मंगलवार, 19 जुलाई 2011

पिया तू अब तो आजा..

ऐसा देखा गया है कि ये जो पिया नामक एक प्राणी होता है बडा बेदर्दी होता है । अक्सर बरसात का मौसम आने के कुछ दिनोँ या महिनोँ पूर्व ही यह अपने घर से किसी दूसरे शहर मेँ या परदेस चला जाता है और बाद मेँ गृहणियाँ कहतीँ रहतीँ हैँ कि ‘अजहुँ न आए बालमवा सावन बीतो जाए । वे कई गवैयोँ के पास भी जाती हैँ और् उनसे आग्रह् करतीँ हैँ कि तुम भी अपने गाने के माध्यम से पिया को सावन के महिनेँ मेँ घर वापस आने के लिये प्रेरित करोँ । गवैये भी अपनी ओर से कोई कोर कसर नहीँ छोडते है तथा याद पिया की आये, आये न बालम, मोहे भूल गये साँवरियाँ, या पिया बिन पिया बिना बसियाँ बाजे ना बाजे ना आदि गाकर पिया को बरगलाने की कोशिश करते रहते हैँ जैसे पिया कोई तबला वादक हो जिसके बिना बसिया नहीँ बज पायेगी । कुछ तो सावन के महिने को ही दोष देने लग जातीँ हैँ कि ‘बरसत गरजत सावन आओ है पर लायो न सँग मेँ हमरे बिछुडे बलमवा’ जैसे सावन का काम पानी बरसाने के साथ ही साथ यह भी रह गया हो कि वह अपने सँग मेँ परदेस मेँ बसे या बिछुडे पियाओँ को भी घर वापस लाए । सावन है या पुलिस विभाग ?
अक्सर मेरे मन मेँ एक शँका जन्म लेती है कि गृहणियोँ को सावन के महीने मेँ या बरसात का मौसम आते ही पिया की याद क्योँ सताती है जाडे या गर्मी मेँ क्योँ नहीँ । शायद इसका कारण यह हो सकता है कि पिया एक सरकारी नौकरी मेँ होगा और कहीँ तबादला होकर दूसरे शहर मेँ सेवारत हो गया होगा तथा उसके परिवार को उस शहर मेँ जहाँ से वह गया है सरकारी मकान मिला हुआ होगा जहाँ उसके बीबी बच्चे रहते होँगेँ । अब तबादला हुआ है तो मकान भी खाली करना चाहिये लेकिन नहीँ कर रहे है जब बडे बडे अफसर नहीँ कर रहे है ,नेता नहीँ कर रहे, मँत्री नहीँ कर रहे तो वो क्योँ करे, हो सकता है वह सोच रहा हो कि ऊपर कुछ ले दे कर उसका तबादला वापस उसी शहर मेँ हो जाए तब क्या जो मकान मिला हुआ है वह फिर से आसानी से मिल पायेगा, नहीँ ! इसलिये खाली मत करो । अब सरकारी मकान है तो लाजमी है कि बरसात मेँ पूरा टपकता भी होगा शिकायत करने पर यह जवाब भी मिल सकता है कि परेशानी है तो खाली कर दो बस यहीँ सब मात खा जाते है अत: कहा भी न जाये और रहा भी न जाये । शायद इसीलिये पिया की याद आ रही है कि कम से कम बरसात मेँ सावन के महीने मेँ जब घरोँ मेँ पानी टपक रहा हो तब् तो पिया तू आजा और सीमेंट मेँ शक्कर का घोल बना कर छ्त पर चढ जा और टपकने का इलाज कर या घर मेँ कमरोँ मेँ पानी टपकने की जगहोँ पर बाल्टियाँ, भगोने, परात आदि रख जिससे सामान खराब न हो । अब गृहणी बच्चोँ को स्कूल भेजे, खाना बनाए, घर का सारा काम करे या छत पर चढ कर सीमेंट लगाए । क्या ऐसे कार्य गृहणियोँ को शोभा देते हैँ । माना कि महिलाओँ ने आज सभी क्षैत्रोँ मेँ अपना वर्चस्व कायम किया है लेकिन उन के द्वारा छत पर चढ कर सीमेंट लगाने के कार्य के उदाहरण अभी भी कम ही मिलते हैँ । यह अधिकार् तो पुरुषोँ ने अपने पास ही सुरक्षित रखा हुआ है ।
यह मन भी बडा चँचल होता है। पिया सावन के महीने मेँ घर क्योँ नहीँ आना चाहते इसका कारण जानने के लिये पता नहीँ कहाँ कहाँ भटकता रहता है ।
यह भी हो सकता है कि पिया जी बाढ राहत कार्य विभाग मेँ ही कार्यरत होँ तथा वे घर इसलिए भी नहीँ आ रहे हो कि बाढ की सँभावनाएँ सामने हैँ और राहत कार्य शुरू होने वाला है । अब जब राहत कार्य शुरू हो जायेगा तो ऐसा न हो कि वो तो अपने घर मेँ भगोने और बाल्टियाँ ही रखते रह जायेँ और राहत किसी और को मिल जाए । जब बाढ आयेगी तो राहत की आवश्यकता तो सभी को होती है चाहे राहत पाने वाला हो या देने वाला । मारने वाले से बचाने वाला ही बडा होता है । इसलिये राहत भी बडे को बडी ही मिलती है ।
ऐसा भी हो सकता है कि वह किसी विद्यालय मेँ अध्यापक हो तथा जो अध्यापक होगा उसे अध्यापन के अतिरिक्त और भी बहुत सारे काम है कभी जन-गणना तो कभी मत गणना, कभी पोलिओ ड्रोप्स तो कभी मतदाता परिचय पत्र,कभी यूनिक आई डी तो कभी नगर निगम, एम.एल.ए. या साँसद के चुनाव उसके पास तो इतना समय कहाँ कि सावन मेँ वह अपने घर जाए।

य़ह भी सँभव है कि इस मौसम् मेँ भारी बरसात होने के कारण जगह जगह बाढ आ रही हो तथा बाढ का दृश्य देखने के लिये मँत्री जी उन क्षैत्रोँ मेँ हेलीकोप्टर से हवाई सर्वे करने के लिये आ रहे हो क्योँकि सरकार को बाढ का आँकलन जगह जगह नष्ट हुई फसल, बेघर हुए लोग तथा उजडे हुए मकानोँ भूखे प्यासे बच्चोँ को देखकर नहीँ होता है उसे तो हेलीकोप्टर मेँ बैठ कर ही होता है और यदि पिया की किस्मत अच्छे हो तो उनके साथ वह भी मुफ्त मेँ हवाई यात्रा का आनँद उठा सकता है ।
ऐसे मौसम् मेँ घर से दूर रहने का एक लाभ यह भी है कि पिया जी के जब ‘सावन के महीने मेँ इक आग सी सीने मेँ लगती है तो वे पी लेते है और दो चार घडी जी लेते है’ यदि घर मेँ होते तो सीने की आग को बुझाने के लिये पत्नी ज्यादा से ज्यादा डाइजीन की गोली, या अजबाइन और मैथी के दाने पानी के साथ दे देती, भला उससे कोई आग बुझती है क्या ? इससे तो परदेस ही अच्छा है ।
मुझे तो लग रहा है कि पिया इस मौसम मेँ जान बूझ कर घर आना नहीँ चाहता उसे लग रहा है कि इस महिने मेँ बरसात, बाढ के साथ साथ कई त्योहार और बहुत सी मौसमी बीमारियाँ भी आने वालीँ है अर्थात घर का बजट गडबडाने वाला है और इस मँहगाई के दौर मेँ इन सब का खर्चा उठाना एक सरकारी कर्मचारी के बस की बात नहीँ है इसलिये परदेस मेँ ही बैठे रहो । ज्यादा से ज्यादा क्या होगा उसकी पत्नी उसे बेदर्दी, बैरी, हरजाई, जुल्मी आदि उपाधियोँ से विभूसित कर देगी एक और गीत गाना शुरू कर देगी जिसका भावार्थ भी पचासोँ गीतोँ की तरह वही होगा कि ‘ पिया तू अब तो आजा.. ।

सोमवार, 21 मार्च 2011

मानव जीवन मेँ पाजामे के नाडे की भूमिका


जिस प्रकार मौसम मेँ जाडे का, जानवरोँ को रखने के लिए बाडे का और रेल बजट मेँ माल भाडे का महत्व है वही महत्व हमारे जीवन मेँ पाजामे के नाडे का है । इतिहास साक्षी है कि जब जब भी मनुष्य जाति पर या अपने देश पर कोई सँकट आया है लोगोँ ने उस सँकट का मुकाबला करने के लिए अपनी कमर कस ली और उसी समय लोगोँ ने नाडे के अमूल्य सहयोग को पहचाना क्योकि बिना नाडे के कमर कसी ही नहीँ जा सकती थी । अत: यह कहना अतिश्योक्ति नहीँ होगी की स्वतँत्रता सँग्राम या अन्य युद्ध, नाडे के योगदान के कारण ही लडे जा सके थे । मनुष्य द्वारा इस महत्वपूर्ण वस्तु को बिलकुल साधारण तथा तुच्छ समझे जाने के बावज़ूद भी यह मानव जाति की इज़्ज़त तथा विशेष रूप से महिलाओँ के सम्मान की रक्षा करने के लिए दिन रात बिना किसी लालच के अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह करने को तत्पर रहता है ।
हिन्दी साहित्य मेँ ‘कमर कसना’ मुहाबरे का अर्थ यही होता है कि अब तुम किसी युद्ध या महत्वपूर्ण कार्य करने के लिए तैयार हो जाओ अर्थात अपने पाजामे का नाडा ठीक प्रकार से बाँध लो कहीँ ऐसा न हो कि युद्ध मेँ तलवार चलाते हुए कमर को भलीभाँति कसे न जाने के कारण तुम्हारा पजामा नीचे खिसकने लगे उस स्थिति मेँ तुम तलवार् सँभालोगे या पाजामा और इसी उधेडबुन मेँ तुम्हेँ पराजय का मुँह भी देखना पड सकता है सँभवत:इसीलिए यह कहावत ईज़ाद हुई होगी ।
पुराने समय मेँ नाडे का निर्माण पाजामे के कपडे की बची खुची कतरनोँ से ही किया जाता था इस प्रकार अनुपयोगी वस्तुओँ से उपयोगी वस्तुओँ के निर्माण की परिपाटी नाडे ने ही डाली है । उस समय पाजामेँ के साथ मैचिँग नाडा देने की परम्परा थी जो कालांतर मेँ लुप्त सी होती चली गई एवँ अब पाजामे बनवाने वाले को उसकी व्यवस्था स्वयँ के स्तर पर ही करनी पडती है ।
नाडे के आकार प्रकार एवँ उसके गुणोँ के वारे मेँ अलग अलग मत हैँ । इसकी लम्बाई परिस्थितियोँ के अनुसार परिवर्तित होती रहती है तथा यह इस बात पर निर्भर करती है कि उसके द्वारा जिस कमर को कसना है उसकी परिधि कितनी है । कमर की परिधि से लगभग डेढ से दो गुने लम्बे नाडे आदर्श नाडे की श्रेणी मेँ माने जाते हैँ । इससे अधिक लम्बे नाडे मेँ यह ख़तरा बना रहता है कि कमर को कसने के पश्चात वे सामने की ओर लटकते रह सकते है जिसे मानव समाज मेँ मूर्खता की निशानी समझा जाता है तथा व्यक्ति के अत्यधिक बुद्धिमान होने के उपरांत भी उसे बुद्धिहीन समझा जा सकता है इसके विपरीत् छोटे नाडोँ का उसके लिए प्रस्तावित मार्ग पर खो जाने का खतरा बना रहता है। नाडे को पाजामे मेँ डालना एक बहुत ही कठिन कार्य समझा जाता है तथा प्रत्येक् मनुष्य यह समझता है कि यह कार्य तो जिस तरह खाना बनाने, कपडे धोने, सफाई करने आदि कार्य महिलाओँ के द्वारा सम्पन्न किए जाते हैँ पजामा मेँ नाडा डालना भी उनके ही अधिकार क्षैत्र का कार्य है लेकिन यदा कदा पुरुषोँ द्वारा इस कार्य को सम्पन्न करने के प्रमाण भी पाए जाते हैँ । महिलाएँ इस कार्य मेँ अक्सर सेफ्टी पिन या जूडे की पिन का इस्तेमाल करतीँ है वही पुरुष इसके लिए कलम या पेन उपयोग मेँ लाते हैँ अर्थात ‘ कलम तू उनकी जय बोल’ के अतिरिक्त भी वह समाज मेँ अन्य महत्वपूर्ण कार्योँ मेँ भी प्रयोग मेँ लाई जा सकती है ।
समाज के विभिन्न वर्गोँ से जब पजामे मेँ नाडे की भूमिका के वारे मेँ उनके विचार आमँत्रित किए गए तो एक मँत्री महोदय का मत था कि पजामे मेँ नाडा सत्ता पक्ष की तरह होता है जिसके सहयोगियोँ मेँ अर्थात दोनोँ छोरोँ मेँ समान सँतुलन बनाए रखने की आवश्यकता होती है तभी गठबन्धन ठीक से हो पाता है । यदि एक पक्ष को ज़्यादा ढील दे दी जाए तो दूसरा पक्ष समर्थन खीँच कर भूमिगत हो सकता है । गठबन्धन मजबूत नहीँ होने पर पाजामा रूपी सरकार के गिरने का खतरा बना रहता है । एक साइँटिस्ट का मत था कि जब किसी पेन द्वारा पाजामे मेँ नाडे डालने की प्रक्रिया अपनाई जाती है तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे कोई रॉकेट पृथ्वी की परिक्रमा कर रहा हो एवँ उसके पीछे नाडा रूपी धुआँ निकल रहा हो ।
एक और सिविल अभियँता इस प्रक्रिया की तुलना मेट्रो ट्रैन से करते है जिसमेँ पेन रूपी इँजन नाडे रूपी डिब्बोँ को एक सुरँग के अन्दर से ले जाता है ।
पाजामे के साथ ही साथ नाडे के अन्य क्षैत्रोँ मेँ भी उपयोग मसलन चड्डियोँ, पेटीकोटोँ तथा सलवारोँ मेँ भी किया जाता है अर्थात इसका कार्यक्षैत्र सीमित नहीँ है । आपात्काल मेँ यदि यात्रा करते हुए आप के किसी बैग का हेंडल या ज़िप टूट जाए तो उस समय नाडा सँकटमोचन बनकर उसके स्थान पर अपनी सेवाएँ देने को हमेशा तैयार रहता है । आवश्यकता होने पर इसे कभी कभी कपडे सुखाने या सामान बाँधने के उपयोग मेँ लेने के भी प्रमाण पाए गए हैँ। छोटे बच्चोँ को भी इससे बहुत लगाव है तथा वे अपनी खिलौने की मोटर गाडी को इससे बाँधकर तथा खीँच कर ही आगे चलाते है अत: इसका कार्यक्षैत्र बहुआयामी है। राजनीति से जुडे हुए लोग, साहित्यकार, शायर, जो कुर्ता पाजामा वेशभूषा को अधिक प्राथमिकता देते है नाडे के योगदान को नहीँ भुला सकते हैँ । कुछ दिनोँ से नाडे के साथ न्याय नहीँ हो रहा है तथा वैश्वीकरण के दौर मेँ नाडे का स्थान इलास्टिक या चमडॆ के बेल्ट लेते जा रहे है । लोग अपनी सँस्कृति एवँ परम्पराएँ भूलते जा रहे है तथा दूसरे तरीके आजमाते जा रहे है जो अधिक लम्बे समय तक कारगर सिद्ध नहीँ होते । जिस प्रकार लोग किसी खूबसूरत इमारत की सुन्दरता निहारते है पर उस इमारत मेँ दबे नीँव के पत्थर को याद नहीँ रखते उसी प्रकार का व्यवहार नाडे के साथ भी किया जाता है । कोई भी उसको प्रदर्शित नहीँ करना चाहता है और यदि कभी वह अपने आप को प्रकाश मेँ लाना भी चाहे तो कुर्ते से उसे ढक दिया जाता है । नाडे को बस इसी बात का दु:ख है । लेकिन इस बात मेँ कोई सँशय नहीँ है कि नाडा है तभी हमारी आबरू बची हुई है ।

सोमवार, 3 जनवरी 2011

अनहेप्पी न्यू इयर्

उस रात मैं बहुत व्याकुल था। वैसे यहाँ व्याकुल शब्द मुझे कुछ जम नहीं रहा है क्योंकि इसका प्रयोग अक्सर कृष्ण के वियोग में गोप गोपियों के लिए किया जाता है कि वे कृष्ण के विरह में बहुत व्याकुल थे। अब मैं न तो गोप समान मोटा हूँ और न ही गोपियों जैसा कमसिन। तो उस रात मैं बहुत बैचैन था। उस रात यानी किस रात। ३१ दिसम्बर की रात। वर्ष के आखिरी दिन की रात। सब लोगों की तरह मैं भी इन्तज़ार कर रहा था कि कब रात्री के बारह बजें और `कृपाला जी नए साल के रूप में प्रकट हों। कब `हेप्पी न्यू इयर' का खाता खुले।

बेचारे सारे मोबाइल ठीक बारह का गजर बजते ही यातनाओं के अँधेरे में सफर करने के लिए बिना वाइब्रेशन मोड के ही उन पर आने वाले संकट की कल्पना से थर थर काँप रहे थे। सबेरे से ही लोग परेशान थे। नया साल जो आने वाला था। ऐसा लग रहा था जैसे पहली बार ही आ रहा हो। रात के बारह बजते ही एक जोर के धमाके की आवाज़ सुनाई दी। कान के पर्दे शायद फट ही गए थे। थोडा सा पानी कान में डाल कर देखा कि कहीं गले में तो नहीं आ रहा है देख कर संतोष हुआ कि पर्दे अच्छी क्वालिटी के थे। ईश्वर ने पर्दो के टेण्डर में सबसे कम रेट वाले पर्दो जैसा झंझट नहीं पाला था। बाद में मालूम हुआ कि वह धमाका नए साल के आने की खुशी में पडौस के कुछ युवा नवजवानों ने किया था या हो सकता है पुराने साल के जाने की खुशी में किया हो जो किसी न किसी को केाई न कोई दु:ख जरूर दे जाता है।

यह पक्का हो गया था कि धमाका किसी आतंककारी गतिविधियों का परिणाम नहीं था। वैसे हमारे पडौस के उन वीर जवानों अलबेले और मस्तानों की खुशी का इज़हार यदा कदा सुतली बमों के धमाकों से ही हुआ करता था। वे भी किसी आतंककारी से कम नहीं थे। क्रिकेट मैच में भारत जीते तो धमाका, पाकिस्तान हारे तो धमाका, हाँकी में कोई भी जीते तो धमाका, क्योंकि अगर भारत के जीतने का इन्तजाऱ करते रहे तब तो सुतली बम पडे पडे ही सड़ जाएँगे। किसी परिचित की बारात हो तो उसके आगे धमाका कुछ न मिले तो प्रत्येक दिन कोई न कोई धार्मिक आयोजन तो हैं ही अर्थात धमाका करने के लिए कोई न कोई बहाना चाहिए। यदि बम पटाखेां से मन न भरे तो कानफोढू संगीत हाज़िर है। लगता है उन लोगों के कान के पर्दे भी किसी मोटी खाल के बने है या उनकी पूरी ही खाल गेंडे की खाल से बनी है जिस पर कोई असर नहीं होता है।

रात्रि के लगभग साढ़े बारह बजे तक आतंककारी गतिविधियाँ चलती रहीं और फिर उसके बाद मोबाइल और टेलिफोन ने मोर्चा संभाल लिया। लोग न तो खुद सो रहे थे न दूसरों को सोने दे रहे थे। सबको ये महसूस हो रहा था कि आज और इसी वक्त यदि इसको शुभ कामनाएँ नहीं दीं तो मालूम नहीं बेचारे का पूरा साल किस मुसीबत में गुज़रे। कोई भी मेरे जीवन में आने वाले पूरे वर्ष में होने वाली मुसीबतों की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेने को तैयार नहीं था। `भई मैंने तो नया साल आते ही उनके उज्जवल भविष्य की कामना तथा शुभकामनाएँ उन्हें उसी समय दे दीं थी अब उन पर मुसीबत आ गई तो इसमें मेरा हाथ नहीं है। हो सकता है गुप्ता जी का होगा उन्होंने अभी तक `हेप्पी न्यू इयर' नहीं बोला।

सुबह सुबह उठते ही दूध वाले ने आवाज़ लगाई। साब' नए साल की रामराम'।मैं उसकी इस राम राम का आशय समझ रहा था।उसका मतलब था कि आज एक तारीख हो गई और दूध का पुराना हिसाब चुकता कर दीजिए।जिन लोगों ने ये गीत बनाया कि `खुश है ज़माना आज पहली तारीख है' उन्होंने एक तारीख को आने वाले संकट की कल्पना नहीं की होगी।मैं `हेप्पी न्यू इयर' का ब्रह्मास्त्र फेकने वालों से मुँह छुपाता फिर रहा था। उसमें बहुत से लोग शामिल थे। दूध वाले के अतिरिक्त बर्तन वाली बाई, धोवन ,अखबार वाला, केबल वाला, टेलीफोन, बिजली, चौकीदार आदि आदि। तभी पडौसी जैन साहब बाहर दरवाजे के सामने से गुजरते दिखाई दिए।

मैं उनसे आँख चुराता कि उनकी आवाज़ आई। `` नव वर्ष आपको मंगलमय हो...''। लग रहा था जैसे आकाशवाणी हुई हो। मैंनें भी कुछ अभिनय करते हुए एकाएक चौंक कर इस तरह उनकी तरफ देखा जैसे मुझे इनकी उपस्थिति का भान उनकी आवाज़ सुन कर ही हुआ हो। न चाहते हुए भी मैं बस इतना ही कह पाया ``आपको भी''। पिछले कुछ दिनों पूर्व ही किसी बात पर उनसे मेरी कहा सुनी हो गई थी। मेरे घर की बाउन्ड्री की दीवार पर उन्होंने अपने कमरे की दीवार उठा ली थी तब से हमारी कुछ बोलचाल बन्द सी थी। नव वर्ष की शुभकामनाओं के पीछे उसका शायद यही मकसद था कि मैं अब उस मामले में चुप्पी साध जाऊॅं।

एकाएक शर्मा जी अपने स्कूटर पर सामने से आते दिखे। मैंनें उन्हें रोक कर वही प्रचलित जुमला उन की तरफ उछाल दिया। `हेप्पी न्यू ईयर' शर्मा जी। उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं आया लगता था वे मेरी बात को सुनकर भी अनसुना कर रहे थे। मैंने पुन: प्रसारण कर दिया। इस बार उन के माथे पर कुछ केंचुए से लहराते दिखाई दिए जिन्हें बल कहा जाता है।`काहे का न्यू ईयर' ये हमारा नया साल थोडे ही है। ये तो अंग्रेजों का नया साल है हमारा नया साल तो चैत्र में शुरू होता है उस समय शुभकामनाएँ दीजिएगा। अभी से क्यों हेप्पी फेप्पी लगा रखी है।' पर पूरी दुनिया तो आज ही नया साल मना रही है इसलिए आज भी शुभकामनाएँ स्वीकार कर लीजिए चैत्र में फिर ले लीजिए इसमें कौन सी अपनी गॉंठ से कुछ जा रहा है।`भैया बिना सही वक्त के न तो हम कुछ लेते है और न कुछ देते है। तुम्हें यदि इतना ही शौक है तो आज तो बहुत सारे मिल जाएँगे जो न जान न पहचान हर ऐरे गैरे को शुभकामनाएँ देते फिर रहे है। शुभकामनाएँ देने के कुछ पैसे तो लग नहीं रहे है। यदि पैसे लगते तो देखते कितने लोग शुभकामनाएँ देते'। मैंने तो सुबह से टीवी ही नहीं चलाया। जिस चैनल को चलाओ वही देश भर के लोगों के भले की कामना कर रहा है अरे तुम्हारे एक दिन कहने से ही क्या देश में खुशहाली आ जाएगी। अभी संसद की कार्यवाही के सीधे प्रसारण वाला चैनल देखो पहले तो सब एक दूसरे को नए साल की शुभकामनाएँ देंगे और फिर खूब गालियाँ। सारी शुभकामनाएँ एक तरफ धरी रह जाएँगी। झूठे कहीं के।

मुझे महसूस हुआ कि लोग अपने मुँह से तो औपचारिकतावश नए वर्ष या त्यौहारों पर दूसरों को शुभकामनाएँ देने की रस्म तो निभा देते हैं किन्तु दिल से नहीं देते। यदि सबके दिलों में दूसरों के प्रति शुभकामनाएँ देने की इच्छा बनी रहे तो खास मौकों पर इस रस्म को निभाने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी।