रविवार, 22 मार्च 2009

किस्म किस्म के कवि

हमारे शहर में कवि सम्मेलनों तथा कवि गोष्ठियों की एक स्वस्थ्य परम्परा है। तीस चालीस कवियों के बीच अपनी तीन चार मिनट की रचना को सुनाने के लिए तीन चार घण्टे बैठ कर अपनी बारी की प्रतीक्षा करना तथा दूसरों की अच्छी बुरी रचनाओं को पचाना एक स्वस्थ्य कवि का ही काम हो सकता है। जब कवि स्वस्थ रहेगा तभी स्वस्थ्य परम्परा का निर्वाह हो पाएगा । इन कवि सम्मेलनों के साथ ही साथ अच्छे अच्छे कवियों को हूट करने की भी पुष्ट परम्परा हमारे शहर में वर्षों से चली आ रही है। देश भर में अपनी रचनाओं के माध्यम से मंच पर छा जाने वाले नामी गिरामी कवि जब हमारे शहर में भी अपनी श्रेष्ठ रचनाओं के बलबूते पर जमने का प्रयास करते है तो यहॉ के श्रोता इनको धूल चटाने को बेकरार बैठे रहते हैं। ये आयोजन अक्सर रात में आयोजित होने के कारण ही संभवतः यह कहावत ईजाद हुई होगी कि द्यजहॉ न पहुंचे रवि वहॉ पहुंचे कवि' परन्तु अब तरीका बदल गया है अब भरी दुपहरी में भी जब रवि हर जगह पहुंच रखता हो कवि भी गोष्ठियों और सम्मेलनों में पहुंच जाते हैं।
मुख्यतः कवि अनेक प्रकार के होते है । पहले वे जो बुजुर्ग कवि हैं और गोष्ठियों में इसलिए आते हैं कि यदि वे न गये तो अध्यक्षता कौन करेगा मुख्य अतिथि का क्या होगा। उनके न जाने से किसी भी ऐरे गैरे को बना दिया जाएगा जिससे साहित्य का स्तर गिरेगा और गोष्ठियों की गरिमा का पतन होगा। साहित्य के संरक्षण के लिए उनका यह योगदान अत्यन्त आवश्यक है। एक लाभ यह भी होता है कि दूसरे दिन समाचार पत्रों में भी आयोजन के समाचार में अन्य कवियों के नाम चाहे प्रकाशित हों या न हों इन लोगों के नाम प्रमुखता से प्रकाशित हो जाते हैं कि अध्यक्षता फलां ने की तथा मुख्य अतिथि फलां फलां थे। वैसे भी इस श्रेणी के कवि अपने काम धाम से सेवा निवृत हो चुके होते है इसलिए यह सोचकर भी आ जाते है कि घर में दिन भर बोर होने से अच्छा है कि कवि गोष्ठियों में ही बोर हुआ और किया जाए। ये पढे लिखे विद्वान तथा समझदार होते हैं राजनीति के क्षेत्र की भॉति नहीं जहॉ बुजुर्ग होने से ही काम चल जाता हो। अध्यक्ष या मुख्य अतिथि बनने वालों के सामने यह मजबूरी रहती है कि उनको अध्यक्षीय उद्बोधन तथा अपनी रचना सुनाने का अवसर गोष्ठी के अंत में ही प्रदान किया जाता है जो उनके लिए कष्टदायक होता है किन्तु वे इसका बदला अपने उद्बोधन तथा अपनी नीरस रचनाओं को सुना कर ले लेते हैं। वे अपनी दो तीन रचनाएं सुनाकर सबसे यह भी पूछते है कि यदि आज्ञा हो तो एक रचना और सुना दूं और सब लोग न चाहते हुए भी आज्ञा दे देते हैं। इन की रचनाओं में दोहे, कुण्डलियां, छन्द, गीत, छप्पय तथा सवैया प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं।
दूसरी श्रेणी के कवि कुछ अधेड़ आयु के होते है। वे प्रारम्भ से ही यह मान कर चलते हैं कि ज़माना बहुत खराब है तथा देश की हालत बहुत पतली है। वे शिवाजी, महाराणा प्रताप, महात्मा गांधी, लक्ष्मी बाई, तथा अन्य महापुरूषों को अपनी रचनाओं के माध्यम से मजबूर करते रहते हैं कि उन्हें इस भारत भूमि पर फिर से जन्म लेना ही पडेगा। वे हमेशा इस बात का रोना रोते रहते हैं कि आजकल कवि सम्मेलनों का स्तर बहुत गिर गया है तथा मंच पर सिर्फ चुटकुलेबाज़ी तथा फूहड़ हास्य रचनाओं का ही बोलबाला हैं किन्तु ऐसे कवि सम्मेलनों के आयोजनों में आमंत्रण मिलने पर कवियों की सबसे पहली पंक्ति में बैठे दिखाई पड़ते हैं।
प्रत्येक कवि सम्मेलनों के प्रारम्भ में मां सरस्वती के चित्र पर माल्यार्पण तथा दीप प्रज्वलन के साथ ही साथ सरस्वती वन्दना सुनाने की भी परम्परा है। ऐसे कवि अपनी रचनाओं के साथ एक सरस्वती वन्दना भी रखते है क्योंकि सरस्वती वन्दना सुनाने वाले को अपनी रचना पढ़ने का दुबारा मौका भी मिलता है अर्थात्‌ अन्य कवियों के अलावा दुगने अवसर प्राप्त होते है । सरस्वती वन्दना को लोग रचना की श्रेणी में नहीं मानते तथा सब के मन में यह धारणा रहती है कि यह तो कोई भी लिख कर सुना सकता है। इन्हें अतुकान्त रचनाओं से परहेज होता है।
तीसरी श्रेणी के कवि कुछ जवान किस्म के होते है तथा जवान दिखने का प्रयास भी करते है। इस तरह के कवि कब कहॉ, क्या कह जायें इसका कोई भरोसा नहीं। मुख्यतः इनकी रचनाओं में ऐसे विषय शामिल होते जिनसे देशभक्ति का रस टपकता हो जिसे वे अपने अभिनय तथा बुलन्द आवाज़ से श्रोताओं के कानों में पिघले हुए शीशे की तरह डालने की कोशिश करते हैं । बहुत से श्रोता इनकी रचनाओं की अपेक्षा इनके अभिनय से प्रभावित हो जाते हैं। जिन रचनाओं में पाकिस्तान, मुसर्रफ, अमेरिका का उल्लेख न हो तो ये लोग उसे कविता की श्रेणी में नहीं गिनते। आज जब हर कोई आतंकवाद तथा सीमा पर दुश्मनों की हरकतों से परेशान दिखाई देता है तथा उसका हल निकालने में लगा है इस श्रेणी के कवि इन समस्याओं को चलते रहने के पक्ष में रहते हैं क्योंकि उनकी रचनाएं इन्ही समस्याओं पर आश्रित रहतीं हैं। इन समस्यों का हल यदि निकल गया तो फिर बहुत से कवि बेकार हो जाएंगे उनका काम तो इन समस्याओं के बने रहने से ही चल पाता है। कभी कभी ये शृंगार रस में भी डूब जाते हैं।
चौथी श्रेणी के कवि अतुकान्त रचनायें लिखने के बहुत शौकीन होते है क्योंकि काफिया या तुकबन्दी मिलाने की या मात्राएं गिनने की झंझट कौन मोल ले और यदि उनको सुनाने के बाद श्रोताओं की प्रशंसा मिले तब तो रचना अच्छी ही समझी जाएगी किन्तु प्रशंसा न भी मिले तो मान लिया जाता हैं कि रचना उच्च स्तर की है जिसे हर कोई समझ नहीं सकता अर्थात दोनों हाथों में लडडू होते हैं। वैसे ऐसी अधिकांश रचनाओं को लिखने वाला ही समझ पाता है पर कुछ लोग न समझते हुए भी समझ जाने की समझदारी दिखाते हैं। पत्र पत्रिकाऐं जिन्हें कोई नहीं पढता में ऐसे कवियों की रचनाऐं खूब प्रकाशित होती रहतीं हैं किन्तु कवि सम्मेलनों में इनकी मांग बहुत कम होती है़।
पॉचवीं श्रेणी के कवि बालकवि होते है । उनके द्वारा पढी जाने वाली रचनाएं उनके पिता या चाचा द्वारा लिखी जातीं है क्योंकि इनकी रचनाओं के जो विषय होते है वे अधिकतर क्षेत्रीय भाषा में पति पत्नी की तक़रार या घरवाली पर केन्द्रित होते हैं जिसका तजुर्बा उनको आगे चल कर होगा । ऐसे बाल कवियों के पिताश्री जो स्वयं अपने आप को कवि समझते हैं कवि सम्मेलनों में बार बार हूट होने के कारण ही अपनी कविता को अपने बच्चों के मुख से लोगों को सुना कर उनसे प्रशंसा पाकर आत्म संतुष्टि प्राप्त कर लेते हैं। इस बात से सभी परिचित रहते हैं कि बाल कवियों द्वारा सुनाई जाने वाली रचना उसके द्वारा लिखी ही नहीं जा सकती फिर भी अन्य कवि उसकी रचना पर इस तरह वाह वाह करते है जैसे उसी ने लिखी हो। इन बाल कवियों हेतु उनके माता पिता अच्छी डिजायन का कुरता पजामा भी सिलवा देते हैं क्योंकि कवियों की रचनाएं भले ही दमदार न हों उनका कुर्ता पजामा दमदार होना चाहिए।
छंटवीं श्रेणी में कवित्रियां आती हैं । इनकी रचनाओं में ससुराल पक्ष के सदस्यों का वर्णन प्रचुर मा्रत्रा में पाया जाता है। बलमा, सजना, सासु, ननद, भौजाई, मां, बहनों तथा गहनों के उल्लेख के अलावा इनकी अपने पति से हमेशा शिकायत रहती है कि वे उसे मेले में नहीं ले जाते । किसी अन्य विषय पर इनके द्वारा रचना पाठ करने पर सब उन्हें शक की निगाह से देखते हैं कि यह रचना किसी और कवि ने उनको लिखकर दी है जिसे वे अपने नाम से सुना रहीं हैं। मंच पर इनकी उपस्थिति एक रोमांच पैदा करती है तथा सम्मेलन या गोष्ठियों के संचालकों को उनसे चुहलबाजी करने का मौका मिल जाता है।
इस तरह हमारे शहर में विभिन्न श्रेणियों के हजारों कवि और कवियत्रियां हैं । सभी कवि स्वयं को बहुत उच्च स्तर का तथा दूसरे कवियों को निम्न स्तर का समझते हैं इसलिए मौका पाते ही दूसरों की बुराई करने से भी नहीं चूकते हैं। विभिन्न मेलों के समय का मौसम इनकी संख्या में वृद्धि के लिए अत्यन्त अनुकूल होता है। उस समय तो यदि आप ऑंख बन्द करके किसी भी दिशा में कोई पत्थर उछालें तो वह जिसको भी लगेगा वह कोई कवि ही होगा।

1 टिप्पणी:

Atul CHATURVEDI ने कहा…

शरद जी अच्छे व्यंग्य लिख रहे हैं , काम जारी रखें बधाई