता हूँ जिसकी 12 पुस्तकें प्रकाशित हो गई है लेकिन लगता है कि उन की रचनाओं को उनके अलावा सिर्फ़ प्रेस के कम्पोजीटर या प्रूफ रीडर ने ही पढ़ा होगा। आज भी उनको कोई¸ साहित्यकार नहीं मानता सब उनके बारे में यही कहते है 'अच्छा वो हेड मास्साब'। वे एक महत्वपूर्ण सरकारी पद से सेवानिवृत हुए थे अत: उनको पेन्शन अच्छी मिलती थी जिसका उपयोग वे अपनी घटिया रचनाओं की पुस्तक छपाने में किया करते थे। सबने राम सेवक जी के बारे में सोचा कि आदमी चाहे कितना भी बुरा क्यों न हो कम-से-कम उसमें एक अच्छाई तो है कि वह साहित्य में अपना योगदान दे रहा है तथा साहित्यकारों को भोजन करवा रहा है।
निश्चित तिथि एवं समय पर मैं कार्यक्रम स्थल पहुँच गया। एक भव्य पंडाल सजाया गया था जिसमें लगभग 500 कुर्सियाँ तथा मंच पर विशिष्ट अतिथियों के बैठने की व्यवस्था की गई थी। पंडाल काफ़ी ख़ाली था । इक्के दुक्के लोग ही बैठे हुए थे। लोग एक एक करके एकत्र हो रहे थे। अधिकांश लोगों को मालूम था कि सहभोज तो कार्यक्रम शुरू होने के दो घण्टे बाद ही होगा । लोग आने के बाद रामसेवक जी को बधाई प्रेषित कर रहे थे। कुछ देर में सभी अतिथि गण भी आ गए। स्वागत तथा दीप जलाने की रस्म के बाद पुस्तक के विमोचन का कार्यक्रम हुआ। रंगीन कागज़ में लिपटी पुस्तकों को पैकिंग वाले ने इस क़दर टेप लगा कर पैक किया था कि उसे खोलने में मुख्य अतिथि महोदय को भारी मसक्कत करनी पड़ रही थी। पुस्तकें थीं कि बाहर आने का नाम ही नहीं ले रहीं थीं अन्त में एक कैंची की मदद लेनी पडी तब कही जा कर 'कुत्ते की टेढ़ी पूँछ' बाहर निकली रामसेवक जी ने अपने संकलन से कुछ रचनाओं का पाठ किया। उन्होंने बताया कि उनका यह संकलन जीवन में भोगे हुए अनुभवों का दर्पण है । उनकी पहली रचना थी :
' मेरे घर चाय पीने के जितने भी प्याले है
सब के हत्थे टूट चुके है।
अब वो प्याले नहीं कुल्हड़ लगते हैं
मैं अब भी उनमें चाय पीता हूँ
मतलब आम खाने से है या पेड़ गिनने से
चाय का स्वाद तो बदलेगा नहीं
चाहे प्याला हो या कुल्हड़'।
उनकी दूसरी रचना थी :
मेरी पत्नी मुझे एक रोटी देती है
कहती है गाय को खिला दो
बाहर जा कर वह रोटी में
कुत्ते को खिला देता हूँ या
ख़ुद खा जाता हूँ।
जो रोटी गाय माता खा सकती है
वह मैं क्यों नहीं ? कुत्ता क्यों नहीं ?
क्या उस रोटी पर गाय का नाम लिखा है ?
उनकी इस रचना पर एक विशेष समुदाय के लोगों ने ख़ूब तालियाँ बजाईं क्योंकि इसमें गाय¸ माता¸ तथा रोटी का ज़िक्र था। लोग उनकी रचनाएँ सुन रहे थे वाह-वाह भी कर रहे थे किन्तु सबका ध्यान पीछे बन रहे पकवानों की आ रही सुगन्ध की ओर था। कान के ऊपर नाक हाबी हो रही थी। राम सेवक जी ने तीसरी रचना पढ़ी :
संध्या ढलते ही जब सूरज छुप जाता है
पहाडों की ओट में
गहराने लगता है अंधकार
कितना उपयोगी होता है
छत पर पडा हुआ बाँस।
मैं फँसाकर उसमें घर की बिजली के
तारों के आँकडे़
डाल देता हूँ बिजली के उन तारों पर
गुज़रते हैं जो घर के क़रीब से
हो जाता है फिर से उजाला
ऐसा लगता है
मानों सूरज फिर से वापस लौट आया हो।
संकलन की समीक्षात्मक टिप्पणी करते हुए प्रथम वक्ता ने कहा कि रामसेवक जी की रचनाओं मे कवि ने जिस स्पष्टवादिता तथा जीवन के अनुभवों का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत किया है वो हम सब के लिए एक अनुकरणीय है। कवि जीवन में किए गए किसी भी कर्म को हेय दृष्टि से नहीं देखता हैं तथा उसे स्वाभिमानपूर्वक सबके सम्मुख उजागर भी करता है जो रचनाकार को एक विशिष्ट स्थान पर प्रतिपादित करता है। अपनी रचना गाय को रोटी मे कवि मन किसी अंधविश्वास का सहारा न लेकर गाय¸ कुत्ते तथा स्वयं में भी कोई भेद नहीं देखता है तथा इस रचना में उसका पशुओं के प्रति एक सकारात्मक मित्रतापूर्ण तथा भ्रातत्वपूर्ण नज़रिया दृष्टि गोचर होता है। इसी प्रकार उनकी रचना सूरज तथा बिजली के तारों के आँकडे में कवि ने देश की उन समस्याओं की ओर इशारा किया है जिनसे आज ग़रीब तथा भोली जनता त्रस्त है तथा उसे जीवन यापन के लिए अनुचित तरीकों का उपयोग करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। अप्रत्यक्ष रूप से यह उन राजनीतिज्ञों की कारगुज़ारी की ओर भी संकेत करता है जो देश की भोलीभाली जनता को ग़रीबी हटाओ जैसे झूठे आश्वासन देते हैं तथा उन्हें पूरा नहीं करते। उनकी रचना 'चाय तो चाय ही है' में वे आज के समाज में फैल रहे झूठे दिखावे तथा भौतिकवादी ताक़तों के विरूद्ध एक संघर्ष छेडते नज़र आते है। उनकी एक एक रचना समाज में एक नई क्रान्ति का सूत्रपात करने में सक्षम है।
दूसरे वक्ता ने भी उनके इस काव्य संग्रह की तिल जैसी रचनाओ को ताड़ बनाने में कोई क़सर नहीं छोडी। उन्होनें कहा कि रामसेवक जी को अपनी कविता के विषय खोजने के लिए कहीं इधर-उधर नहीं भटकना पडा वरन् इन्होनें स्वयं तथा अपने घर को ही अपनी काव्य-कला का आधार बनाया है जो इनके स्वाभिमान तथा इनकी दूसरों के घरों में ताक-झाँक न करने की आदत का द्योतक हैं।
इसी क्रम में मुख्य अतिथि¸ विशिष्ट अतिथि¸ अति विशिष्ट अतिथि¸ ने भी अपने सम्बोधन मे राम सेवक जी के साथ गुज़ारे अपने पुराने समय को याद किया क्योंकि वे राजनीति से जुडे हुए लोग थे जिन्हे कविता से कुछ भी लेना-देना नहीं था। वे तो केवल सहभोज के लिए आए थे। मुख्य अतिथि ने अवश्य यह कहा कि जव हम पाँचवी कक्षा में पढते थे राम सेवक ने उस समय भी एक कविता बनाई थी। हुआ यूँ कि इसने हमारे मास्साब की कुर्सी पर काली स्याही डाल दी थी¸ मास्साब का रंग भी काला था तब उसने कहा था :
'आगे से भी काले हैं पीछे से भी काले हैं
इन्हे देखकर लगता है ये कुम्भकरण के साले है'।
अर्थात् यह कहने में अतिशियोक्ति नहीं होगी कि इनमें काव्य कला का बीजारोपण इनके बाल्यकाल से ही हो गया था तथा इनकी यथार्थवाद की रचनाएँ इनको महाकवि निराला के समकक्ष खडा करतीं हैं। मुख्य अतिथि की इस बात पर सब लोग मुँह दबा कर तथा उन्हें मन-ही-मन गालियाँ देते हुए हँस रहे थे।
मुख्य अतिथि के बाद अध्यक्ष महोदय की बारी थी किन्तु कार्यक्रम बहुत अधिक लम्बा खिंच जाने के कारण सब लोग आपस में बातें करने लगे थे अध्यक्ष की बात कोई नहीं सुन रहा था। अध्यक्ष महोदय रामसेवक जी की तारीफ़ कम अपनी ज़्यादा कर रहे थे उन्हें इस बात से कोई लेना देना नहीं था कि लोग सुन रहे हैं या नहीं वे तो जितना बोलना चाहते थे बोले जा रहे थे। लोगों की धैर्य की सीमा टूट रही थी। खाना बनाने वाले भी 3 घन्टे से फ़िजूल की बकबास सुनते सुनते ऊब चुके थे। उनमें से एक आदमी ने झट से टाट पट्टियाँ बिछा कर पत्तले बिछाना प्रारम्भ कर दिया। पत्तले बिछी देखकर लोग उठ-उठ कर पत्तलों के आगे बैठने लगे थे। अध्यक्ष जी का भाषण अभी चल ही रहा था। अब नाक और कान पर मुँह और पेट भारी पड़ने लगा था। मजबूरन अध्यक्ष जी को अपना भाषण समाप्त करना पडा।
सह-भोज के बाद सब लोग अपने पेट पर हाथ फेरते हुए राम सेवक जी की प्रशंसा तथा उन्हें बधाई दे रहे थे । सब को सामूहिक रूप से अपनी प्रशंसा करवाने का गुर प्राप्त हो गया था ।

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