मंगलवार, 19 जुलाई 2011

पिया तू अब तो आजा..

ऐसा देखा गया है कि ये जो पिया नामक एक प्राणी होता है बडा बेदर्दी होता है । अक्सर बरसात का मौसम आने के कुछ दिनोँ या महिनोँ पूर्व ही यह अपने घर से किसी दूसरे शहर मेँ या परदेस चला जाता है और बाद मेँ गृहणियाँ कहतीँ रहतीँ हैँ कि ‘अजहुँ न आए बालमवा सावन बीतो जाए । वे कई गवैयोँ के पास भी जाती हैँ और् उनसे आग्रह् करतीँ हैँ कि तुम भी अपने गाने के माध्यम से पिया को सावन के महिनेँ मेँ घर वापस आने के लिये प्रेरित करोँ । गवैये भी अपनी ओर से कोई कोर कसर नहीँ छोडते है तथा याद पिया की आये, आये न बालम, मोहे भूल गये साँवरियाँ, या पिया बिन पिया बिना बसियाँ बाजे ना बाजे ना आदि गाकर पिया को बरगलाने की कोशिश करते रहते हैँ जैसे पिया कोई तबला वादक हो जिसके बिना बसिया नहीँ बज पायेगी । कुछ तो सावन के महिने को ही दोष देने लग जातीँ हैँ कि ‘बरसत गरजत सावन आओ है पर लायो न सँग मेँ हमरे बिछुडे बलमवा’ जैसे सावन का काम पानी बरसाने के साथ ही साथ यह भी रह गया हो कि वह अपने सँग मेँ परदेस मेँ बसे या बिछुडे पियाओँ को भी घर वापस लाए । सावन है या पुलिस विभाग ?
अक्सर मेरे मन मेँ एक शँका जन्म लेती है कि गृहणियोँ को सावन के महीने मेँ या बरसात का मौसम आते ही पिया की याद क्योँ सताती है जाडे या गर्मी मेँ क्योँ नहीँ । शायद इसका कारण यह हो सकता है कि पिया एक सरकारी नौकरी मेँ होगा और कहीँ तबादला होकर दूसरे शहर मेँ सेवारत हो गया होगा तथा उसके परिवार को उस शहर मेँ जहाँ से वह गया है सरकारी मकान मिला हुआ होगा जहाँ उसके बीबी बच्चे रहते होँगेँ । अब तबादला हुआ है तो मकान भी खाली करना चाहिये लेकिन नहीँ कर रहे है जब बडे बडे अफसर नहीँ कर रहे है ,नेता नहीँ कर रहे, मँत्री नहीँ कर रहे तो वो क्योँ करे, हो सकता है वह सोच रहा हो कि ऊपर कुछ ले दे कर उसका तबादला वापस उसी शहर मेँ हो जाए तब क्या जो मकान मिला हुआ है वह फिर से आसानी से मिल पायेगा, नहीँ ! इसलिये खाली मत करो । अब सरकारी मकान है तो लाजमी है कि बरसात मेँ पूरा टपकता भी होगा शिकायत करने पर यह जवाब भी मिल सकता है कि परेशानी है तो खाली कर दो बस यहीँ सब मात खा जाते है अत: कहा भी न जाये और रहा भी न जाये । शायद इसीलिये पिया की याद आ रही है कि कम से कम बरसात मेँ सावन के महीने मेँ जब घरोँ मेँ पानी टपक रहा हो तब् तो पिया तू आजा और सीमेंट मेँ शक्कर का घोल बना कर छ्त पर चढ जा और टपकने का इलाज कर या घर मेँ कमरोँ मेँ पानी टपकने की जगहोँ पर बाल्टियाँ, भगोने, परात आदि रख जिससे सामान खराब न हो । अब गृहणी बच्चोँ को स्कूल भेजे, खाना बनाए, घर का सारा काम करे या छत पर चढ कर सीमेंट लगाए । क्या ऐसे कार्य गृहणियोँ को शोभा देते हैँ । माना कि महिलाओँ ने आज सभी क्षैत्रोँ मेँ अपना वर्चस्व कायम किया है लेकिन उन के द्वारा छत पर चढ कर सीमेंट लगाने के कार्य के उदाहरण अभी भी कम ही मिलते हैँ । यह अधिकार् तो पुरुषोँ ने अपने पास ही सुरक्षित रखा हुआ है ।
यह मन भी बडा चँचल होता है। पिया सावन के महीने मेँ घर क्योँ नहीँ आना चाहते इसका कारण जानने के लिये पता नहीँ कहाँ कहाँ भटकता रहता है ।
यह भी हो सकता है कि पिया जी बाढ राहत कार्य विभाग मेँ ही कार्यरत होँ तथा वे घर इसलिए भी नहीँ आ रहे हो कि बाढ की सँभावनाएँ सामने हैँ और राहत कार्य शुरू होने वाला है । अब जब राहत कार्य शुरू हो जायेगा तो ऐसा न हो कि वो तो अपने घर मेँ भगोने और बाल्टियाँ ही रखते रह जायेँ और राहत किसी और को मिल जाए । जब बाढ आयेगी तो राहत की आवश्यकता तो सभी को होती है चाहे राहत पाने वाला हो या देने वाला । मारने वाले से बचाने वाला ही बडा होता है । इसलिये राहत भी बडे को बडी ही मिलती है ।
ऐसा भी हो सकता है कि वह किसी विद्यालय मेँ अध्यापक हो तथा जो अध्यापक होगा उसे अध्यापन के अतिरिक्त और भी बहुत सारे काम है कभी जन-गणना तो कभी मत गणना, कभी पोलिओ ड्रोप्स तो कभी मतदाता परिचय पत्र,कभी यूनिक आई डी तो कभी नगर निगम, एम.एल.ए. या साँसद के चुनाव उसके पास तो इतना समय कहाँ कि सावन मेँ वह अपने घर जाए।

य़ह भी सँभव है कि इस मौसम् मेँ भारी बरसात होने के कारण जगह जगह बाढ आ रही हो तथा बाढ का दृश्य देखने के लिये मँत्री जी उन क्षैत्रोँ मेँ हेलीकोप्टर से हवाई सर्वे करने के लिये आ रहे हो क्योँकि सरकार को बाढ का आँकलन जगह जगह नष्ट हुई फसल, बेघर हुए लोग तथा उजडे हुए मकानोँ भूखे प्यासे बच्चोँ को देखकर नहीँ होता है उसे तो हेलीकोप्टर मेँ बैठ कर ही होता है और यदि पिया की किस्मत अच्छे हो तो उनके साथ वह भी मुफ्त मेँ हवाई यात्रा का आनँद उठा सकता है ।
ऐसे मौसम् मेँ घर से दूर रहने का एक लाभ यह भी है कि पिया जी के जब ‘सावन के महीने मेँ इक आग सी सीने मेँ लगती है तो वे पी लेते है और दो चार घडी जी लेते है’ यदि घर मेँ होते तो सीने की आग को बुझाने के लिये पत्नी ज्यादा से ज्यादा डाइजीन की गोली, या अजबाइन और मैथी के दाने पानी के साथ दे देती, भला उससे कोई आग बुझती है क्या ? इससे तो परदेस ही अच्छा है ।
मुझे तो लग रहा है कि पिया इस मौसम मेँ जान बूझ कर घर आना नहीँ चाहता उसे लग रहा है कि इस महिने मेँ बरसात, बाढ के साथ साथ कई त्योहार और बहुत सी मौसमी बीमारियाँ भी आने वालीँ है अर्थात घर का बजट गडबडाने वाला है और इस मँहगाई के दौर मेँ इन सब का खर्चा उठाना एक सरकारी कर्मचारी के बस की बात नहीँ है इसलिये परदेस मेँ ही बैठे रहो । ज्यादा से ज्यादा क्या होगा उसकी पत्नी उसे बेदर्दी, बैरी, हरजाई, जुल्मी आदि उपाधियोँ से विभूसित कर देगी एक और गीत गाना शुरू कर देगी जिसका भावार्थ भी पचासोँ गीतोँ की तरह वही होगा कि ‘ पिया तू अब तो आजा.. ।

सोमवार, 21 मार्च 2011

मानव जीवन मेँ पाजामे के नाडे की भूमिका


जिस प्रकार मौसम मेँ जाडे का, जानवरोँ को रखने के लिए बाडे का और रेल बजट मेँ माल भाडे का महत्व है वही महत्व हमारे जीवन मेँ पाजामे के नाडे का है । इतिहास साक्षी है कि जब जब भी मनुष्य जाति पर या अपने देश पर कोई सँकट आया है लोगोँ ने उस सँकट का मुकाबला करने के लिए अपनी कमर कस ली और उसी समय लोगोँ ने नाडे के अमूल्य सहयोग को पहचाना क्योकि बिना नाडे के कमर कसी ही नहीँ जा सकती थी । अत: यह कहना अतिश्योक्ति नहीँ होगी की स्वतँत्रता सँग्राम या अन्य युद्ध, नाडे के योगदान के कारण ही लडे जा सके थे । मनुष्य द्वारा इस महत्वपूर्ण वस्तु को बिलकुल साधारण तथा तुच्छ समझे जाने के बावज़ूद भी यह मानव जाति की इज़्ज़त तथा विशेष रूप से महिलाओँ के सम्मान की रक्षा करने के लिए दिन रात बिना किसी लालच के अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह करने को तत्पर रहता है ।
हिन्दी साहित्य मेँ ‘कमर कसना’ मुहाबरे का अर्थ यही होता है कि अब तुम किसी युद्ध या महत्वपूर्ण कार्य करने के लिए तैयार हो जाओ अर्थात अपने पाजामे का नाडा ठीक प्रकार से बाँध लो कहीँ ऐसा न हो कि युद्ध मेँ तलवार चलाते हुए कमर को भलीभाँति कसे न जाने के कारण तुम्हारा पजामा नीचे खिसकने लगे उस स्थिति मेँ तुम तलवार् सँभालोगे या पाजामा और इसी उधेडबुन मेँ तुम्हेँ पराजय का मुँह भी देखना पड सकता है सँभवत:इसीलिए यह कहावत ईज़ाद हुई होगी ।
पुराने समय मेँ नाडे का निर्माण पाजामे के कपडे की बची खुची कतरनोँ से ही किया जाता था इस प्रकार अनुपयोगी वस्तुओँ से उपयोगी वस्तुओँ के निर्माण की परिपाटी नाडे ने ही डाली है । उस समय पाजामेँ के साथ मैचिँग नाडा देने की परम्परा थी जो कालांतर मेँ लुप्त सी होती चली गई एवँ अब पाजामे बनवाने वाले को उसकी व्यवस्था स्वयँ के स्तर पर ही करनी पडती है ।
नाडे के आकार प्रकार एवँ उसके गुणोँ के वारे मेँ अलग अलग मत हैँ । इसकी लम्बाई परिस्थितियोँ के अनुसार परिवर्तित होती रहती है तथा यह इस बात पर निर्भर करती है कि उसके द्वारा जिस कमर को कसना है उसकी परिधि कितनी है । कमर की परिधि से लगभग डेढ से दो गुने लम्बे नाडे आदर्श नाडे की श्रेणी मेँ माने जाते हैँ । इससे अधिक लम्बे नाडे मेँ यह ख़तरा बना रहता है कि कमर को कसने के पश्चात वे सामने की ओर लटकते रह सकते है जिसे मानव समाज मेँ मूर्खता की निशानी समझा जाता है तथा व्यक्ति के अत्यधिक बुद्धिमान होने के उपरांत भी उसे बुद्धिहीन समझा जा सकता है इसके विपरीत् छोटे नाडोँ का उसके लिए प्रस्तावित मार्ग पर खो जाने का खतरा बना रहता है। नाडे को पाजामे मेँ डालना एक बहुत ही कठिन कार्य समझा जाता है तथा प्रत्येक् मनुष्य यह समझता है कि यह कार्य तो जिस तरह खाना बनाने, कपडे धोने, सफाई करने आदि कार्य महिलाओँ के द्वारा सम्पन्न किए जाते हैँ पजामा मेँ नाडा डालना भी उनके ही अधिकार क्षैत्र का कार्य है लेकिन यदा कदा पुरुषोँ द्वारा इस कार्य को सम्पन्न करने के प्रमाण भी पाए जाते हैँ । महिलाएँ इस कार्य मेँ अक्सर सेफ्टी पिन या जूडे की पिन का इस्तेमाल करतीँ है वही पुरुष इसके लिए कलम या पेन उपयोग मेँ लाते हैँ अर्थात ‘ कलम तू उनकी जय बोल’ के अतिरिक्त भी वह समाज मेँ अन्य महत्वपूर्ण कार्योँ मेँ भी प्रयोग मेँ लाई जा सकती है ।
समाज के विभिन्न वर्गोँ से जब पजामे मेँ नाडे की भूमिका के वारे मेँ उनके विचार आमँत्रित किए गए तो एक मँत्री महोदय का मत था कि पजामे मेँ नाडा सत्ता पक्ष की तरह होता है जिसके सहयोगियोँ मेँ अर्थात दोनोँ छोरोँ मेँ समान सँतुलन बनाए रखने की आवश्यकता होती है तभी गठबन्धन ठीक से हो पाता है । यदि एक पक्ष को ज़्यादा ढील दे दी जाए तो दूसरा पक्ष समर्थन खीँच कर भूमिगत हो सकता है । गठबन्धन मजबूत नहीँ होने पर पाजामा रूपी सरकार के गिरने का खतरा बना रहता है । एक साइँटिस्ट का मत था कि जब किसी पेन द्वारा पाजामे मेँ नाडे डालने की प्रक्रिया अपनाई जाती है तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे कोई रॉकेट पृथ्वी की परिक्रमा कर रहा हो एवँ उसके पीछे नाडा रूपी धुआँ निकल रहा हो ।
एक और सिविल अभियँता इस प्रक्रिया की तुलना मेट्रो ट्रैन से करते है जिसमेँ पेन रूपी इँजन नाडे रूपी डिब्बोँ को एक सुरँग के अन्दर से ले जाता है ।
पाजामे के साथ ही साथ नाडे के अन्य क्षैत्रोँ मेँ भी उपयोग मसलन चड्डियोँ, पेटीकोटोँ तथा सलवारोँ मेँ भी किया जाता है अर्थात इसका कार्यक्षैत्र सीमित नहीँ है । आपात्काल मेँ यदि यात्रा करते हुए आप के किसी बैग का हेंडल या ज़िप टूट जाए तो उस समय नाडा सँकटमोचन बनकर उसके स्थान पर अपनी सेवाएँ देने को हमेशा तैयार रहता है । आवश्यकता होने पर इसे कभी कभी कपडे सुखाने या सामान बाँधने के उपयोग मेँ लेने के भी प्रमाण पाए गए हैँ। छोटे बच्चोँ को भी इससे बहुत लगाव है तथा वे अपनी खिलौने की मोटर गाडी को इससे बाँधकर तथा खीँच कर ही आगे चलाते है अत: इसका कार्यक्षैत्र बहुआयामी है। राजनीति से जुडे हुए लोग, साहित्यकार, शायर, जो कुर्ता पाजामा वेशभूषा को अधिक प्राथमिकता देते है नाडे के योगदान को नहीँ भुला सकते हैँ । कुछ दिनोँ से नाडे के साथ न्याय नहीँ हो रहा है तथा वैश्वीकरण के दौर मेँ नाडे का स्थान इलास्टिक या चमडॆ के बेल्ट लेते जा रहे है । लोग अपनी सँस्कृति एवँ परम्पराएँ भूलते जा रहे है तथा दूसरे तरीके आजमाते जा रहे है जो अधिक लम्बे समय तक कारगर सिद्ध नहीँ होते । जिस प्रकार लोग किसी खूबसूरत इमारत की सुन्दरता निहारते है पर उस इमारत मेँ दबे नीँव के पत्थर को याद नहीँ रखते उसी प्रकार का व्यवहार नाडे के साथ भी किया जाता है । कोई भी उसको प्रदर्शित नहीँ करना चाहता है और यदि कभी वह अपने आप को प्रकाश मेँ लाना भी चाहे तो कुर्ते से उसे ढक दिया जाता है । नाडे को बस इसी बात का दु:ख है । लेकिन इस बात मेँ कोई सँशय नहीँ है कि नाडा है तभी हमारी आबरू बची हुई है ।

सोमवार, 3 जनवरी 2011

अनहेप्पी न्यू इयर्

उस रात मैं बहुत व्याकुल था। वैसे यहाँ व्याकुल शब्द मुझे कुछ जम नहीं रहा है क्योंकि इसका प्रयोग अक्सर कृष्ण के वियोग में गोप गोपियों के लिए किया जाता है कि वे कृष्ण के विरह में बहुत व्याकुल थे। अब मैं न तो गोप समान मोटा हूँ और न ही गोपियों जैसा कमसिन। तो उस रात मैं बहुत बैचैन था। उस रात यानी किस रात। ३१ दिसम्बर की रात। वर्ष के आखिरी दिन की रात। सब लोगों की तरह मैं भी इन्तज़ार कर रहा था कि कब रात्री के बारह बजें और `कृपाला जी नए साल के रूप में प्रकट हों। कब `हेप्पी न्यू इयर' का खाता खुले।

बेचारे सारे मोबाइल ठीक बारह का गजर बजते ही यातनाओं के अँधेरे में सफर करने के लिए बिना वाइब्रेशन मोड के ही उन पर आने वाले संकट की कल्पना से थर थर काँप रहे थे। सबेरे से ही लोग परेशान थे। नया साल जो आने वाला था। ऐसा लग रहा था जैसे पहली बार ही आ रहा हो। रात के बारह बजते ही एक जोर के धमाके की आवाज़ सुनाई दी। कान के पर्दे शायद फट ही गए थे। थोडा सा पानी कान में डाल कर देखा कि कहीं गले में तो नहीं आ रहा है देख कर संतोष हुआ कि पर्दे अच्छी क्वालिटी के थे। ईश्वर ने पर्दो के टेण्डर में सबसे कम रेट वाले पर्दो जैसा झंझट नहीं पाला था। बाद में मालूम हुआ कि वह धमाका नए साल के आने की खुशी में पडौस के कुछ युवा नवजवानों ने किया था या हो सकता है पुराने साल के जाने की खुशी में किया हो जो किसी न किसी को केाई न कोई दु:ख जरूर दे जाता है।

यह पक्का हो गया था कि धमाका किसी आतंककारी गतिविधियों का परिणाम नहीं था। वैसे हमारे पडौस के उन वीर जवानों अलबेले और मस्तानों की खुशी का इज़हार यदा कदा सुतली बमों के धमाकों से ही हुआ करता था। वे भी किसी आतंककारी से कम नहीं थे। क्रिकेट मैच में भारत जीते तो धमाका, पाकिस्तान हारे तो धमाका, हाँकी में कोई भी जीते तो धमाका, क्योंकि अगर भारत के जीतने का इन्तजाऱ करते रहे तब तो सुतली बम पडे पडे ही सड़ जाएँगे। किसी परिचित की बारात हो तो उसके आगे धमाका कुछ न मिले तो प्रत्येक दिन कोई न कोई धार्मिक आयोजन तो हैं ही अर्थात धमाका करने के लिए कोई न कोई बहाना चाहिए। यदि बम पटाखेां से मन न भरे तो कानफोढू संगीत हाज़िर है। लगता है उन लोगों के कान के पर्दे भी किसी मोटी खाल के बने है या उनकी पूरी ही खाल गेंडे की खाल से बनी है जिस पर कोई असर नहीं होता है।

रात्रि के लगभग साढ़े बारह बजे तक आतंककारी गतिविधियाँ चलती रहीं और फिर उसके बाद मोबाइल और टेलिफोन ने मोर्चा संभाल लिया। लोग न तो खुद सो रहे थे न दूसरों को सोने दे रहे थे। सबको ये महसूस हो रहा था कि आज और इसी वक्त यदि इसको शुभ कामनाएँ नहीं दीं तो मालूम नहीं बेचारे का पूरा साल किस मुसीबत में गुज़रे। कोई भी मेरे जीवन में आने वाले पूरे वर्ष में होने वाली मुसीबतों की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेने को तैयार नहीं था। `भई मैंने तो नया साल आते ही उनके उज्जवल भविष्य की कामना तथा शुभकामनाएँ उन्हें उसी समय दे दीं थी अब उन पर मुसीबत आ गई तो इसमें मेरा हाथ नहीं है। हो सकता है गुप्ता जी का होगा उन्होंने अभी तक `हेप्पी न्यू इयर' नहीं बोला।

सुबह सुबह उठते ही दूध वाले ने आवाज़ लगाई। साब' नए साल की रामराम'।मैं उसकी इस राम राम का आशय समझ रहा था।उसका मतलब था कि आज एक तारीख हो गई और दूध का पुराना हिसाब चुकता कर दीजिए।जिन लोगों ने ये गीत बनाया कि `खुश है ज़माना आज पहली तारीख है' उन्होंने एक तारीख को आने वाले संकट की कल्पना नहीं की होगी।मैं `हेप्पी न्यू इयर' का ब्रह्मास्त्र फेकने वालों से मुँह छुपाता फिर रहा था। उसमें बहुत से लोग शामिल थे। दूध वाले के अतिरिक्त बर्तन वाली बाई, धोवन ,अखबार वाला, केबल वाला, टेलीफोन, बिजली, चौकीदार आदि आदि। तभी पडौसी जैन साहब बाहर दरवाजे के सामने से गुजरते दिखाई दिए।

मैं उनसे आँख चुराता कि उनकी आवाज़ आई। `` नव वर्ष आपको मंगलमय हो...''। लग रहा था जैसे आकाशवाणी हुई हो। मैंनें भी कुछ अभिनय करते हुए एकाएक चौंक कर इस तरह उनकी तरफ देखा जैसे मुझे इनकी उपस्थिति का भान उनकी आवाज़ सुन कर ही हुआ हो। न चाहते हुए भी मैं बस इतना ही कह पाया ``आपको भी''। पिछले कुछ दिनों पूर्व ही किसी बात पर उनसे मेरी कहा सुनी हो गई थी। मेरे घर की बाउन्ड्री की दीवार पर उन्होंने अपने कमरे की दीवार उठा ली थी तब से हमारी कुछ बोलचाल बन्द सी थी। नव वर्ष की शुभकामनाओं के पीछे उसका शायद यही मकसद था कि मैं अब उस मामले में चुप्पी साध जाऊॅं।

एकाएक शर्मा जी अपने स्कूटर पर सामने से आते दिखे। मैंनें उन्हें रोक कर वही प्रचलित जुमला उन की तरफ उछाल दिया। `हेप्पी न्यू ईयर' शर्मा जी। उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं आया लगता था वे मेरी बात को सुनकर भी अनसुना कर रहे थे। मैंने पुन: प्रसारण कर दिया। इस बार उन के माथे पर कुछ केंचुए से लहराते दिखाई दिए जिन्हें बल कहा जाता है।`काहे का न्यू ईयर' ये हमारा नया साल थोडे ही है। ये तो अंग्रेजों का नया साल है हमारा नया साल तो चैत्र में शुरू होता है उस समय शुभकामनाएँ दीजिएगा। अभी से क्यों हेप्पी फेप्पी लगा रखी है।' पर पूरी दुनिया तो आज ही नया साल मना रही है इसलिए आज भी शुभकामनाएँ स्वीकार कर लीजिए चैत्र में फिर ले लीजिए इसमें कौन सी अपनी गॉंठ से कुछ जा रहा है।`भैया बिना सही वक्त के न तो हम कुछ लेते है और न कुछ देते है। तुम्हें यदि इतना ही शौक है तो आज तो बहुत सारे मिल जाएँगे जो न जान न पहचान हर ऐरे गैरे को शुभकामनाएँ देते फिर रहे है। शुभकामनाएँ देने के कुछ पैसे तो लग नहीं रहे है। यदि पैसे लगते तो देखते कितने लोग शुभकामनाएँ देते'। मैंने तो सुबह से टीवी ही नहीं चलाया। जिस चैनल को चलाओ वही देश भर के लोगों के भले की कामना कर रहा है अरे तुम्हारे एक दिन कहने से ही क्या देश में खुशहाली आ जाएगी। अभी संसद की कार्यवाही के सीधे प्रसारण वाला चैनल देखो पहले तो सब एक दूसरे को नए साल की शुभकामनाएँ देंगे और फिर खूब गालियाँ। सारी शुभकामनाएँ एक तरफ धरी रह जाएँगी। झूठे कहीं के।

मुझे महसूस हुआ कि लोग अपने मुँह से तो औपचारिकतावश नए वर्ष या त्यौहारों पर दूसरों को शुभकामनाएँ देने की रस्म तो निभा देते हैं किन्तु दिल से नहीं देते। यदि सबके दिलों में दूसरों के प्रति शुभकामनाएँ देने की इच्छा बनी रहे तो खास मौकों पर इस रस्म को निभाने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी।

सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

सच्चे का मुँह काला

मुझे झूठ बोलने वाले व्यक्ति बहुत अच्छे लगते हैं। कितना मुश्किल काम होता है यह।अपने चेहरे के सारे हाव भाव पर नियंत्रण रख कर इस कार्य को अंजाम देना पड़ता है। सत्य बोलने में तो कुछ परिश्रम करना ही नहीं पड़ता है जब जी में आया सत्य बोल दिया। कोई पूछे कि पिताजी घर पर है तो यह कहना बहुत आसान है कि हाँ घर पर ही है बनिस्पत इसके कि आप यह जानते हुए भी कि वे घर पर ही है कहें कि नहीं वे तो बाज़ार गए हैं। उस समय आप की आत्मा आपको भले ही धिक्कारती है कि आप एम जी मार्ग पर नहीं चले किन्तु आप को यह बात भी मालूम है कि आत्मा अमर है और जो अमर है उसका तो काम ही जीवन भर आपको कदम कदम पर धिक्कारना ही रहेगा, उसकी बातों को गंभीरता से क्या लेना। आप उससे भयभीत न होते हुए झूठ बोलने का एक साहसिक कार्य सम्पन्न कर डालते है। झूठ बोलते समय ही मनुष्य के धैर्य और साहस की असली परीक्षा होती है और इतिहास गवाह है कि जो इस कला में प्रवीण हो जाते हैं वे ही उन्नति के शिखर पर दिन दूनी रात चौगुनी और दोपहर में अठगुनी गति से आगे बढ़ते जाते हैं। इतिहास का एक सबसे बड़ा फायदा यह है कि उसे चाहे जब कभी भी गवाही के लिए प्रस्तुत किया जा सकता है। इतने लम्बे भूतकाल में हर तरह की इतनी सारी घटनाएँ घट चुकीं हैं कि किसी का भी उदाहरण दिया जा सकता है बल्कि अब तो वर्तमान से भी गवाही दिलवाई जा सकती है।आज भी देश में इसके अनेक प्रमाण मौजूद हैं ।
मुझे बोलने वालों में सबसे अधिक पसंद भजन गायक हैं। वे भगवान के सामने भी झूठ बोलते रहते हैं। उनका मानना है कि भगवान के सामने झूठ बोल कर ही उनसे कुछ हासिल किया जा सकता है। मैं एक ऐसे ही भजन गायक को जानता हूँ जिनका व्यवसाय बहुत दूर दूर तक फैला हुआ है। वे बहुत सम्पन्न व्यक्ति हैं परन्तु भगवान के सामने जब भी मौका मिलता है झूठ बोलना प्रारम्भ कर देते हैं। सबसे पहले तो वे अपने आप को भगवान के सामने भिखारी प्रदर्शित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते। उस समय वे अपनी तुलना किसी भिखारी से न कर के भगवान से करना ज़्यादा अच्छा समझते हैं। बड़े लोगों की यही पहचान होती है कि वे अपने से ज्यादा सम्पन्न लोगों के मुकाबले में अपना आँकलन करते हैं न कि अपने से छोटे के। भगवान के मन्दिर के द्वारे पर जाकर भी वह कहने लगते हैं कि ` मैली चादर ओढ़ के कैसे द्वार तुम्हारे आऊँ' तभी शायद जब भी वे आते हैं चादर ओढ़ के नहीं आते साफ कुर्ता पजामा पहन कर ही आते हैं शायद चादर धुलवाते भी नहीं होंगे। अरे भैया बहुत दिनों से तुम अपनी मैली चादर होने का रोना भगवान के सामने रो रहे हो उसे धुलवा क्यों नहीं लेते साफ करवा कर फिर ओढ़ के आ जाओ किसने मना किया है, किन्तु नहीं उन्हें तो झूठ जो बोलना है।एक और सज्जन हैं वे इनके भी गुरू है आते ही भगवान से विनती करने लगते हैं कि उनकी नाव मँझधार में फँसी है जिसे किनारे लगाना है। है न सरासर सफेद झूठ। आए तो कार में बैठ कर और कह रहे हैं कि नाव मँझधार में फँसी है फिर आप कैसे निकल कर आए और जब रास्ते भी इतने अच्छे हैं तो नाव में अकेले बैठ कर और न जानते हुए भी उसे चला कर आने की क्या आवश्यकता थी। कभी कभी तो नाव की जगह पूरा बेड़ा ही भॅँवर में फँसा देते है फिर भगवान से कहते है कि उसे पार लगाओ। लगता है फेंकने में गजब के माहिर है और वो भी ऐसी जगह फेंक रहे हैं जहाँ दूर दूर तक कोई नदी या तालाब का नामोनिशान तक नहीं। भगवान भी सोचते होंगे कि एक बार उन्होंने डूबते गजराज को मगरमच्छ से क्या बचा लिया हर कोई अपनी नैया भँवर में फँसाने लग गया। अब किस किस को बचाएँ और क्यों बचाएँ जब नाव चलानी नहीं आती तो क्यों चलाई।
एक और हमारे मित्र हैं त्रिपाठी जी। कल मिले तो चेहरा बड़ा लटका हुआ था। मैंनें पूछा क्या हुआ बोले अयोध्या तबादला हो गया। मालूम पड़ा रोज मन्दिर में एक गीत गाते थे `मुझे अपनी शरण में ले लो राम। अब राम जी ने अयोध्या तबादला करवा दिया तो रो रहे हैं। जब तक भगवान ने नहीं सुनी तब तक तो ठीक था और अब जब सुन ली तो झूठ बोलने पर पछता रहे हैं। एक और हैं वे भी झूम झूम कर झूठ का पुलिन्दा बाँचने लग जाते हैं तथा अपने देखे हुए सपने का वर्णन करने लगते है कि ` रात श्याम सपने में आए दहिया पी गए सररर सररर। वे जिस प्रकार इस घटना का वर्णन सबके सामने करते है उनके इस वक्तव्य पर यह पता ही नही चलता कि वो इसका अफसोस मना रहे हैं या प्रसन्न हो रहे हैं। अब एक तो यह बात भी समझ में नहीं आती कि यदि कोई सपने में तुम्हारी किसी चीज़ का उपयोग कर लेता है तो वह तो सपना ही तो है उसमें नुकसान क्या हुआ। इस बात पर इतना गम्भीर होने की क्या आवश्यकता है। दूसरे हमारे यहाँ तो दही को खाया जाता है पिया तो तभी जा सकेगा जब वह छाछ के रूप में होगा अब इसी से पता चलता है कि वे सज्जन लोगों को दही के नाम पर कितना पानी मिला कर बेफकूफ बनाते होंगे कितना पतला दही परोसते होंगे। कभी वे गाते हैं ` छोटी छोटी गैयाँ छोटे छोटे ग्वाल,छोटो सो मेरो मदन गोपाल। जब छोटी छोटी सी गायें है तो उनके बछड़े और कितने छोटे होंगे। क्या खरगोश बराबर ?
एक और क्षेत्र है जहाँ बहुत झूठ चल रहा है। आपका स्वास्थ्य खराब हो गया आप चिकित्सक के पास दिखाने गए उन्होने बहुत सारी जाँच कराने को लिख दीं आप ने जाँच करा भी लीं जाँच की रिपोर्ट भी आ गई क्या परिणाम रहा रिपोर्ट बता रही है कि सब सामान्य है। है न सरासर झूठ। आपकी तकलीफ बढ़ती जा रही है व्याधियों और मर्ज ने आप को आपको घेर रखा है पर कहने को सब सामान्य है। आदमी तो आदमी अब तो मशीनों को भी झूठ बोलने में मज़ा आने लगा है। वे भी झूठ बोल कर आपसे पैसा ठगती रहती हैं। उनके लिए तो आप ही भगवान हो। जब आप भगवान के सामने झूठ बोल कर उन्हें प्रसन्न करना चाहते हैं तो जाँच करने वाली मशीनें भी आपके सामने झूठ बोल कर आपकी रिपोर्ट को नार्मल बता कर आपको प्रसन्न क्यों न करें।
झूठ बोल कर जब देवताओं तक को खुश करने की फिराक में जब आदमी लगा हुआ है तब तो बेचारा आदमी तो झूठ सुनकर खुश होगा ही और यह काम हर उत्पाद के विज्ञापन बखूबी निभाते हैं। कितने कितने सचिन तेन्दुलकर, अमिताभ बच्चन तथा धोनी सरीखे लोग चंद रूपयों की खातिर आप के सामने झूठ बोल कर आपको फाँसने की कोशिश करते रहते हैं। क्या इसी झूठ का अनुसरण करने वाले ये सदी के महान खिलाड़ी या महानायक या भारत रत्न सम्मान पाने के हकदार हैं।
एक दिन मैं भी इन की बातों को सच मान कर केवल दो मिनट में अपने भूखे बच्चों का पेट भरने का विज्ञापन देख कर नूडल्स खरीद लाया और घड़ी हाथ में ले कर खड़ा हो गया। पानी को गैस पर चढ़ा कर उसमें नूडल्स डाल कर जैसे ही दो मिनट पूरे हुए मैंने उन्हें गैस पर से उतार कर खाना शुरू कर दिया। जाहिर है उस दिन उस कम्पनी का मेरे मुख से गालियाँ सुनने का मुहूर्त निकला होगा। फिर एक बार दुबारा कोशिश की। पहले तो पानी उबलने में ही चार पाँच मिनट लग गए। फिर नूडल्स पकने में पाँच सात मिनट लग गए तब जाकर बात बनी। कुल बारह मिनट लगे ।
मुझे लग रहा है अब तो आदमी झूठ बोल रहा है, नेता झूठ बोल रहे है, खिलाड़ी झूठ बोल रहे हैं, अभिनेता झूठ बोल रहे हैं, सरकार झूठ बोल रही है, विज्ञापन झूठ बोल रहे हैं, भगवान के भक्त झूठ बोल रहे हैं, मुकदमे झूठे हैं, गवाह झूठ बोल रहे हैं, पाकिस्तान झूठ बोल रहा है, अमेरिका झूठ बोल रहा है, सब झूठ बोल रहे है। गांधी जी का चरित्र किस किस को सिखलाए कि झूठ बोलना पाप है। यहाँ तो झूठे का ही बोलबाला है और उसे देख कर सच तो स्वयं ही अपने मुँह पर कालिख पोत कर छुपता फिर रहा है।

शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

अतिथि दुष्टौ भव

अतिथियों ने षडयंत्र रचकर समाज में एक अफ़वाह बड़े अच्छे तरीके से फैला रखी है कि ’अतिथि देवो भव’ होता है । वे कहीं भी अतिथि बनने से पूर्व यह खतरा मोल लेना नहीं चाहते हैं कि उनका मेज़बान द्वारा स्वागत सत्कार ढ़ंग से किया जाएगा भी, या नहीं । नास्तिक से नास्तिक व्यक्ति भी एक बार तो देवता के सामने नतमस्तक हो ही जाता है । यदि यह कह दिया जाता कि अतिथि तो साधारण मनुष्य ही होता है तब तो जो व्यवहार देवताओं के साथ होना चाहिए उसके मुकाबले में साधारण मनुष्य के साथ वैसा ही व्यवहार होगा इसमें तो संशय ही बना रहता है इसलिए अच्छा यही है कि देवता ही बन जाया जाए । अब यदि मेज़बान देवता समझकर स्वागत करता है तब तो क्या कहना और यदि व्यवहार ठीक नहीं करता है तो अतिथि का क्या गया अपमान तो देवताओं का ही हुआ तथा मेज़बान स्वयं ही पाप का भागीदार बना ।
अतिथि भी दो प्रकार के होते है । एक तो आपके घर आते है, थोडी देर बैठते है चाय पानी पीते हैं और चल देते है । ऐसे अतिथियों से ज़्यादा परेशानी नहीं होती है लेकिन दूसरी तरह के अतिथि तो पूरे साज़ो-सामान और जच्चा बच्चा के साथ ही आते है वे सिर्फ़ चाय पानी से टरकने वाले नहीं होते । वैसे चाय का आविष्कार करने वाले ने भी क्या खूब चीज़ बनाई है , आज के युग में इस पेय को इतना महत्वपूर्ण बना दिया गया है कि पूछिए ही मत । आप किसी भी दफ़्तर में चले जाइए जिस सीट पर भी कोई कर्मचारी नदारद मिले समझ जाइए अवश्य वह चाय पीने गया होगा । आप किसी के घर चले जाइए उसकी श्रीमती जी आप को चाय पीने पर विवश कर ही देंगी । आप मना भी करे तब भी वे अपनी कार्य कुशलता, चपलता तथा श्रेष्ठ पाक कला विशेषज्ञ का परिचय यह कह कर अवश्य देंगी कि ’बस अभी दो मिनट में बन जाएगी’ जब कि उनके ये दो मिनट दस मिनट से कम नहीं होते । आपने चाय पीना प्रारम्भ ही किया है कि अगला प्रश्न फ़िर सामने आ कर खडा हो जाता है कि ’चाय ठीक तो बनी है न ! शक्कर तो कम नहीं है ? आप को शक्कर कम लग रही है चाय का स्वाद आपको बहुत ही बे स्वाद लग रहा है आप उनसे थोडी सी शक्कर की माँग करने की सोच् भी लेते है लेकिन ऐसे ही वक्त में आप का मन आपको धिक्कारने लगता है कि वास्तविकता प्रगट करके आप अतिथि के स्वागत की अपनी संस्कृति की प्राचीन परम्परा का निर्वाह कर अपनी प्रशंषा के दो शब्द सुनने को आतुर एक गृहणी की आकांक्षा को पल में ही क्या छिन्न भिन्न कर देंगे ? क्या आपके मुख से निकले एक शब्द हाँ या न उसको पाक कला परीक्षा में असक्षम घोषित कर देंगे ?, क्या थोडी सी शक्कर की माँग करते ही आप उसकी नज़रोँ मेँ दिल तोडने वाले जादूगर नहीँ बन जाएँगे और ऐसे ही समय में आप उस ब्रह्म वाक्य को कि यदि ‘सत्य कडवा हो तथा उससे किसी का अहित होता तो उसे उजागर नही करना चाहिए’, याद करके असत्य जो हितकारी है बोल देते है कि ’नहीं बहुत अच्छी बनी है’ । उस समय उसके चेहरे पर आए प्रसन्नता के भावों का वर्णन तो कवि कालिदास भी नहीं कर सकते थे । आपने अपने इस कार्य से एक तीर से दो निशाने लगा लिए थे । एक तो किसी की प्रशंषा कर के उसका दिल जीत लिया था और दूसरा आपने अपने इस दोस्त के घर अगली बार आने पर चाय के साथ साथ कुछ पकोडे, नमकीन या बिस्किट भी परोसे जाएंगे इस आशा को भी बलबती बना दिया था ।
मुझे लग रहा है कि मैं विषय परिवर्तन कर गया ,अतिथि की बात करते करते चाय और शक्कर् पर अपना ध्यान केन्द्रित कर गया । ऐसा अधिकांश बड़े लेखक भी कर जाते है । वे कभी सरल रेखा में नहीं चलते हमेशा लम्बे मार्ग पर चल कर ही मुख्य विषय पर वापस आते है । मेरी भी गिनती यदि उन लोगों में होने लगे तो क्या बुराई है ?
जैसा कि अतिथि शब्द से ही प्रगट होता है अतिथि के आने और जाने की कोई तिथि नहीँ होती है । इस श्रेणी के प्राणियोँ की अनेक विशेषताएँ होतीँ हैँ । ये लोग देश मेँ पर्यटन व्यवसाय को बढावा देने के शौकीन होते है इसलिए शहर के दर्शनीय स्थलोँ पर आपको ले जाने के लिए अनुरोध अवश्य करते है तथा आपको उनके इस पुनीत कार्य को सम्पन्न कराने मेँ तन मन और धन से सहयोग करना पडता है । ये लोग अच्छे खाने पीने के भी शौकीन होते है तथा अपने स्वयँ के घर मेँ प्रतिदिन खाने वाले साधारण खाने की जगह देवो भव होते ही स्वादिष्ट पकवान, मिष्ठान आदि को मेजवान द्वारा घर मेँ या बाहर होटलोँ मेँ खिलाए जाने पर भी परहेज नहीँ करते क्योँकि देवताओँ की श्रेणी मेँ आने के बाद् मात्र दाल चावल खाना क्या शोभा देगा । ये लोग अतिथि बनने के बाद अच्छे कपडे पहनने के तथा खरीदारी के भी शौकीन होते है एवँ अपने घर जाने पर अतिथि देवो से वापस मनुष्य बनने पर पुन: पुराने कपडे तथा साधारण खान पान प्रारम्भ कर देते है तथा देवता बनने पर गर्व नहीँ करते हैँ ।
कुछ वर्षों पूर्व तक हमारे शहर कोटा में अतिथि सत्कार की श्रेष्ट परम्परा थी । कोई भी किसी दूसरे शहर से हमारे शहर में आता तो मेज़बान उनके आगे पलक पाँवडे बिछा दिया करते थे और यदि पलक पावड़े बिछाने लायक न हों तो पलंग, फ़िर मंगाई जाती थी कोटा की कचौरी और यदि कुछ महिलाएं भी साथ हों तो दिखाने ले जाते थे कोटा साडी का बाज़ार । उसका एक लाभ यह होता था कि जब देवी समान भाभी जी अपने लिए साड़ियाँ पसन्द करतीं थीं तो मेजबान का भी मन हो जाता था और वो भी इस सेल में अपना योगदान दे दिया करतीं थीं क्योंकि कोई महिला साडी की दुकान से खाली हाथ वापस नहीं आ सकती।
अब जब से यह शहर शिक्षानगरी बना है और यहाँ के कोचिंग संस्थानों में पढ़ने वाले छात्रों ने विभिन्न परीक्षाओं में आशातीत सफ़लता अर्जित कीं हैं इस शहर में अतिथियों की संख्या में तो बृद्धि हो गई किन्तु अतिथि सत्कार में कमी आ गई । आप अपने किसी रिश्तेदार के अतिथि बनने के लिए कोटा से बाहर किसी दूसरे शहर में जाइए आप के रिश्तेदार के पडौसियों को यह सूचना मिलते ही कि आप कोटा से आए हैं वे आप से मिलने चले आएंगे और फिर होगी आप से कोटा शहर के कोचिंग संस्थानों की पूछ्ताछ । आप भी एक कोचिंग संस्थान विशेषज्ञ की भाँति सब को बढ़ चढ़ कर सूचनाएं प्रदान करते रहते हैं । ’हम सोच रहे हैं कि अपने बेटे तनुज को भी आपके कोटा में कोचिंग के लिए भिजवा दिया जाए’। कोई तनुज को तो कोई अनुज को, कोई बबली को तो कोई रश्मि को, सभी उसे आपके शहर में भिजवाने को, शहर की जनसँख्या बढाकर उसे महानगर बनाने की श्रेणी मेँ लाने को और आप के अतिथि बनने को आतुर बैठे हैं ।
" अजी सुनो जी ! भाईसाहब का फोन नम्बर ले लीजिए हम कोटा आएंगे तो आप को ही तकलीफ़ देंगे, और तो वहाँ हम किसी को जानते नहीं । उस समय तो आप खुशी खुशी उन्हें अपना फोन नम्बर दे देते है किन्तु थोडे दिनों के बाद ही जब वे आपके नगर में आकर आपसे सहयोग की कामना करते हैं तो आपका बहुत सा समय उनके साथ कोचिंग संस्थान, किराए के मकान या हॊस्टल, या खाने के मैस की तलाश में गुज़र जाता है। उस समय यह महसूस होता है कि कभी कभी देवताओं की संगत भी भारी पड़ सकती है और अतिथि चाहे कुछ भी हो सकता है ’देवो भव’ तो कतई नहीं ।
चलते चलते आपको एक सलाह दिए देता हूँ । यदि आपके सामने भी कभी ऐसी नौबत आए तो पहले तो इस बात से साफ़ मुकर जाइए कि आपकी किसी कोचिंग संस्थान में थोडी भी बहुत पहचान है दूसरे कभी उनको अपना लैण्ड लाइन फोन नम्बर मत दीजिए देना ही है तो मोबाइल नम्बर ही दें कम से कम आप उनको मोबाइल पर यह तो कह सकते हैं कि आप शहर से बाहर है वे कौन सा आपके मोबाइल की कॊल डिटेल या पोज़ीशन निकलवाएंगे ।

बुधवार, 12 मई 2010

देश प्रगति कर रहा है

मुझे बहुत दिनों बाद ये बात महसूस हुई कि अपना देश प्रगति कर रहा है । वैसे सुनता तो एक लम्बे समय से आ रहा था कि देश प्रगति कर रहा है परन्तु जब भी घर से बाहर क़दम रखता टूटी हुई सड़क और उसमें जगह जगह गन्दगी के ढ़ेर देख कर विश्वास नहीं होता था कि वाकई ऐसा हो रहा है किन्तु अभी कुछ दिनों से ऐसा लग रहा है कि ऐसा हो रहा है । हुआ यूं कि एक दिन अचानक कुछ लोग एक ट्रक में आए और उसमें रखॆ हुए बिजली के खम्बे हमारे घर के सामने की सड़्क पर जगह जगह उतारने लगे । बिजली के खम्बे पहले भी सड़क पर लगे हुए थे पर उनमें बिजली नही जलती थी वे महज सीमेन्ट के ही खम्बे थे । पूछने पर मालूम हुआ कि यहाँ की सड़क को चौडा किया जाएगा इस लिए अभी जिस जगह खम्बे लगे हुए है उन्हें हटाकर कुछ और पीछे सड़क के किनारे लगाया जाएगा जिससे सड़क चौडी़ हो जाएगी । मैं उनके सड़क चौडा करने के इस महत्वपूर्ण तरीके पर उनकी बुद्धिमता का कायल हो गया । सोचने लगा यदि बिजली के खम्बों को हटाए बिना ही सड़क चौडी कर देते तो लोग नाहक ही इस बात से कन्फ़्यूज़ हो जाते कि उन्हें खम्बे के आगे से निकलना है या पीछे से । वाह ! भई, क्या सोच है ।
कुछ दिन फिर कोई हलचल नहीं हुई मुझे लगा कि देश की प्रगति में कुछ रुकावट आ गई है किन्तु नहीं साहब ! कुछ दिन बाद फिर लोग आए और सड़क के किनारे गड्डे कर गए । वैसे भी सड़क पर पहले से ही इतने गड्डे थे कि खम्बे कहीं भी लगा सकते थे पर उससे सड़क चौडी कहाँ होती ? देश की प्रगति तो सड़क के किनारे पर गड्डे कर के उनमें बिलजी के खम्बे लगा कर सड़क चौडी करने में ही निहित थी । आज लेकिन एक बड़ा महत्वपूर्ण कार्य हुआ था । कामगारों के इस प्रकृति को कि एक बार में एक ही तरह का कार्य करेंगे जैसे जिस दिन खम्बे हटाने हैं तो उस दिन खम्बे ही हटाएंगे, जिस दिन गड्डे करना है तो सिर्फ़ गड्डे ही करेंगें में एक विशेष संशोधन किया गया था, आज गड्डों के साथ ही साथ खम्बे भी लगाए जा रहे थे । शाम तक सड़क पर खम्बे ही खम्बे दिखाई दे रहे थे । कुछ पुराने और कुछ नए । फिर कुछ दिनों का अन्तराल आ गया जैसे किसी टीवी धारावाहिक में थोडी थोडी देर में ब्रेक आ जाता है । इसके बाद कई एपीसोड तक घरों की बिजली घन्टों तक बन्द करके पुराने खम्बों से तार ह्टाए गए उन्हें नए खम्बों में लगाया गया फिर बिजली बन्द करके पुराने खम्बों से लाईटें निकाली गईं उन्हें नए खम्बों में लगाया गया, फिर पुराने खम्बे हटाए गए, उन्हें सड़क पर ही पटक दिया गया, फिर मुझ से चाय पिलाने की फ़रमाइश की गई उससे पूर्व ठण्डा पानी मांगा गया तथा ज़माना खराब है जैसे चालू वाक्यों को बोलकर देश की प्रगति की दिशा में एक कदम आगे वढ़ा कर उन्होंने अपने अपने क़दम भी आगे बढ़ा दिए ।
अब देखने से लगने लगा था कि सड़क चौडी हो गई है और उसकी सीमा बिजली के खम्बों तक मानी जा सकती थी लेकिन उस चौड़ाई को सड़क कहना मुनासिब नहीं था क्योंकि सड़क की जगह तो गड्डों वाला स्थान था सड़क तो अब बननी शुरु होनी थी और न जाने कब बननी शुरु होनी थी क्योंकि जो बिजली वाले हैं वे सड़क नहीं बना सकते थे और जो सड़क बनाने वाले है वे बिजली के खम्बों के चक्कर में आते नही थे । हम लोग इन्तज़ार कर रहे थे कि कब शाम हो और नए खम्बों पर लगाई गईं लाइटे हमारे घर के बाहर सड़क को रोशन करें । शाम होने का इन्तज़ार हमें ज़्यादा देर तक नहीं करना पडा इसका मतलब यह नहीं कि उस दिन शाम जल्दी ही हो गईं थी वरन जब खम्बे लगाने का कार्य पूरा हुआ तब तक तो शाम होनी ही थी । कामगारों का सबसे प्रमुख कार्य यही होता है कि वे शाम होने का इन्तज़ार करें जिससे वे अपना काम बन्द कर के घर जा सकें या उनका कार्य ही तब समाप्त हो्ता है जब शाम हो जाए ।
शाम का अंधेरा होते ही हमारी नज़रें जो बहुत देर से बिजली के खम्बों की लाइटों पर टिकी थीं धीरे धीरे चेहरे पर अनेक तरह के रसों के भाव प्रकट करते हुए नीचे झुकतीं चलीं गईं क्योंकि लाइटों ने उस दिन हडताल कर दी थी और उनके बल्ब गाए जा रहे थे कि ’ मैं तो आशिक हूँ रात की स्याही का’ । लाईटें उस रात नहीं जलीं । दूसरे दिन मेरे मोहल्ले के लोग मेरे पास आए वे कुछ गलतफ़हमी या किसी षडयंत्र के कारण मुझे बुद्धिजीवी तथा एक जागरूक नागरिक समझते थे तथा यह भी समझते थे कि किसी भी परेशानी की शिकायत उस शिकायत से सम्बन्धित महकमे में करना एक बुद्धिजीवी तथा जागरूक नागरिक का ही काम होता है । जाहिर है उन लोगों ने मुझे इस कार्य के लिए बिलकुल उपयुक्त समझा था कि मैं लाइटे न जलने की शिकायत करके आउँ । मैं नगर निगम के कार्यालय में पहुंचा । उन्होंने हाथ खडे़ कर दिए हाथों का ये फ़ायदा है कि उनसे अनेक कार्य लिए जा सकते हैं जैसे हाथ जोड़ना, हाथ खडे़ करना, हाथ चलाना, हाथ पसारना, हाथ बांटना, हाथ मारना, हाथ फैलाना आदि । वे बोले यह कार्य तो आजकल हम नहीं नगर विकास न्यास वाले करवा रहे हैं आप उनके कार्यालय में सक्सेना जी से बात कीजिए । नगर विकास न्यास के कार्यालय की हालत देखकर लगता था कि नगर से पहले उन्हें खुद के कार्यालय के विकास की अत्यधिक आवश्यकता थी । "सक्सेना जी का तो दो महिने पहले तबादला हो गया आप क्या बार्ड पार्षद हैं" ? मैंने कहा ’नही’ ।’फिर आप शिकायत लेकर कैसे आए है’ ? वहाँ पर बैठे हुए एक सज्जन ने पूछा । ’वैसे ही मैं उस मुहल्ले का एक जागरूक नागरिक हूँ इसलिए आया हूँ"। लगता है आपने भी टीवी पर ’जागो ग्राहक जागो’ वाला विज्ञापन देख लिया है " आप मिश्राजी से बात कर लीजिए वे तो आए नही लेकिन उनका मोबाइल नम्बर ले लीजिए । मिश्रा जी से मेरी बात हुई मैंने उन्हें अपने मोहल्ले की तकलीफ़ बताई । वे बोले ये सारा कार्य हमने ठेके पर दिया हुआ है उसके लिए तो ठेकेदार से मिलना पडेगा । ’देश की प्रगति में ठेकेदार की भूमिका’ विषय सम्मुख आते ही मेरी आँखों के सामने एक लम्बा सा निबन्ध घूमने लगा । मुझे लगा बात इतनी आसान नहीं है क्योंकि जहाँ पर ठेकेदार है वहाँ उससे सम्बन्धित उस राग को गाने वाले मंत्री से लेकर अफ़सर, बाबू, चपरासी बहुत से लोग होंगे, ठेकेदार तो सिर्फ ठेका लगाने के लिए ही होगा । मुझे यह जानकर संतोष हुआ कि जब सड़क चौडी करने के मामले में ही इतने सारे लोग संलग्न हैं तब तो देश की प्रगति में जाने कितने लोग लगे होंगे तभी तो मुझे महसूस हो रहा है कि देश प्रगति कर रहा है ।

बुधवार, 5 मई 2010

सिनेमा और जवानी दर्शन

किसी भी शहर की विशालता का अनुमान पहले इस बात से लगाया जाता था कि उस जगह कितने सिनेमाघर है। दिल्ली में चालीस सिनेमाघर थे तो मुम्बई में साठ सत्तर। कोटा में शुरूआत में नटराज, मोहन तथा बृज सिनेमाघर ही गिनाए जा सकते थे। छुट्टियों में रिश्तेदारों के बच्चे कोटा आते तो बताने में शर्म आती थी कि यहां मात्र तीन सिनेमाघर ही है। धीरे धीरे सरोवर, मनोज, मयूर तथा आकाश सिनेमाघरों के निर्माण हुए जिससे यहाँ के लोगों में शर्मसार होने में कमी आई। उस समय कितनी बेशर्म किस्म की फिल्में इन सिनेमाघरों में लगा करतीं थीं जो एक बार लगने के बाद उतरने का नाम ही नहीं लेतीं थीं। ऐसा नहीं कि वे फिल्में उतरना नहीं चाहतीं थीं वो तो यहाँ के लोग ही ऐसे थे कि उनको उतरने ही नहीं देते थे। फिल्म शुरू होने का वक़्त हुआ नहीं कि उसके पहले ही लम्बी लम्बी लाइनें लगाकर खड़े मिलते थे। और चलिए एक बार देख ली दो बार देख ली परन्तु यह क्या कि पांच पांच बार देखे चले जा रहे हैं। फिल्में सिनेमाघरों के मालिकों के सामने गिड़गिड़ाती रहतीं कि अब हमें दूसरी जगह जाने दो लेकिन उन पर कोई असर ही नहीं होता था। महिनों तक ’पूरब पश्चिम’ की सायरा बानो मिनि स्कर्ट में सिनेमाघर की दीवार पर लटकी-लटकी अपनी टांगे दिखाती रहती थी उस समय उसके मिनि स्कर्ट पर किसी को एतराज़ नहीं था। गब्बर सिंह भी दिन भर पोस्टर पर चिपके चिपके सड़क पर नज़रें लगाए रहते थे कि कितने आदमी हैं ?

उस समय फिल्म देखने जाना किसी महायज्ञ से कम नहीं होता था। पहले फिल्म का चयन होता था फिर शो शुरू होने के एक घण्टे पहले नियत स्थान पर पहुंचा जाता था फिर लाईन में लगना पड़ता था। इस कार्य के लिए महिलाओं को प्राथमिकता प्रदान की जाती थी। अन्य परिवार के लोग हनुमान चालीसा का पाठ करते रहते थे जिससे टिकट की खिड़की पर पहुंचते ही ऐन वक्त पर टिकट समाप्ति की घोषणा न हो जाए। खुदा न खास्ता यदि टिकट मिल भी जायें तो हॉल के अन्दर घुसने के लिए भी मशक्कत करनी पड़ती थी और हॉल के अन्दर जाने पर मालूम होता था कि फिल्म शुरू हो चुकी है और उसका बहुत सा हिस्सा निकल भी चुका है। हॉल के अन्दर हाथ को हाथ भी नहीं सूझता था बाहर भी नहीं सूझता हैं क्योंकि हाथ में आँखें नहीं होतीं हैं । बड़ी मुश्किल से सिनेमा देख रहे अन्य दर्शकों से गालियाँ खाते हुए अपनी सीट तक पहुंचते थे। उस समय देखने को फिल्म होती थी और साथ साथ खाने को मूंगफली। यह भावना भी सब के मन में रहती थी कि सिनेमाघर के बेचारे सफाई कर्मचारियों को भी कुछ काम मिले इसलिए मूंगफली के छिलके वहीं सीट के आसपास स्थान पाते रहते थे। इतना कुछ होने के पश्चात किसी फिल्म देखने का आयोजन सम्पन्न होता था। दुर्भाग्य से यदि हनुमान जी अपनी प्रशंसा को सिनेमा जैसे कार्य के लिए उपयोग में लाने को उचित न समझें और अपने चालीसा का असर दिखाने से मना कर दें और टिकट न मिलें तो मन धिक्कारता था कि - लानत है ऐसे जीवन पर कि फिल्म देखने गए और बिन देखे लौट के बुद्धू वापस घर लौट आए ऐसी स्थिति में तुरत फुरत किसी दूसरे सिनेमाघर की ओर कूच करते थे और कोई न कोई अच्छी बुरी फिल्म देख ही आते थे ।

अब समय बदल गया है अब दिन भर टी वी और वीडियों सीडी के माध्यम से फिल्म देखते देखते लोग ऊब चुके है। अब फिल्म देखने में कोई संघर्ष नहीं रह गया है और जब कोई चीज आसानी से उपलब्ध हो जाए तो उसमें मज़ा भी नहीं रहता। सिनेमाघरों में जाना तो अब भूली बिसरी बातें हो गईं परिणाम यह हुआ कि सिनेमाघरों की हालत पतली हो गई कुछ तो बन्द हो गये कुछ यह सोच कर मिट्टी में मिल गए कि जब सबको मिट्टी में ही मिल जाना हैं तो वे अभी से ही क्यों न मिल जाएं। फिर भी जो कुछ बचे रहे उन्होने यहाँ तेजी से फल फूल रहे कोचिंग संस्थानों से प्रेरणा लेकर सिनेमाघरों को अंग्रेजी फिल्मों के माध्यम से अनपढ़ और छोटे तबकों के लोगों को महिलाओं के शरीर विज्ञान तथा अंग्रेजी विषय की शिक्षा देने का कार्य प्रारम्भ कर दिया। इस शिक्षण कार्यक्रम से ही लोगों ने जाना कि जवानी की अनेकों किस्में होतीं है। जैसे मचलती जवानी. सिसकती जवानी, तड़पती जवानी, जवानी दीवानी, प्यासी जवानी, आदि। वैसे इन फिल्मों के नाम तो कुछ उलूल जुलूल टाइप के होते है किन्तु उनके हिन्दी अनुवाद उन्हें घुमा फिरा कर जवानी की ओर ले आते है। जो लोग यह रोना रोते है कि हिन्दी में अच्छे अनुवादकों की कमी है वे गलत सोचते हैं। ऐसे शिक्षण कार्यक्रम नाबालिगों के लिए नहीं चलाए जाते क्योंकि यदि वे बचपन में ही समझ गए कि जवानी क्या और कैसी होती है तो जवानी में क्या समझेंगे और जिनकी जवानी निकल गई वे भी यह सोच कर इन कार्यक्रमों में पहुंच जाते है कि वे भी तो जानें कि उनकी जवानी जो बीत गई है, किस किस्म की थी।