सोमवार, 21 सितंबर 2009

साक्षात्कार गाँव वालों का दूरदर्शन द्वारा

(नेट पत्रिका ’रचनाकार’ द्वारा आयोजित व्यंग्य लेखन प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त)

उड़ती हुई धूल, बच्चों में सबसे अधिक गंदे दिखने वाले कुछ बालक बालिकाएं जिनकी नाक के दोनों नथुनों से जमना गंगा की उच्छल जलधि तरंग बहने का आभास हो रहा था और वे बालक बालिकाएं जो यदा कदा इस सच्चाई को भी उजागर कर दिया करते थे कि यदि प्रयास किया जाये तो बहती हुई धारा को भी उसके उदगम स्थल तक वापस मोड़ा जा सकता है क्योंकि गांव वालों में अभी भी रूमाल रखने का चलन नहीं था अतः उसका काम वे लोग किसी के मकान की दीवार से या अपने शरीर के पृष्ठ भाग के उपयोग से चला लिया करते थे। जानवरों के सींग, पैर, पूंछ, खुरों तथा गुप्तांगों जिनको जिन्हें गुप्त रखने की जरूरत उनको कभी भी नहीं हुई को दर्शाता हुआ नदी पर नहाती कुछ ग्राम्य बालाओं जिनका चीर हरण करने की जरूरत नहीं थी के रूप से छेड़छाड़ करता हुआ दूरदर्शन का कैमरा, गांव की एक मात्र मिठाई की दुकान ‘हनुमान मिष्ठान भंडार’ के मालिक राम प्रसाद अग्रवाल के मुख मंडल पर आ कर ठहरता है। राम प्रसाद जी के कपड़ों को देख कर यह बताना मुश्किल था कि उनके कपड़े सफेद थे जो मैल के कारण काले हो गए थे या काले थे जो मैल के कारण सफेद दिखाई दे रहे थे। कुल मिला कर मैल तथा कपडों में ‘मैं तुम में समा जाऊं तुम मुझ में समा जाओ’ की स्थिति थी।
दुकान में मात्र 3 य 4 छोटे थाल ही रखे हुए थे जो अपने आप को मिष्ठान भंडार का कैबिनेट स्तर का सदस्य मान कर इतरा रहे थे। उनमें लड्डू तथा पेड़े का भ्रम पैदा करने वाली जो मिठाईयां रखी हुई थीं उनके रंगों का शैड बड़ी से बड़ी पेन्ट बनाने वाली कम्पनी के शैड कार्ड में खोजना भी अत्यन्त दुश्कर कार्य था । थाल के चारों ओर किनारे पर मक्खियां इस तरह बैठीं थी जिस तरह किसी तालाब के जनाना घाट की दीवार पर लोग बैठे रहते है। सभी मक्खियां मिठाइयों के स्वाद के प्रति उदासीन थीं क्योंकि वर्षों से एक ही स्वाद को चखते चखते वे भी ऊब गईं थीं।
दुकान के बाहर दुकान का बोर्ड भी लगाया गया था जो प्राचीन भित्ति शैल चित्रों की लिखावट में लिखा हुआ प्रतीत होता था तथा किसी पोलिओ ग्रस्त बालक की भांति लटक रहा था। राम प्रसाद हर आने जाने वाले को बताया करते थे कि दुकान का यह बोर्ड उनके बेटे ने ही लिखा है जिसकी ड्राइंग बहुत अच्छी है तथा वह सीनरी बहुत अच्छी बनाता है। उनके बेटे द्वारा बनाई गई सीनरी में भी वही दो पहाड़ थे जिनके बीच में से सूर्य उदय हो रहा था । सूर्य और पहाड़ उस समय ऐसे लग रहे थे मानो दो पुलिस वाले किसी चोर को पकड़ कर ले जा रहे‚ हो बाद में बताया गया कि वह सूर्योदय नहीं था वरन् सूर्यास्त का नज़ारा था क्योंकि आज की पीढ़ी को तो पता ही नहीं कि सूर्योदय कैसा होता है । इसके अतिरिक्त एक नदी थी जिसमें लबालब पानी भरा था। पानी के रंग के बारे में यह मान्यता होने के बावजूद की वह रंगहीन होता है उस सीनरी में गहरे नीले रंग का पानी दिखाया गया था जो गांव की नदी के गंदे पानी की तरह ही गंदा दिख कर वास्तविकता दिखा रहा था। नदी में एक नाव थी जिसमें दो आदमी दो डण्डेनुमा पतवार लेकर आपस में झगड़ने की स्थिति में प्रतीत हो रहे थे। पहली नज़र में वे दोनों अडवानी और बाजपेयी जैसे लग रहे थे।
कैमरे की तरफ देखने के लिए मना करने के बावजूद भी राम प्रसाद जी कैमरे की तरफ देख लिया करते थे। दुकान को घेर कर खड़े हुए कुछ लोग उंगलियों से इस तरह इशारा कर रहे थे जिस तरह कालिदास ने शास्त्रार्थ के समय राजकुमारी विद्योतमा को देख कर किए थे। दूरदर्शन के प्रतिनिधि के हाथ में एक डण्डा था जिसका मुख लाला राम प्रसाद जी की ओर था । उसे देखकर ऐसा लग रहा था कि यदि प्रतिनिधि के पूछे गए सवालों का राम प्रसाद जी ने सही सही उत्तर न दिया तो वो उस के मुंह में घुसेड़ देंगे ।बाद में पता चला कि वह डण्डे नुमा चीज़ माईक थी । प्रतिनिधि सब कुछ जानते बूझते भी राम प्रसाद जी से एक ऐसा प्रश्न पूछता है जिससे दुनिया का प्रत्येक वार्तालाप प्रारंभ होता है ।
‘आपका नाम क्या है ।
राम प्रसाद जी इस खतरे को भांपते हुए कि अब अगला प्रश्न उनके बाप के बारे में ही पूछेगा पहले ही सतर्क हो जबाव देते है ।
‘राम प्रसाद अग्रवाल बल्द श्यामा प्रसाद ग्राम बयाना जिला फलां फलां।
मिठाई की दुकान पर बैठे हुए देख कर भी अनजान बनते हुए प्रतिनिधि दूसरा प्रश्न पूछता है। ‘आप क्या करते हैं ।
‘ मिठाई की दुकान चलाता हूं’।
एक थाल जिसमें तथा कथित लड्डू रखे थे उनकी तरफ कैमरे को घुमाते हुए फिर अगला प्रश्न छूटता है । ‘ ये मिठाई आप कब से बना रहे है’।
‘परसो से’ राम प्रसाद जी उत्तर देते हैं।
‘नहीं मेरा मतलब है कितने वर्षों से बना रहे हैं’।
‘बचपन से ही बना रहे है’। ‘आपकी मिठाई कौन खाते हैं’।
’आदमी, औरतें, जानवर सभी खाते हैं ।
‘आप इन मिठाईयों को ढ़ंक कर क्यों नहीं रखते जानते हैं कि इन पर जो मक्खियां भिन भिना रहीं है पता है उनसे क्या होता है ।
‘हॉ इनसे पता चलता है कि ये मिठाई है और मिठाई के अलावा और कुछ नहीं हैं इनमें मिलावट नहीं है वरन् मीठी हैं।
मक्खियों का ज़िक्र आते ही यह सोच कर कि उनका भी उल्लेख दूरदर्शन वाले कर रहे है सभी ने उड़ कर एक लम्बा चक्कर लगाया और जो मक्खियां बाहर किसी अन्य स्थान पर किसी दूसरे काम में व्यस्त थीं उनको भी यह खुश खबरी सुना कर कि वे दूरदर्शन पर दिखाईं जायेंगी वापस अपनी जगह पर बैठ गईं ।
‘इस दुकान की आमदनी से आप क्या करते हैं ।
‘अपने परिवार का गुजारा चलाते है। उनके खाने पीने की व्यवस्था करते हैं।
‘जिस दिन आपकी मिठाईंयां नहीं बिकतीं उस दिन घर का गुज़ारा कैसे चलता है।
‘उस दिन घर का गुजारा इन्हीं मिठाईयों को खा कर चलता है’।
कैमरा पुनः खेत खलियानों को रौंदता हुआ भीड़ से घिरे एक नवयुवक के ऊपर केन्द्रित होता है। उस युवक को देखकर यह अंदाज लगाया जा सकता था कि उसके चरण अवश्य किसी शहर को कुछ समय के लिए पवित्र कर चुके हैं । छींट दार बुशर्ट तथा जीन्स टाइप पेन्ट पहने देख कर उसे शहर वाले भले ही आधुनिक तथा अच्छे समाज का समझे गांव वाले उसे खेत में खड़े बिजूखा जैसा ही मानते थे इस कारण गांव में बाल विवाह का ज़ोर होने पर भी वह युवक अभी तक कुंआरा था क्योंकि कोई भी उस उजबक को अपनी कन्या नहीं देना चाहता था ।उनकी नज़र में शहर की हवा खाने वाले गांव के सभी युवक गंवारों की श्रेणी में आते थे जो शर्ट और जीन्स पहन कर गांव की परम्परा को चूना लगाने में लगे थे। उस युवक के पेन्ट की पीछे की जेब में एक छोटा कंघा तथा गले में रूमाल इस कदर शोभायमान हो रहा था कि यदि रुमाल की गांठ लगाने में ज़रा सी ओर ताकत का प्रयोग किया जाता तो वह युवक आत्म हत्या के प्रयास में पुलिस के हत्थे चढ़ गया होता। उसके आस पास खड़े नवयुवकों में आगे आने की होड़ लगी हुई थी। सभी राष्ट्र प्रेम से ओतप्रोत थे तथा राष्ट्रीय कार्यक्रम में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेना चाह रहे थे। ऐसा प्रतीत होता था मानों सामने किसी दस्यु सुन्दरी की लाश पड़ी हो। इस देश की बहुत समृद्व परम्परा है कि कैसी भी कानी कुबड़ी असुन्दर महिला क्यों न हो चंबल की घाटियों में शरण लेते ही सुन्दरी बन जाती है । चंबल की घाटी एक बहुत ऊंचे दर्जे का ब्यूटी पार्लर बन गया है। वे महिलाएं जो अपनी असुन्दरता के कारण हीन भावना की शिकार हैं एक बार चंबल घाटी जाकर सुन्दरी बन सकतीं हैं।
‘तुम्हारा नाम’। दूरदर्शन के प्रतिनिधि ने उस नवयुवक से वही घिसा पिटा सवाल किया ।
‘रमेश कुमार यादव’। वैसे उसका नाम रम्मू यादव था किन्तु शहर की गलत संगत के कारण रम्मू से रमेश बन कर उसने यह सोच कर कि नाम के आगे कुमार लगा लिया कि कुमार लगा लेने से गांव में उसकी हैसियत भी भले ही ऋतिक रोशन, शाहरूख खान, सलमान खान, सन्नी, बॉबी, जिन्होंने अपने नामों में कुमार शब्द का प्रयोग किसी षड़यंत्र के तहत बन्द कर दिया जैसी न बन पाये कम से कम दिलीप, संजीव,अक्षय,मनोज कुमारों जैसी तो हो ही जाये।
‘आप क्या करते है’
‘पढ़ता हूं’
‘पढ़ लिख कर आप क्या बनना चाहते है’। ऐसे प्रश्न अक्सर आठवीं या दसवीं का रिजल्ट आते ही मीडिया वाले उस छात्र या छात्रा से पूछते हैं जो मेरिट में आ जाते है और जिनमें अधिकांश डॉक्टर, इंजीनियर या आई ए एस अफसर बनने की इच्छा प्रकट करते हैं क्यों कि उनके बाप दादाओं को इन तीनों ने ही जम कर लूटा था। आज कल अपने आप को थोडा मॉडर्न समझने वाले फैशन डिजायनर बनने का राग भी अलापाने लगे है। एक छात्र ने जब अपनी नेता बनने की इच्छा जताई तो उसके बाप ने बाद में उसको बहुत ड़ांट पिलाई कि मेरिट में आने के बाद भी तुम नेता बनना चाहते हो । लानत है तुम पर।
‘डॉक्टर" । उसने भी उत्तर दिया।
‘क्या आप के गांव में अस्पताल है’ ।
‘हां है’ ।
गांव में जब कोई बीमार हो जाता है तब आप गांव वाले उसे कहां ले जाते हैं।
‘हनुमान जी के मन्दिर में पुजारी जी के पास’।
‘अस्पताल नहीं ले जाते’
‘जब मरने लगता है तब ले जाते है’ । वार्ताक्रम में किंचित भी अवरोध नहीं आ रहा था।
‘क्या आप यहॉ बिकने वाली मिठाईयाँ खाते हैं। क्या आप जानते है कि इस तरह की मिठाईयां खाकर उनसे बीमारियाँ हो सकती हैं’। दूरदर्शन के प्रतिनिधि ने अपनी बचपन में ‘सरल स्वास्थ्य’ की पुस्तक में पढ़े इस ब्रह्म वाक्य को दुहराते समय ऐसा मुँह बनाया जैसे इस रहस्य की खोज उसने ही की हो।
‘हाँ जानते हैं इसीलिए तो खाते हैं’।
‘जानते हुए भी क्यों खाते हैं।
‘बीमार होने के लिए’
‘बीमार किस लिए होना चाहते हो’।प्रतिनिधि ने नौ रसों में से एक रस का किसी नृत्यांज्ञना की तरह अभिनय करते हुए पूछा ।
‘अस्पताल जाने के लिए’। नवयुवक हाज़िर जवाबी में अत्यन्त निपुण दिखाई दे रहा था।
‘अस्पताल किस लिए जाना चाहते हो’
‘बताईयेगा अस्पताल किस लिए जाना चाहते है’ । अपने प्रश्न में बताओ की जगह बताइयेगा शब्द का प्रयोग करते ही आधे लोग समझ गए कि यह जरूर बिहार का रहने वाला होगा । प्रतिनिधि के इस प्रश्न को सुनकर थोड़ा शर्माते थोड़ा सकुचाते हुए नवयुवक ने इस प्रश्न का जो उत्तर दिया वह ‘अस्पतालों में मरीजों की बढ़ती हुई संख्या के कारण और निराकरण’ विषय पर निबंध लिखने वालों का मार्गदर्शन के लिए महत्वपूर्ण साबित हो सकता था।
युवक ने शर्माते हुए तथा इस सत्य को कि सत्य बोलने में साहस नहीं खोना चाहिए साहस के साथ स्वीकारते हुए उत्तर दिया ‘नर्स के कारण’ । आसपास खड़े हुए सब लोग जोर से हॅस पड़े।
कैमरे का अगला शिकार एक ऐसा अधेड़ युवक था जिस को देख कर लगता था कि उसकी साबुन बनाने वाली कम्पनियों से पुस्तैनी लड़ाई है इसलिए वो साबुन नामक चीज़ को न तो कभी खुद छूता था न ही अपने कपडों को छूने देता था। उसके शरीर पर विभिन्न स्थानों पर उगे हुए बाल किसी महिला की हारमोन्स की गडबडी के कारण नहीं वरन् उसके मर्द होने का सबूत दे रहे थे। पहली नज़र में देखने से ही मालूम हो जाता था कि वह किसान है।
‘आप का नाम’। प्रतिनिधि तुम से आप पर आ गया था जिस कारण उन दोनों के सम्बन्धों में कोई प्रेम सम्बन्ध स्थापित न हो सके।
‘लक्ष्मी नारायण’
‘आप क्या काम करते हैं’
‘मैं काश्तकार हूं’। पिछले कुछ समय से किसान अपने को काश्तकार कहलाना ज्यादा पसंद करने लगे हैं क्योंकि काश्तकार में साहूकार कलाकार चित्रकार जैसे प्रतिष्ठित व्यवसाय की गंध आती है। उसी गंध को आत्मसात करते हुए अगला प्रश्न फिर हवा में उछला।
‘ इस बार फसल कैसी हुई है’
‘अच्छी भी हुई और खराब भी’
‘अच्छी भी हुई और खराब भी’ इससे आपका क्या तात्पर्य है।
काश्तकार महोदय तात्पर्य का तात्पर्य समझ नहीं पाये। जब उसे बताया कि इसका मतलब मतलब है तब जवाब मिला।
‘फसल तो ठीक हुई है लेकिन सरपंच जी की भैंसे खेत में घुस जातीं है इसलिए खराब हो जाती है’।
‘अब आप क्या कर रहे हैं।’
‘हम क्या करें सरकार को ही कुछ करना चाहिए’
‘सरकार क्या भैंसे भगाए’
‘नहीं वो तो हम भगा देते हैं लेकिन जो भी नेता या अफसर यहाँ आता है वो भाषण दे जाता है कि हमें अच्छी फसल के लिए आधुनिक तरीके अपनाने चाहिए।
‘तो आपने कुछ तरीकों में बदलाव किया है।
‘हॉ किया है।
‘क्या किया’
‘हमने हल में बैल की जगह घोड़े जोतना शुरू कर दिया है।
कैमरा पुनः फूल पत्तियों को तोड़ता हुआ तथा पेड़ पर बैठे हुए बंदर तोते तथा कौओं को उड़ाता भगाता हुआ एक पक्के मकान के दरवाजे पर दस्तक देता है। अंदर सफेद धुले हुए कपड़ों में विज्ञापन के मॉडल की भाँति बगुले की तरह बैठे हुए गांव के प्रधान के ऊपर ठहरता है। वैसे आम दिनों में उनकी पोशाक जेब वाली बनियान तथा धोती होती थी जिसे वे इस तरह पहने रहते थे जिसमें से उनकी चड्डी भी आने जाने वालों को इस तरह देखा करती थी जिस तरह गांव की औरतें घूंघट की ओट से दिलवर का दीदार किया करतीं थीं परन्तु आज दूरदर्शन वालों के आने की सूचना से उनके शरीर पर कुर्ते ने भी कब्जा जमा लिया था। दूरदर्शन तथा गांव के प्रधान के बीच जो बातचीत हुई वह बड़ी उबाऊ किस्म की थी ।अतः उसे पूरी न लिख कर यहाँ कुछ शब्द दिए जा रहे हैं पाठकगण स्वयं बातचीत का अंदाज लगा सकते हैं।
गोबर गैस‚ हैण्ड पम्प‚ पंच वर्षीय योजना‚इन्दिरा गांधी, महात्मा गांधी, राजीव गांधी, राहुल गंधी, सोनिया गांधी, नहर‚ सिंचाई‚ खाद‚ अमोनिया‚ तहसीलदार‚ बी डी ओ‚ प्रौढ़ शिक्षा‚ यूरिया‚ पंचायत‚ गबन‚ फसल‚ ऋण‚ चुनाव‚ खुशहाल‚ कांइयां‚ जूते मारना चाहिए‚ षडयंत्र‚ मुकदमा‚ काला मुंह‚ गधे पर बैठा दो‚ बहुत कृपा की‚ जनता के सेवक‚ धन्यवाद‚ जयहिन्द ।


शरद के स्वर में भी सुनें

7 टिप्‍पणियां:

श्यामल सुमन ने कहा…

शरद भाई - कमाल की रचना है आपकी। शुरू किया तो अन्त तक पढ़ता ही चला गया। इकविता में आपको पढ़ने के बाद आपका यह एकदम नया रूप मैं आज पहली बार देख रहा हूँ। सुन्दर। अतिसुन्दर। बहुत बहुत बधाई।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर ने कहा…

shandar.narayan narayan

श्याम जुनेजा ने कहा…

acha vyangy hai pad kar maja aya-- shyam

सागर नाहर ने कहा…

मजा आ गया तैलंग साहब, एक बार हिन्दी चिट्ठाजगत में पहले भी सुन्दरी भैंस को बचाना है विषय पर कई चिट्ठाकारों ने मिलकर एक शानदार कहानी लिखी थी। वह भी एक जमाने में बहुत पसंद की गई थी।
अन्तर्जाल पर उसके अब दो धारावाहिक ही नजर आते हैं।
यह
कवर स्टोरी:आखिरी भाग
और यह
सुन्दरी बनी ब्राण्ड एम्बेसेडर

Sulabh Jaiswal "सुलभ" ने कहा…

बहुत स्वागत है आपका. निरंतर लेखन से अब ब्लॉगजगत को समृद्ध करे.

-Sulabh Satrangi ( यादों का इंद्रजाल )

राकेश खंडेलवाल ने कहा…

इतनी मजेदार रिपोर्टिंग पढ़ कर आपके आगे तालियाँ बजाते रहने के अतिरिक्त और कुछ भी कहना असम्भव है. बधाई तथा नमन

Shardula ने कहा…

आदरणीय शरद जी,
आज आपके ब्लॉग पे पहले बिन पानी सब सून वाला व्यंग पढ़ा ... कोटा की याद आ गई... आपको याद है आ.एल. कालौनी में कभी भी पानी, बिजली नहीं जाती थी :) बहुत ही प्यारा व्यंग!
ये साक्षातकार वाला व्यंग भी बहुत खूब है ! अंतिम पंक्तियाँ कुछ साफ़-साफ़ न कह कर भी बहुत कुछ कह जाती हैं !
आपको पारितोषक के लिए भी हार्दिक बधाई!
आपके ब्लॉग का शीर्षक पढ़ के एक कविता याद आयी है,"अक्ल बड़ी या भैंस" किसी ने भेजी थी, आपको मेल से भेजती हूँ.
सादर शार्दुला